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कृष्ण चंद रस्तोगी के पास हैं ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर देश की आज़ादी तक के सिक्के

सैयद फरहान अहमद
गोरखपुर, 29 नवम्बर। गोरखपुर शहर के अलीनगर मुहल्ले में रहने वाले कृष्ण चंद रस्तोगी एक ऐसे शख्स हैं जिनके पास  175 देशों के 2000 से अधिक दुर्लभ सिक्कों का संग्रह है. उनके संग्रह में भारत के पहले यानि ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पंच मार्क सिक्के से लेकर ब्रिटिश साम्राज्य का अंतिम सिक्का और देश की आजादी के मौके पर व भारतीय संविधान लागू होने के समय जारी किया जाने वाला सिक्का भी मौजूद है. दुर्लभ सिक्कों के उनके अनमोल संग्रह में खिलजी, लोदी, तुगलक, मुगल वंश के सुल्तानों द्वारा जारी किये गए सिक्के और मैसूर के शेर टीपू सुल्तान, हैदर अली व शेर शाह सूरी के शासन काल का सिक्का भी है।

आज यानि 29 नवंबर को 78वां जन्मदिन मना रहे कृष्ण चंद्र रस्तोगी का घर दुर्लभ सिक्कों का संग्रहालय हैं.

पंच कर्म के सिक्के

कृष्ण चंद रस्तोगी ने सिक्कों का संग्रह ही नहीं किया बल्कि सिक्के के जरिये इतिहास भी तलाशा। उनके पास हर सिक्के का इतिहास मौजूद है। उन्होंने हर सिक्के के साथ उसके चालू होने का वर्ष, मूल्य, धातु आदि स्पष्ट रूप से दिया है। जो इसकी अहमियत को और बढ़ा देता है। इसके अलावा सिक्का चालू करने वाले राजा, महाराजा, बादशाह, नवाब के बारे में विवरण भी शासनकाल, वंश सहित दिया गया है। जो बेहद दिलचस्प है। इससे उस दौर का इतिहास समझने में आसानी होती है। कुछ सिक्के हाथ के बने तो कुछ मशीन के। कागज से लेकर तांबा, पीतल, चांदी तक के सिक्के हैं। कुछ सिक्के डालर के रूप में भी है। इस संग्रह में इन्हें मशक्कत तो करनी पड़ी लेकिन ज्यादा पैसा खर्च नहीं करना पड़ा। विदेशी सिक्कों के लिए जरूर पैसे खर्च करने पड़े। वहीं बात करे विदेशी सिक्कों की तो ब्रिटेन व अमेरिका से लगायत यूरोप, एशिया, अफ्रीका, मीडिल ईस्ट के करीब 175 देशों के सैकड़ों नायाब सिक्के मौजूद है। इसके अलावा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अंतिम सिक्का भी है। इसके अलावा आजादी के मौके पर व भारतीय संविधान लागू होने के समय का भी सिक्का मौजूद है।
इन्हें एक शौक और भी है जिसकी वजह से सन् 1992 में इनका नाम लिम्का बुक आॅफ रिकार्ड में दर्ज किया गया। वह शौक देशों की माचिस इकट्ठा करने का।

शादी की विदाई में सास की दी 6 दुअन्नियों ने सिक्का संग्रह का लगन लगाया
बक्शीपुर से अलीनगर जाने वाली सड़क पर अपनी पत्नी और पुत्र के साथ रहने वाले कृष्ण चंद्र रस्तोगी को सिक्कों के इस खजाने को एकत्र करने का शौक विवाह के समय लगा। कृष्ण चंद्र रस्तोगी ने इण्टरमीडिएट की पढ़ाई खत्म की थी। 1958 ई. में सिर्फ 17 वर्ष की आयु में पिता ने विवाह तय कर दिया। कृष्ण चंद्र रस्तोगी के मुताबिक फैजाबाद जिले में शादी के समय सास ने विदाई में 6 दुअन्नियां प्रदान की थी। उनके संग्रह में आया यह पहला पुराना सिक्का था। उन सिक्कों को देख कर पुराने सिक्कों के प्रति अनुराग और आकर्षण पैदा हुआ। उसी दौरान अयोध्या नरेश सूर्यमित्र का सिक्का भी मिला, बस फिर क्या था, पुराने सिक्कों को एकत्र करने का सिलसिला शुरू हुआ, जो आज भी जारी है।

बहादुर शाह जफर का सिक्का
बहादुर शाह जफर का सिक्का

दुर्लभ सिक्कों को लोगों के बीच ले जाना चाहते हैं रस्तोगी
पुराने सिक्कों के प्रति उनके अनुराग से उनके रिश्तेदारों एवं दोस्तों को भी प्रभावित किया। किसी को भी कोई सिक्का मिलता वे कृष्ण चंद्र रस्तोगी को सौंप देते हैं। ऐसे परिचित जो विदेशों में रहते थे, या किसी परिचित का रिश्तेदार विदेश में निवास करता था, आग्रह कर कृष्ण चंद्र रस्तोगी उनसे सिक्के मांगते थे। वह कहते हैं कि उन्हें न तो किसी सिक्के के लिए कोई बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, न ही कोई लम्बी या कठिन यात्रा करनी पड़ी है। हालांकि सिक्कों की सुरक्षा को लेकर वह हमेशा चिन्तित दिखते हैं। यही वजह रही कि उन्होंने अपने सिक्कों की कभी नुमाइश नहीं की। हालांकि उनकी दिली इच्छा है कि वे अपने खजाने को लेकर लोगों के बीच जाए.वह चाहते हैं कि सरकार उन्हें कोई ऐसा जगह उपलब्ध कराए जहां वे सदियों के इतिहास को समेटे सिक्कों को एक साथ प्रदर्शित कर सकें।

