विचार

हिजड़ा समुदाय का रहस्य लोक

इना गोयल, शोध छात्रा

यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन, यू.के.

( यह लेख हिजड़ा समुदाय पर शोध करते हुए इस बात को समझने का प्रयास है कि हिजडों की भूमिका पर अपना मत रखने के क्या अर्थ हैं और हिजड़ा बनने की प्रक्रियायें क्या हैं ।  यह अध्ययन दिल्ली, भारत में रहने वाले हिजड़ा समुदाय के नृजातीय (Ethnographic) अध्ययन पर आधारित है और सामाजिक अंग के रूप में हिजडों के जन्म का अन्वेषण करता है।  हिजड़ा समुदाय हमेशा से समाज के हाशिए पर घोर गरीबी में जीवन व्यतीत करता रहा है, जिसे सामान्य जीवन की सभी प्रक्रियाओं से बाहर रखा गया ।  समाज में प्रचलित अनेक तरह के पूर्वाग्रहों और असहिष्णुताओं से पीड़ित हिजड़ा समुदाय डर और अलगाव की भावना में प्रायः शहर के ऐसे स्थानों पर रहते हैं जो घेटो बना हुआ है।  इस समुदाय की समस्यायों को समझने में सबसे बड़ी बाधा इस समूह की अपने को ‘गोपनीय’ बनाये रखने की है।  इनके सामाजिक बहिष्कार को देखते हुए यह लेख अस्मिता की राजनीति और सामाजिक भेदभाव के पुनरुत्पादन के बीच अंतर्संबंधों की तलाश करता है जो मौजूदा वर्ग, लिंग, लैंगिकता आदि  की विषमताओं और गैर बराबरी का कारण है )

प्राक्कथन :

भारत में हिजड़ा समुदाय सामाजिक-धार्मिक आधार पर अलग लैंगिक पहचान वाले लोगों का विशेष समुदाय है ! भारत, जहाँ लैंगिकता (sexuality) प्रायः ‘पवित्रता’, ‘शुद्धता’, ‘अधीनता’, ‘सांस्कृतिक दंभ’ यहाँ तक कि ‘राष्ट्रीय अस्मिता’ और ‘राष्ट्र-राज्य’ से संबंध रखती है (चंदीरमनी एंड बेरी) ! हिजड़ा अस्मिता के निर्माण की शुरुआत सशक्त ऐतिहासिक पौराणिक कथाओं के माध्यम से होती है जिसमें ज्यादातर हिजड़ा पात्र भारतीय पौराणिक कथाओं में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हुए नज़र आते हैं। मुग़ल काल के दौरान उन्हें ‘ख्वाजासरा’ (फारसी का शब्द, रनिवास का मुखिया) की पदवी से नवाजा गया जिसका काम राजा के ‘हरम’ (रनिवास) की रक्षा करना था। यह ख्वाजासरा वही हो सकता था जो राजा का विश्वासपात्र हो। (रहमान, 2009) हिजड़ों को गुलामों (नपुंसक) की तरह खरीदा और बेचा (व्यापार) भी गया (टपरिया, 2011) । उस समय ऐसा नहीं था कि इस तरह के रोजगार को अवांछित या हेय माना जाता था। बात तो यहाँ तक थी कि कुछ माता-पिता मुगलिया सल्तनत की छ्त्रछाया और रोजगार पाने के लिए खुद से ही अपने बच्चों को ‘बधिया’ कर देते थे (पटेल, 2012)। समय के साथ जैसे-जैसे रियासतों का पतन होता चला गया, उनकी रहनुमाई का में भी गिरावट आई। इस गिरावट के साथ ही हिजड़ा समुदाय की आर्थिक स्थिति भी निरंतर कमजोर होती गई (जामी, 2005)।  वहीं दूसरे छोर पर हमारे समाज के भीतर हिजड़ा समुदाय को लेकर बहुत सारी किंवदंतियाँ (दुष्प्रचार) मौजूद हैं। जैसे हिजड़े, बच्चों (पुरुष) का अपहरण कर अपने समुदाय की सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए बधिया कर देते हैं (पेत्तिस, 2004)। औपनिवेशिक शासन (ब्रिटिश रूल) के दौरान हिजड़ा समुदाय को ‘आपराधिक-जनजाति अधिनयम (सीटीए) 1871’ के तहत ‘आपराधिक-जनजाति ’ घोषित किया गया। कालांतर में हालाँकि इस क़ानून को निरस्त (1952) कर दिया गया लेकिन इसके बावजूद समाज की सामूहिक चेतना में हिजड़ा समुदाय अछूत और यहाँ तक की अमानवीय बना रहा।

हिजड़ा समुदाय हमेशा से समाज के हाशिये पर घोर गरीबी में जीवन व्यतीत करता रहा, जिसे जीवन के बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा गया जैसे- भोजन और आवास जिससे जीवन को बेहतर और गरिमामय बनाया जा सकता है, हिंसा के विकट रूपों का वे निरंतर सामना करते रहे।  उनसे नफरत का आलम यह है कि उनके साथ बलात्कार, उत्पीड़न, शारीरिक शोषण और छेड़खानी जैसे अपराध निरंतर होते रहते हैं। अधिकतर हिजड़ों के साथ किये गए इन अपराधों में अपराधी वही थे जिनके हाथों में कानून की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। समाज के तमाम सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों और असहिष्णुता के भयावह रूपों, सामाजिक अलगाव को झेलते हुए हिजड़ा समुदाय, समाज की मुख्य धारा से अलग ‘ मलिन बस्तियों ’ में रहने को विवश है। इस समुदाय की समस्यायों को समझने में सबसे बड़ी बाधा इस समूह की अपने को ‘ गोपनीय ’ बनाये रखने की है।  इनके सामाजिक बहिष्कार को ध्यान में रखते हुए यह लेख अस्मिता की राजनीति और सामाजिक भेदभाव के पुनरुत्पादन के बीच अंतर्संबंधों की तलाश करता है जो मौजूदा वर्ग, लिंग, लैंगिकता आदि  की विषमताओं और गैर बराबरी का कारण है।

हिजड़ा समुदाय के इतिहास में एक महत्वपूर्ण समय अप्रैल 2014 में आया जब उच्च न्यायलय ने,  जिनकी पहचान हिजड़े के रूप में होती थी उन्हें ‘तीसरे लिंग’ के बतौर मान्यता देते हुए ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) में शामिल किया। भारतीय जनगणना 2011, ने भी ‘ तीसरे लिंग ’ की कुल जनसंख्या ज्ञात करने का प्रयास किया, जिसमें इनकी कुल जनसंख्या 4,90,000 होने का अनुमान लगाया गया । इसके साथ-साथ ‘अखिल भारतीय हिजड़ा कल्याण सभा ’(AIHKS) ने खुद के द्वारा किये गए 2005 के अध्ययन में अकेले दिल्ली में 30,000 के आस-पास अपनी संख्या होने का अनुमान लगाया, जिसमें 1000 नौजवान ऐसे थे जो औसतन प्रति वर्ष ‘ यूनक में परिवर्तित ’ हुए (भगत, 2005)। उन्हें शब्द ‘ एमएसएम ’(MSM) के तहत समाहित किया गया, जिसके मायने थे- ‘वह पुरुष जो पुरुष के साथ सम्भोग कर सके ’ या अभी निकट समय में इस्तेमाल में लाया जाने वाला शब्द ‘ट्रांसजेंडर (TG)’।  इस परिवर्तन को अंतराष्ट्रीय वित्तीय सहायता तथा भारी संख्या में बढ़ते ‘गैर सरकारी संगठनों’ की सहायता से समलैंगिक अल्पसंख्यकों की लैंगिकता को नियंत्रित करने के लिए एचआईवी और एड्स को दूर करने के नाम पर किया गया। विभिन्न शब्दों या अलग-अलग नामों के माध्यम से किया जाने वाला हिजड़ा समुदाय का यह विभाजन (categorization) निश्चित तौर पर वादविवाद के योग्य है।  (गोयल एंड नायर,  2012)  क्योंकि यह हिजड़ा समुदाय की स्वभाविक विशिष्टताओं में गड़बड़ी पैदा करती है।

दरअसल हिजड़े के तौर पर पहचान, हमारी लैंगिक गतिशीलता और लैंगिक चुनाव का संकेत है, चाहे वह फेरबदल सर्जरी के माध्यम से हो या हार्मोन के द्वारा, या दोनों के साथ, या इन दोनों में से किसी को न चुनने का निर्णय (क्योंकि बहुत सारे हिजड़े जो ‘गरीबी रेखा’ के नीचे जीवन-यापन करते हैं उनकी आर्थिक स्थिति इस शारीरिक बदलाव का इजाजत नहीं देती)। इस बातों के मायने यह हैं कि एक हिजड़ा यदि वह चाहे तो स्त्री, पुरुष या इन दोनों के बीच की लैंगिक भूमिका में रह सकता है। शारीरिक विकास की किसी भी अवस्था में हिजड़ा किसी अन्य अस्मिता या लिंग से नजदीकी महसूस कर सकता है। वह व्यक्ति जिसकी पहचान हिजड़े के रूप में की जाती है वह विषमलिंगी (स्ट्रेट), समलैंगिक (स्त्री/पुरुष), उभयलिंगी या अलिंगी हो सकता है। हिजड़ा बनने के लिए एक हिजड़े को ‘गुरु ’(वरिष्ठ हिजड़ा) का संरक्षण उसी तरह आवश्यक है जिस तरह वह जिस घराने की सदस्यता लेता है उसके रीति- रिवाजों में उसका दीक्षित होना। हिजड़ा बनने के लिए अंतर्लैंगिक जन्म होना कोई आवश्यक शर्त नही है। (गोयल, 2014 ) और अंतर्लैंगिक विविधता का हिजड़ा अस्मिता से तब तक कोई लेना देना नही है जब तक उसे गुरु का संरक्षण नहीं मिलता। हिजड़ा पहचान की विशिष्टता वह खास जैविक-शारीरिक बदलाव की प्रक्रिया है जो हिजड़ा समुदाय के विशेष सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के अंतर्गत लिंगीय पहचान और लैंगिकता के जटिल परिवर्तनों के मिश्रण से निर्मित की जाती है ।

कार्य-पद्यति 

        हिजड़ा समूह उन स्थानों पर निवास करते हैं जो स्थान समाज की मुख्य धारा की नज़रों से ओझल हो, जिससे शोध की परम्परागत पद्यतियों को लागू करने में खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यह अध्ययन हिजड़ा समुदाय की चुनौतिपूर्ण स्थितियों को ध्यान में रखते हुए नवीन पद्यतियों का प्रयोग करता है।  यह शोधकार्य जहाँ तक संभव हो सकता था वहां तक, एक वर्ष तक हिजड़ा समुदाय की होने वाली गतिविधियों, बैठकों और अनुष्ठानों में बिना बताये अचानक दाखिल हो जाने का नतीजा है। हिजड़ा समुदाय की आंतरिक जटिल प्रक्रियाएं जो इस समुदाय का गोपनीय पक्ष है उसे गहन मेलजोल से जाना गया। इस अध्ययन को तीन चरणों में किया गया –