आइये कृष्ण चंद रस्तोगी के दुर्लभ संग्रह के जरिये हम ईसा पूर्व छठवी शताब्दी के पंच मार्क सिक्कों से फिरोजशाह तुगलक के जजिया वाले सिक्के की यात्रा करते हैं.

भारत में सिक्कों की शुरूआत की कहानी बयां करते पंचमार्क सिक्के

प्राचीन भारत में विनिमय पद्धति की खामियों से उकता चुके लोगों ने सिक्कों के निर्माण और चलन की शुरूआत करते हुए चांदी और ताम्बा के जिन सिक्कों का निर्माण किया, उन्हें पंचमार्क या आहत सिक्के कहा गया। यह भारत में सिक्कों के शुरूआत का दौर था, हालांकि इसके पूर्व कौड़ी मुद्रा के रूप में प्रचलन में आ चुकी थी।
पंचमार्क सिक्के लगभग ईसा पूर्व छठवी शताब्दी (600बीसी) से लेकर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी (200बीसी) तक प्रचलन में रहे। पंचमार्क सिक्कों की शुरूआत सबसे पहले चांदी के सिक्कों से हुई। सिक्कों का संग्रह करने वाले कृष्ण चंद्र रस्तोगी कहते हैं कि यह सिक्के ग्रीक क्वाइन से प्रेरित थे।

ऐसे बनाए जाते थे पंचमार्क सिक्के
सबसे पहले चांदी को पिघला कर एक पतली चादर बनाई जाती। फिर इस चादर को अंदाज से ही बराबर तौल के टुकड़े काट लिए जाते। कई बार चादर कई स्थान से मोटी और पतली हो जाती। ऐसे में सिक्कों का वजन बराबर करने के लिए ज्यादा भारी सिक्कों के कोने काट लिए जाते थे। यही वजह था कि इन सिक्कों का आकार अनियमित और आकृतियां भी अनियमित होती थी। इन सिक्कों पर मार्क बनाने के लिए ठप्पे से विशेष चिन्ह बनाए जाते थे। इसलिए इन्हें पंचमार्क या आहत सिक्के नाम मिला।

टीपू सुल्तान के शासन काल का सिक्का
टीपू सुल्तान के शासन काल का सिक्का

उत्तर भारत में मगध से हुई थी शुरूआत

कृष्ण चंद्र रस्तोगी के मुताबिक इंडियन क्वाइन किताब के लेखक ईजे रैप्सन अपनी किताब में लिखते हैं कि पंचमार्क सिक्कों की शुरूआत उत्तर भारत यानी में मगध से हुई। यह कई शताब्दियों के बाद दक्षिण भारत पहुंचा। सभी सिक्कों को कर्षपण कहा जाता था लेकिन परन्तु कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के मुताबिक कम से कम चार मूल्य वर्ग के सिक्के प्रचलित थे -पण (आना), अर्ध-पण (आधा आना), पद (चौथाई आना) और अष्ट-भाग  या अर्शपादिका (आने का आठवां भाग) लेकिन अब तक कर्षपण सिक्के ही प्राप्त हुए। छठवीं शताब्दी में गंगानदी के किसाने बसे जनपदों एवं महाजनपदों ने शुरूआत की। मनु, पाणिनी एवं बौद्ध ने भी इस सिक्कों का जिक्र किया है। सभी जनपद अपने-अपने चांदी के सिक्के चलाते थे जिन पर उस जनपद के लोगों की पसंद या मान्यता के अनुसार चिन्ह अंकित किए जाते। इन चिन्हों से न केवल सिक्कों की पहचान होती बल्कि व्यापार या भ्रमण करते यह सिक्के एक से दूसरे जनपद पहुंचते तब उस जनपद की मान्यता के मुताबिक नए चिन्ह बनाए जाते। एक तरफ स्थान भर जाता तो दूसरी और चिन्ह बनाए जाते। इसलिए इन्हें जनपदीय सिक्के भी कहते हैं।
पंचमार्क सिक्कों पर अब तक 450 से ज्यादा चिन्ह
सौराष्ट्र में एक सांड, दक्षिण पंचाल के सिक्कों में स्वस्तिक। इस दौर में कुछ शक्तिशाली जनजातियां भी सिक्कों का इस्तेमाल करती थी लेकिन वह चांदी के बजाए तांबे के सिक्के निर्मित करते थे। मौर्य काल में मगध राज से चांदी के पंच-मार्क सिक्कों की परम्परा खूब फली फूली। पंचमार्क सिक्कों पर अब तक 450 से ज्यादा चिन्ह पहचाने गए। इनमें सूर्य, छः हाथों वाले प्रतिक, विभिन्न ज्यामितीय आकृतियां, चक्के, मानव आकृतिया, जानवर, धनुष-बाण, पर्वत, पेड़ आदि है।
तक्षशीला-कौशाम्बी का सिक्का
इसके अलावा कुछ सिक्के बड़े नगरों या उनके प्रभावशाली व्यापारी संधों ने भी जारी किए। जैसे उज्जयिनी, तक्षशीला, कौशाम्बी आदि महानगरों के सिक्के खोजे जा चुके हैं। इन सिक्कों का चलन उस नगर में स्थानीय स्तर पर था जिसके कारण इन्हें स्थानीय सिक्के कहा जाता है। इन सिक्कों में कृष्णचंद्र रस्तोगी के संग्रह में तक्षशीला का सिक्का भी उपलब्ध है। इस सिक्के पर चक्र की आकृति बनी हुई है।