चरण 1

इस अध्ययन के प्रथम चरण की शुरुआत में स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर हिजडों के साथ कार्य कर रहे गैर सरकारी संगठनों की मदद से उन आवासों के भौगोलिक स्थिति की अस्थाई सूची बनाई गई जहाँ हिजड़ा समुदाय रहता है। इस अध्ययन में मदद के लिए गैर सरकारी संगठन के उन स्वयंसेवकों के साथ विचार-विमर्श किया गया उस समुदाय से संबंध रखते थे जिसके कारण हम हिजड़ा समुदाय के कम्यून में प्रवेश पाने में सक्षम हुए। इसके बाद अध्ययन के लिए उपयुक्त प्रतिभागियों की पहचान का कार्य किया गया।

चरण 2

इलाके के प्रथम चरण के कई दौरों के बाद समुदाय के मुख्य प्रतिनिधियों और जिम्मेदार लोगों से घनिष्ठता में बढोत्तरी होती गई जिसके कारण हमारे अध्ययन को बहुत सहूलियत मिली, जिससे 30 ऐसे प्रतिभागियों का चयन उनकी सहमति से किया गया जो हमारे अध्ययन में रूचि रखते थे।

चरण 3

सहमति प्राप्त होने के बाद, उनके निवास स्थल, कार्यस्थल और कम्यून में सर्वेक्षण के लिए विस्तृत कार्य योजना बनाई गई। हिजड़ा समुदाय के सामूहिक विशिष्टताओं और स्वविवेक का सम्मान करते हुए उन्हें बातचीत में शामिल किया गया। इस बातचीत का स्वरूप तर्क-वितर्क था। सर्वेक्षण में प्रतिभागियों की विविधतता को देखते हुए लेखक ने इसके प्रति काफी सावधानी बरती। जिन प्रतिभागियों ने इस सर्वेक्षण में हिस्सा लिया उनके लिए उपनामों (छदम) का प्रयोग किया गया।

एक सामाजिक संस्था के रूप में हिजड़ों का जन्म

             हिजड़ा समुदाय सर्वत्र कोई एक ही जैसी, एक ही तरह की इकाई नहीं है जैसा की गायत्री रेड्डी और रेवथी ने दक्षिण भारत के हिजड़ा समुदाय पर आधारित अपने अध्ययन में रेखांकित किया है। ‘ हिजड़े की संकल्पना ना ही स्त्री की है और ना ही पुरुष की है….. वह एक अंतर्लैंगिक नपुंसक आदमी है जिसे अंडकोष निकलवाने की प्रक्रिया से गुजरना होता है, इस प्रक्रिया में जननांगों के कुछ या सभी हिस्सों को निकाल दिया जाता है ’ (नंदा, 1990: 35) हिजड़ा समुदाय के ‘ सांस्कृतिक आदर्श ’ और उनके ‘ वास्तविक व्यवहार ’ में परस्पर विरोधी अन्तर मौजूद हैं; भारत के हिजड़ा समुदाय के अंतर्गत बहुत से हिजड़े ऐसे होते हैं जो बधियाकरण के पारंपरिक अनुष्ठान से नही गुजरते उन्हें अकवा हिजड़ा  कहा जाता है – अर्थात वह अन्तःलिंगी, जो पुरुष जननांग रखता है वह भी हिजड़ा समुदाय में स्थान प्राप्त करता है। हमारी मुलाकात एक ऐसे हिजड़े से हुई जिसका नाम कल्याणी (बदला हुआ नाम ) था जिसने बधिया तो नही कराया लेकिन स्तन प्रत्यारोपण जरुर कराया था। उसका कहना था –

            हम हिजड़े आज अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं और इस बात को जानते हैं कि अपने शरीर के सबसे संवेदनशील अंगों को निकलवाने के उस पीड़ादायी ऑपरेशन (बधियाकरण) के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं । मैं अभी भी हिजड़ा हूँ पर मैं पूरे जीवन के लिए स्थायी तौर पर अपने शरीर को कोई नुकसान नहीं पहुँचाना चाहती । 

वह हिजड़े जो बधियाकरण की प्रक्रिया से गुजरते हैं उन्हें हम निर्वाणा हिजड़ा ’  कहते हैं। इस अनुष्ठान के तहत अंडकोष तथा लिंग दोनों को निकाल दिया जाता है।  (PUCL-K, 2003: 19) । जो हिजड़े बधियाकरण की प्रक्रिया से गुजर चुके होते हैं वह हिजड़ा समाज के अंदर सम्मान की नज़रों से देखे जाते हैं क्योंकि बधिया होने का मतलब है उन्होंने सांसारिक सुखों का त्याग कर दिया। अपने लिंग को कुर्बान कर देना उन्हें सामान्य लोगों से ऊपर उठाकर वह शक्ति या पदवी प्रदान कर देता है जिससे वह किसी को शाप या आशीर्वाद दे सकें। शरीर में किया जा रहा यह फेरबदल, लिंग परिवर्तन (reassignment surgery) ऑपरेशन में आने वाले अत्यधिक खर्च के कारण सामान्यतः बिना किसी अधिकृत चिकित्सीय सहयोग के किया जाता है (गोयल एंड नायर)।  इसके अतिरिक्त इस ऑपरेशन को लेकर किसी भी तरह का दिशा-निर्देश इंडियन काउन्सिल फॉर मेडिकल रिसर्च या मेडिकल काउन्सिल ऑफ इंडिया द्वारा तैयार नही किया गया है । हिजड़ा समुदाय के भीतर इस तरह के अनुष्ठानों को करवाने वाले स्थानीय चिकित्सकों के ठिकानों के बारे में अत्यधिक गोपनीयता बरती जाती है। कुछ हिजडों ने इस तरह के अनुष्ठानो में अपनी पूर्ण आस्था प्रकट की। पीकू (बदला हुआ नाम ), शाष्त्री पार्क ठेका में रहने वाला बांग्लादेश से शरणार्थी के रूप में आया हुआ इसी तरह का एक बधिया हिजड़ा था जिसने कहा –

            यह अपने आप में आत्मविश्वास और भरोसे का मामला है । हम अपने जीवन को कैसे किसी अकुशल और गैरपेशेवर हाथों में दे सकते हैं जिसके पास कोई अनुभव नही है । यह हमारे लिए जीवन और मृत्यु का मामला है। निःसंदेह हम समुदाय के विश्वसनीय चिकित्सक के हाथों पर भरोसा करेंगें जो इस काम को पीढ़ियों से हमारे लिए करते आ रहे हैं । 

कुछ हिजड़े जिन्होंने अपना ऑपरेशन अपने व्यक्तिगत और स्थानीय जान-पहचान वाले चिकित्सकों से कराया उनका कहना था कि उन्हें भयानक दर्द से गुजरना पड़ा। इसके बाद उनके स्वास्थ्य पर इसका बुरा प्रभाव तो पड़ा ही साथ ही साथ भविष्य में कई सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा। कपिला (बदला हुआ नाम ), शास्त्री पार्क डेरे में बांग्लादेश से आये एक और बधिया हिजड़े का कहना था –

            यही कारण है कि हमें भगवान की तरह माना जाता है क्योंकि हम ऐसी पीड़ा से होकर गुजरते हैं जिसे झेलने के बारे में सामान्य आदमी या औरत सोच भी नहीं सकते । हम ईश्वर के सर्वाधिक नजदीक हैं जैसाकि लोककथाओं में कहा भी गया है। महान भारतीय महाकाव्य महाभारत में हमें अर्ध नारीश्वर कहा गया है (आधा नर + आधा नारी = ईश्वर) । 

बधियाकरण के बाद कई अन्य अनुष्ठान किये जाते हैं, लगभग तीन महीने तक उस घराने के हिजड़े उसे आशीर्वाद देने आते हैं तथा उसके जल्दी व पूर्ण स्वस्थ होने की कामना करते हैं। जल्दी स्वस्थ होने के लिए हिजड़ा समुदाय बहुत सारे नुस्खों का इस्तेमाल करता है जैसे- सम्भोग तथा गर्म और मसालेदार खाने से दूर रहना, खुद से तैयार किये गए मरहम, लेप और तेल आदि की मालिश। हिजड़ा समुदाय में प्रवेश के लिए, गुरु द्वारा चेले को गोद लेने की जरुरत होती है जिससे वह चेले को घराने की संस्कृतिओं और परम्पराओं से परिचित कराये। गुरु को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले एक हिजड़े को यह पहचान करनी पड़ती है कि वह किसका चेला बनना पसंद करेगा, जिसकी शर्तों में, उसे तीन महीने से लेकर तीन साल तक ‘घरेलू सहायक’ के रूप में सेवा करनी पड़ती है जिसके एवज में गुरु चेले को सामाजिक सुरक्षा के साथ-साथ भोजन, कपडा और मकान की सुविधा प्रदान करता है। चंपा (बदला हुआ नाम ), लक्ष्मी नगर डेरे पर रहने वाली वरिष्ठ गुरु की एक चेला हिजड़ा है। उसका कहना था कि :

इसके अतिरिक्त हम अपने गुरु से क्या इच्छा रख सकते हैं ? हमारा गुरु हमारा रक्षक और मुक्तिदाता है । वे हमें इस क्रूर और निष्ठुर दुनियाँ से बचाते हैं ! हमारे पास ऐसा कोई नहीं है जिस पर हम भरोसा कर सकें, अपने परिवार वालों तक पे भी नहीं जिन्होंने हमें पैदा किया, उन्होंने हमारा त्याग कर दिया । ऐसा नही है, हमारा जीवन पूरी तरह साफ है। ऐसी परिस्थितिओं में हमें अपने गलत कामों के कारण जो हमने किये हैं उसके एवज में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, हम इसके योग्य है । ये सब जीवन का एक हिस्सा है, इससे बाहर निकलने का और कोई रास्ता नही है । 