इब्राहीम लोदी

अलाउद्दीन खिलजी के वंश की दास्तान बयां करते सिक्के

जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी (1290-1296 ई.) ‘ख़िलजी वंश’ के संस्थापक थे। दिल्ली के इस पहले सुल्तान की गद्दी संभालते समय उम्र 70 वर्ष थी।  20 जुलाई 1296 ई. को  भतीजे अलाउद्दीन ख़िलजी उर्फ जूना खान ने उनकी हत्या करा दी और शासक बन गया.  कृष्णचंद्र रस्तोगी के संग्रह में जलालुद्दीन खिलजी के शासन का अरबी इबारत लिखा ताम्बे का सिक्का है.
उनके संग्रह में अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल के ताम्बे का गोलाकार सिक्का भी है. करनाल की टकसाल में निर्मित किए गए इन सिक्कों पर कलमा, सुलतान का नाम, पदवी टकसाल का नाम और हिजरी का उल्लेख मिलता है. अलाउद्दीन ने 1296 ई.  से 1316 ई. तक शासन किया। कृष्णचंद्र रस्तोगी के संग्रह में अलाउद्दीन के बेटे कुतुबुद्दीन मुबारक शाह द्वारा चलाया गया सिक्का भी है। ताम्बे का यह सिक्का चौकोर बना है जिस पर अरबी में लिखा हुआ है। कुतुबुद्दीन 1316 ई. से 1320 ई. तक दिल्ली का शासक रहा।

सिकंदर शाह लोदी

गयासुद्दीन तुगलक के चांदी के सिक्के

दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश ने सन् 1320 ई. से लेकर सन् 1414 ई. तक दिल्ली की सत्ता पर राज किया। ग़यासुद्दीन ने तुग़लक़ वंश की स्थापना की, जिसने 1412 ई. तक राज किया। गयासुद्दीन तुग़लक़ उर्फ गाजी मलिक, उर्फ तुगलक गाजी दिल्ली सल्तनत में तुग़लक़ वंश का शासक था। 8 सितम्बर 1320 ई. को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। इसे तुग़लक़ वंश का संस्थापक भी माना जाता है। गयासुद्दीन तुगलक ने चांदी के सिक्के चलाए। कृष्णचंद्र रस्तोगी के संग्रह में गयासुद्दीन तुगलक के सिक्के भी शामिल है।

मोहम्मद बिन तुगलक का सांकेतिक सिक्का
गयासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जूना खॉ उर्फ  मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325 ई. -1351 ई.) के नाम से 26 वर्षो तक दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम उलूग खा था। उसने राजधानी को दिल्ली से देवगिरि स्थानान्तरित किया। देवगिरि को  कुव्वतुल इस्लाम भी कहा गया। सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरि का नाम ‘कुतुबाबाद’ रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदल दौलताबाद कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ की योजना असफल रही। इस कारण 1335 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। मुहम्मद तुग़लक़ ने सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। बरनी के अनुसार सम्भवतः सुल्तान ने राजकोष की रिक्तता के कारण एवं अपनी साम्राज्य विस्तार की नीति को सफल बनाने के लिए सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन करवाया।

जजिया कर का सिक्का
जजिया कर का सिक्का

फिरोजशाह तुगलक का जजिया कर का सिक्का

फिरोजशाह तुगलक (1351ई. -1388 ई.) कृष्ण चंद्र रस्तोगी के संग्रह में फिरोजशाह तुगलक के अन्य सिक्कों के साथ ‘जजिया कर’ का जारी किया गया सिक्का भी शामिल है। रस्तोगी कहते हैं कि ब्राह्मणों ने फिरोजशाह के समक्ष इस बात की अपील की थी कि उन्हें इससे मुक्त रखा जाए लेकिन फिरोजशाह तुगलक ने उन्हें छूट नहीं दी। फ़िरोज़ तुग़लक़ ने मुद्रा व्यवस्था के अन्तर्गत बड़ी संख्या में तांबा एवं चांदी के मिश्रण से निर्मित सिक्के जारी कराए।

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