हिजड़ों के घराने में शामिल होने पर उन्हें महिलाओं के जैसे नए नाम दिए जाते हैं तथा उन्हें डेरे के कम्यून में शामिल होने का अधिकार मिल जाता हैं। एक नयी पहचान के साथ कि वह हिजड़ा बन गया है। यहाँ से एक नयी शुरुआत होती है। हिजड़ों की दुनिया में अभ्यस्त हो जाने के बाद चेला घराने में अपना योगदान करते हुए अपनी कमाई से अपना हिस्सा गुरु को देना आरम्भ करता है। श्रेणीबद्ध (उच्च व निम्न) होने के बावजूद भी गुरु-चेला संबंध सहजीवी होता है जो समुदाय के भीतर सामाजिक संगठन की आधारशिला है और सामाजिक नियंत्रण की मुख्य संस्था के रूप में कार्य करती है। एक बार चेला बन जाने के बाद समुदाय की परम्पराओं की किसी भी प्रकार की अवज्ञा किये जाने पर चेले को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है और उसे हिजड़ा समुदाय से जाति बहिष्कृत समझा जाता है। गुरु और चेले के संबंधों में कई प्रकार की विविधताएँ  हैं। पूर्वी दिल्ली के ललिता पार्क डेरे में रहने वाली मोरनी  (बदला हुआ नाम ) के अनुसार – ‘ डेरा मेरा परिवार है और मेरा गुरु केवल मेरा संरक्षक नहीं है वह मेरी माँ, भाई, पति और मेरा सब कुछ है ।  लेकिन पूर्वी दिल्ली सीलमपुर एरिया में रहने वाली सलोनी (बदला हुआ नाम ) ने गुरु-चेला संबंधों को व्यक्त करते हुए कहा कि –

कभी तो गुरु-चेला संबंध माँ-बच्चे की तरह मधुर हुआ करता था लेकिन तुम जानती हो आजकल यह कैसा है । ज्यादातर इस बात से सहमत हैं कि हमारा संबंध सास-बहू के संबंध की तरह है कभी खट्टा तो कभी मीठा दोनों है ।      

घरानों के वर्गीकरण की आतंरिक व्यवस्था : 

हिजड़ा समुदाय के भीतर जो सामाजिक श्रेणियां प्रचलित हैं वह हिजड़ा समुदाय के भीतर वर्गीकरण की आन्तरिक व्यवस्था ‘ क्रमबद्ध श्रेणी ’ पर आधारित है जिसे घराना कहते हैं (डगलस, 1996) । दिल्ली में घरानों की जो व्यवस्था मौजूद है वह आरम्भ से ही इस बात में विश्वास रखती है कि उनका उद्दभव मुख्य रूप से दो घरानों से हुआ है एक है बादशाहवाला  और दूसरा है वज़ीरवाला (अल्ताफ,2008; जेफरी, 1997: 30 )  ये घराने आगे चलकर चार उप-घरानों में विभाजित हो गए। सबसे प्रमुख घराने ‘ बादशाहवाला ’ का स्थान  उन हिजड़ों के लिए सुरक्षित था जो हिंदी या उर्दू भाषा में संबोधन के माध्यम से बादशाह से संबंध रखते थे।  इससे जो घराने पैदा हुए वह इस प्रकार हैं –

  • सुजानी घराना : ‘ सुजानी ’ शब्द के मायने उस व्यक्ति से संबंधित है जो चीजों का बेहतर मूल्याङ्कन करती है, इस शब्द की व्युत्त्पत्ति हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओँ के संयोग से हुई है ।
  • राय घराना : ‘ राय ’ औपनिवेशिक ब्रिटिश राज में हुकूमत की वफादारी के लिए दी जाने वाली पदवी थी। इसके साथ-साथ भारतीय सामंती एवं जाति समाज व्यवस्था में राय एक उच्च जमींदार जाति है।

हिंदी या उर्दू भाषा के माध्यम से राजा के मंत्री या वज़ीर से संबंध रखने वाले ‘ वज़ीरवाला ’ के अंतर्गत आते हैं। इससे जिन घरानों का उद्दभव हुआ वे हैं –

  • कल्याणी घराना : हिंदी भाषा में कल्याणी का अर्थ होता है जो सभी के कल्याण के लिए बनी है ।
  • मंडी घराना : हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओँ में मंडी का अर्थ है ‘ बाजार ’ ।

हालाँकि हिजड़ा घराने के नामों के मायने और घरानों की सामाजिक स्थिति में कोई व्यावहारिक समानता नहीं है, यह मात्र एक खास तरह की शक्तियों का विभाजन है जो शायद हिजड़ा घरानों के बीच मौजूद हो । मेरे अपने अध्ययन के संबंध में उच्च श्रेणीबद्धता पर आधारित इन घरानों का वर्गीकरण हिजड़ा समुदाय के भीतर मौजूद सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने का काम करती है। इस प्रकार की संरचनाएं हो सकता है हिजड़ा समुदाय के भीतर कई स्तर पर मौजूद सामाजिक श्रेणीओं को नियंत्रित करने का एक माध्यम हो जो हिजड़ा समुदाय को लम्बे समय से एक सांस्कृतिक परियोजना के बतौर शासित करती रही है ।

आजीविका के विकल्प

आजीविका के सीमित विकल्प हिजड़ों के स्वरोजगार हेतु बाध्य होने का प्रमुख कारण है, वह केवल गरीब हैं और उनकी कोई शैक्षणिक पृष्ठभूमि नहीं है जिसका कारण उनका सामाजिक बहिष्कार है (गोयल एंड नायर, 2012) ।  उनका मुख्य पेशा टोली-बधाई गाना और आशीर्वाद देना है (खान, 2009) जो सभी हिजड़ों के लिए कमाई का एकमात्र जरिया है क्योंकि उनको निःसंतान दम्पतियों के लिए सौभाग्यशाली माना जाता है (देखें प्रेस्टन, 1987 : 378 )।

भारत में परम्परागत रूप से शुभ अवसरों पर की जाने वाली ‘ पुण्य वर्षा ’ का इस्तेमाल हिजड़े अपने धंधे के लिए करते हैं तथा उपहार और रुपये-पैसे आदि कमाते हैं। ऐसे अवसरों पर हिजड़े नाच-गाना करते हुए ढोल बजाते हैं। ढोल बेलनाकार लकड़ी का बना ड्रम होता है जिसे वे सामान्य तरीके से अलग बजाते हैं (गोयल, 2013)। हिजड़ा समुदाय के भीतर शुक्रवार का दिन शुभ माना जाता है और यह दिन आशीर्वाद के धंधे से अवकाश का दिन होता है। यह दिन इस्लाम के भीतर भी सामूहिक प्रार्थना का दिन होता है जिसे जुमा कहा जाता है ।  इसके साथ-साथ यह दिन साथी हिजड़ा सदस्यों के साथ मेलजोल बढ़ाने और घराने की बैठकों का होता है जो कई स्थानों पर किया जाता है। एक उपासक हिजड़ा (दिल्ली) हर शुक्रवार के दिन भारत की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक जामा मस्जिद में प्रार्थना करता है, जिससे यह तथ्य सामने आते है –

   हिजड़े अपने पारंपरिक पुरुष पहनावे कुर्ता-पायजामा को धारण करते हैं तथा जमात की आखिरी लाइन में बैठकर इसलिए नमाज़ (पश्चाताप की नमाज़) अदा करते हैं जैसाकि उनका मानना है कि अल्लाह की दी हुई छत्तीस नसों को कटवाकर (बधिया) उन्होंने पाप-कर्म किया है। इसलिए उनकी परछाई दूसरे नमाजियों पर नहीं पड़नी चाहिए । 

जीवन-यापन के लिए देह व्यापार को धनार्जन के अगले बेहतर विकल्प के बतौर देखा जाता है। यह घरों से लेकर सड़कों तक विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले पुरुष उपभोक्ताओं के आधार पर फैला हुआ है। सड़कों पर से किये जाने वाले देह व्यापार के अपने खतरे हैं । एक हिजड़ा, जो उसके साथ बीती थी उसे बताते हुए रो पड़ी। एक बार जब वह घर को लौट रही थी तब उसके घर के ही पास ड्यूटी पर एक पुलिस अधिकारी ने खींचकर उसका बलात्कार किया। वह असहाय थी और इस परिस्थिति में कुछ नहीं कर सकती थी अगर वह पुलिस के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने जाती तो इसकी पूरी संभावना थी कि उसे कार्य-स्थल (धंधे) पर जाने से रोक दिया जाता, साथ ही इस बात से भयभीत थी कि पुलिस वाले आगे उसे कोई नुकसान ना पहुँचा दें जिसे करने में वह सक्षम थे।

जीविका के लिए भीख माँगना आखिरी विकल्प है जिसे हिजड़ा समुदाय के भीतर हेय समझा जाता है। भीख माँगने के लिए ट्रैफिक सिग्नल हिजड़ो के लिए सबसे आसान जगह है, जिसे शहर के ट्राफिक जाम से काफी सहायता मिलती है जिसका अर्थ यह है कि जब ट्रैफिक, सिग्नल पर धीमी गति से आगे बढ़ता है तो हिजड़ो के पास यात्रियों से पैसे माँगने का पर्याप्त समय होता है। कमाई गई धनराशि को ट्रैफिक सिग्नल के साझीदारों के बीच शक्ति-संबंधों के हिसाब से साँझा किया जाता है। यदि कमाई अपर्याप्त है और वह केवल किराया और भोजन की जरूरतों को पूरा करती है तो उसे गुरु को दे दिया जाता है।

सम्मानित घोषित करने की आतंरिक व्यवस्था 

            हैदरबाद के हिजड़ा समुदाय पर काम करते हुए रेड्डी ने ‘ इज्ज़त ’ के महत्व को रेखांकित किया है। दिल्ली के हिजड़ा घरानों के बीच इज्ज़त की निर्मिती समूह के मानदंडों और रिवाजों के आधार पर की जाती है,  इसकी पहचान दो प्रकार के हिजडों में होती है। एक है ‘ पन्नवाला हिजड़ा और दूसरा है खैरगल्ला हिजड़ा ’ ।पन्नवाला हिजड़ों की इज्जत ज्यादा है क्योंकि उनके गुरु के पास निर्धारित किया एक निश्चित क्षेत्रीय इलाका होता है जिसमें उनके चेलों को उन स्थानों पर नियमित समय पर घूमने, बधाई गाने, भीख माँगने का अधिकार होता है। इन इलाकों की निशानदेही और विभाजन ‘ नायकों ’ (घराने का मुखिया) के बीच होता है तथा इसका पुनर्मूल्यांकन वरिष्ठ गुरुओं की माहवार होने वाली बैठकों में बातचीत से किया जाता है।

 ऐतिहासिक रूप से इस तरह क्षेत्रों और सीमाओं के विभाजन का उद्दभव हम लॉरेंस के नृजातीय अध्ययन में आरंभिक रूप से पाते हैं (1987)। लॉरेंस ने बम्बई के हिजडों पर किये गए अपने काम में इस बात की तरफ संकेत किया हैं कि अपने इलाकों में नियमित रूप से फेरी लगाना तथा गाँव वालों से हक वसूलने के चलन को परंपरागत रूप से मान्यता प्राप्त था।

हिजड़ा समुदाय के बीच सामूहिक विवेक से यह बात स्वीकार कर ली गई है कि पैसा एकत्रित करना हिजड़ों का जायज अधिकार है और इसी आधार पर हिजड़ा समुदाय को बढ़ाते हुए खुद से ही सीमाओं का विभाजन करते रहना चाहिए। फील्डवर्क के दौरान मैंने भी पाया कि दिल्ली में विभिन्न घरानों से सम्बंधित अनेक इलाक़े स्थानीय थानों में हाथ से लिखे गए कागजों पर गैरक़ानूनी रूप से पंजीकृत थे। ऐसा इसलिए था कि भारत में इस तरह की पेशागत स्वैच्छिक वसूली को मान्यता नहीं प्राप्त है इस तरह के इलाकों के ऑफ़ द रिकॉर्ड पंजीकरण का आधार अंतर्समुदायिक विवादों जैसे- अतिक्रमण, चोरी, उत्पीड़न, मारपीट तथा इससे सम्बंधित घटनाओं से बचने के लिए किया गया है। जो व्यक्ति हिजड़ा समुदाय के अगुवाओं (नायक और वरिष्ठ गुरु) द्वारा लिए गए निर्णयों को नहीं मानता है और उसका उल्ल्ङ्घन  करता है उसे जाति बहिष्कृत हिजड़ा या खैरगल्ला घोषित कर दिया जाता है। खैरगल्ला हिजड़ा शब्द का प्रयोग उन हिजड़ों के लिए किया जाता है जो निर्धारित इलाकों का अतिक्रमण करते हुए नियमित फेरे पर जाने वाले हिजड़ों के अधिकृत क्षेत्रों में प्रवेश करते हैं।

एक वरिष्ठ हिजड़ा गुरु ने कहा कि निम्न परिस्थितियों में एक हिजड़े को अतिक्रमणकारी (खैरगल्ला) माना जा सकता है –

  • जो समुदाय से बहिष्कृत कर दिए गए हैं और उन इलाकों में प्रवेश करते हैं जो अब उसका नही है ।
  • वे हिजड़े जो देह व्यापर में शामिल हैं लेकिन अपनी कमाई को बढ़ाने के लिए वो उन इलाकों में वसूली करते हैं जहाँ उन्हें वसूली के जरिये धन अर्जित करने का कोई अधिकृत आदेश नही है ।
  • बढती हुई उम्र और इज्ज़त के साथ जो वरिष्ठता प्राप्त करने की हमारी प्रथा है उसके बिना ही अपने आप को गुरु घोषित करते हुए उन इलाकों पर अपना दावा ज़माने लगते हों जिसका मालिकाना हक किसी और को दिया गया हो।
  • वे लोग जो जीवन-यापन के लिए भीख मांगते हैं लेकिन आर्थिक संकट के कारण अपने आस-पास के उन इलाकों में जो टोली बधाई के लिए दूसरे हिजडों को दिए गए हैं उन इलाकों का अतिक्रमण करते हैं।

नियमों के इस उल्ल्ङ्घन की सूचना वरिष्ठ गुरुओं और नायकों को दी जाती है और उन्हें दण्डित किया जाता है।  इसकी गंभीरता का फैसला घरानों की उन बैठकों में किया जाता है जिसमें अतिक्रमण का मुद्दा विमर्श के लिए रखा जाता है जिसे हिजड़ा पंचायत कहा जाता है। सबसे सामान्य सजा निर्धारित समय के अंदर भारी फाइन भरवाने की है। यदि वह इसमे असफल रहता है तो उसे घराने से बहिष्कृत कर दिया जाता है। हालाँकि एक हिजड़ा जो हमारे अध्ययन में शामिल था उसे बहुत ही अलग कारण घराने से बहिष्कृत किया गया था।  लैला  (बदला हुआ नाम ) ने मुझे बताया कि –

मुझे इस बात के लिए समाज से बहिष्कृत कर दिया गया कि मैंने जहाँ से अपना बधिया कराया मेरा गुरु उसके खिलाफ था । तब से लेकर मैं अपना जीवन खुद से चलाने के साथ-साथ अपने कुछ चेलों की भी मदद कर रही हूँ ।  अपने गुरु के साथ मेरी कोई बातचीत सफल नहीं रही है और मैं संघर्ष कर रही हूँ । वे हमसे भारी रकम माँग रहे हैं जिसे दे पाने में मैं अक्षम हूँ । 

 अंततः वह दिल्ली से बाहर चली गई क्योंकि अपनी देखभाल के लिए यहाँ खर्च बहुत ज्यादा था ।

निष्कर्ष :

हिजड़ा समुदाय की संस्थायें एक समूह के रूप में हिजड़ा समाज की सामाजिक स्थिति की जटिलताओं और गतिवधियों की तरफ संकेत करतीं हैं। यह एक प्रकार का व्यवस्थित श्रेणीबद्ध अन्तः क्षेत्र है जो आपसी सहयोग एवं सहमति से संचालित व्यवस्था है जिससे ‘ बाहरी दुनिया का कोई आदमी असहमति रख सकता है ’ जैसा कि मेरी डगलस ने कहा है (1996 : xx)।  इस तरह के अन्तः सांस्कृतिक रिवाजों को वो परंपरा के नाम पर न्यायोचित ठहराते आये हैं तथा (अपनी आन्तरिक व्यवस्था के प्रति जानकारी को एक मनोरोगी की तरह बचाने का प्रयास करते हैं जैसे कोई बाहरी जानकारी उनकी आन्तरिक व्यवस्था को खतरे में डाल देगी) ज्ञान को नियंत्रित करने के लिए तर्कहीन प्रमाणों के साथ प्रयासरत हैं जैसे कि उनकी आतंरिक व्यवस्था (ordered rankings) को किसी नए तरीके के बाहरी ज्ञान से खतरा होगा (डगलस, 1996: xxiv)! (Such cultural enclavism ‘justifies what it does by reference to tradition’ and also bears testimony to a ‘pathological tendency to try to control knowledge’ as any new external knowledge would threaten the inherent ‘ordered rankings’ (Douglas, 1996: xxiv).

 हिजड़े अपने समाज के भीतर निर्धारित श्रेणीबद्धता को अन्तः सांस्कृतिक रिवाजों के तहत बनाये रखते हैं जो उन्हें एक बंद सामाजिक समूह बनती है।  शरीर एक सामाजिक निर्मिति है और लोग उसका अपना-अपना अर्थ लेते हैं। ऐसा ही वो अपने शरीर के साथ भी करते हैं (सिन्नोट, 1992 : 79) अपनी स्वीकार्यता के क्रम में हिजडों द्वारा अपने शरीर में किया जाने वाला फेरबदल इस बात को दर्शाता है कि किस प्रकार उनकी शारीरिक प्रतीकात्मकता समाज की इच्छाओं की पूर्ति लगी हुई है (डॉगलस 1996 : 16)। एक ऐसे देश में जहाँ समलैंगिकता को अभी भी ‘अप्राकृतिक’ और ‘बीमारी’ माना जाता है (टाइम्स ऑफ इंडिया, 2011) इसी मानसिकता के साथ हिजड़ा समुदाय को जानने जाते हैं कि हम उसे समझ जायेंगें।  निःसंदेह भारत में इस समुदाय को बीमारों की तरह देखा जाता है। (यह केवल चिकित्सकीय देखरेख का नतीजा है कि भारत में हम इस समुदाय को देख पाते हैं !) उन लोगों को ‘हाई रिस्क समूह’ के बतौर निशाना बनाना, लेबल करना जो लोग अपने को हिजड़े की तरह देख रहे हैं, हो सकता है इसी कारण अपनी पहचान और मौजूदगी को ही कलंकित कर दिए जाने से सीमित उद्देश्यों की पूर्ती कर पाते हों और आगे उनकी अपनी अभिव्यक्तियों के खिलाफ उनके साथ भेदभाव करने लगते हैं।  ‘ जैसा की मैंने दिखाया है कि किस तरह समाज सामान्य और असामान्य के बीच लगातार भेद करने की विचारधारा से चालित होता है, जो  सामान्यता की व्यवस्था को, अपने से अलग किस्म के व्यक्तियों को समझने और स्वीकार करने की बजाय अस्वीकार करते हुए स्थापित करने का  प्रयास करता है (फूको, 1975 : 13)!’  हिजड़ा समुदाय के बहिष्कार नतीजा यह हुआ है कि जो लोग अपनी पहचान को समुदाय के साथ जोड़कर देखते हैं वो असमलैंगिक मानकता से लड़ने, लिंग, लैंगिकता और शरीर को समझने की बजाय, समाज में मौजूद गड़बडियों का ही अवतारीकरण करने लगते हैं। यह ‘अन्यकरण’ की प्रक्रिया को ही बढ़ावा देता है । हिजड़ों को जो अलौकिक पौराणिक दर्जा दिया गया है वह उन्हें हाशिये पर ही ले जाने का काम करता है। हिजड़ा समुदाय के इर्द-गिर्द बने रहस्यलोक को उन कल्याणकारी योजनाओं के लिए जो हो सकता है उनकी जरूरतों को शामिल कर लें हटाना बहुत आवश्यक है ! हिजड़ा समुदाय की वास्तविकता और उनके बारे में जनता के बीच फैली सामान्य जानकारी में भयानक अंतर है यह अलगाव एक समस्या है। इस लेख का उद्देश्य इस अंतर को ख़त्म करते हुए भारत के हिजड़ा समुदाय के चारो ओर बनाये गए मिथकों को ध्वस्त करते हुए संवाद कायम करना है जिससे समाज एक व्यापक बदलाव की प्रक्रिया में जाये। हिजड़ा समुदाय के विरुद्ध होने वाले भेदभाव ने उन्हें असमानता से चालित भिन्ताओं में जीवित रहने और भूमिगत समाज बनाने को मजबूर कर दिया है। मेरे अध्ययन का उद्देश्य इस बात को प्रकाश में लाना था कि अजैविक रक्त संबंधों पर आधारित हिजड़ों की सामाजिक गोपनीयता उनके लिए संदिग्ध हो चुकी है, यह गोपनीयता दिल्ली के हिजड़ा समुदाय के सामाजिक अस्तित्व का सामान्य मानक बन चुकी है।

ina-goel

(इना गोयल यूनिवर्सिटी कालेज लंदन के जेंडर एंड सेक्सुअलिटी स्टडीज विभाग में पीएचडी कर रही हैं। इसके पहले उन्होंने जेएनयू नई दिल्ली से सोशल मेडिसीन एंड कम्युनिटी हेल्थ में एम फिल और दिल्ली विश्वविद्यालय से मास्टर आफ सोशल वर्क की पढ़ाई की है )

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