विचार

बजट से गाँव और किसान के जीवन पर कोई सीधा प्रभाव नही पड़ने वाला है

आशुतोष राय

बजट केवल सरकार के वार्षिक आय व्यय का लेखा जोखा भर नहीं होता, बल्कि एक महत्वपूर्ण राजनीतिक दस्तावेज होता है जो सरकार की प्राथमिकताओं और उद्देश्यों को स्पष्ट करता है।

सीमित आय के स्रोतों को ध्यान में रखते हुए जब अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में बजट का आवंटन किया जाता है तो उससे सरकार की प्राथमिकताओं का पता चलता है, परन्तु सरकार के लिए अपनी प्रमुख योजनाओं, लोक-लुभावने वादों और राजकोषीय अनुशासन के बीच समन्वय बैठाना भी अत्यधिक आवश्यक होता है।

वर्ष 2018-19 के लिए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 1 फरवरी 2018 को राजग सरकार का अंतिम पूर्णकालिक बजट प्रस्तुत किया। सरकार ने वित्तीय वर्ष 2018-19 के लिए 2,442,213 करोड़ रुपये का अनुमानित बजट पेश किया, जो पिछले वर्ष के संशोधित आंकड़े 2,217,750 करोड़ रुपये से ज्यादा का रहा।

पिछले वर्षों की भांति ही व्यय की प्रमुख मदों में ब्याज भुगतान, रक्षा एवं सब्सिडी ही रहे, जिनके लिए क्रमशः 575,995 करोड़ रुपये, 282,733 करोड़ रुपये तथा 265,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गए वहीं सरकार की आय के प्रमुख स्रोतों में निगम कर, आय कर तथा जी.एस.टी. रहे जिनसे कुल निवल प्राप्तियां 1,480,649 करोड़ रुपये की रहीं, जिसके साथ ही सभी स्रोतों से कुल प्राप्तियां 2,399,147 करोड़ रुपये की रही।

वर्ष 2017-18 में राजकोषीय घाटा 3.5 प्रतिशत का रहा, जो की पिछले वर्ष के लक्ष्य 3.2 प्रतिशत से ज्यादा रहा, जिससे स्पष्ट है कि सरकार वित्तीय नियमितताओं को प्राप्त करने में असफल रही है।

इसके अतिरिक्त कुल बजट में गैर योजनागत व्यय की मात्रा भी बढ़ी है जिसमें पूंजीगत प्राप्तियों पर ब्याज पर खर्च पिछले वर्ष की तुलना में कुल 35,000 करोड़ रुपये से बढ़ कर 5.75 लाख करोड़ के आंकड़े तक पहुँच गया। जो इस बात का साफ संकेत है कि सरकार उत्पादन की मात्रा को बढाने के बजाय लोक-लुभावन मदों में ज्यादा खर्च कर रही है।

अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों की बात करें तो आर्थिक समीक्षा के अनुसार जी.वि.ए. में कृषि क्षेत्र का कुल योगदान 17.4 प्रतिशत का है और आज भी कृषि क्षेत्र पूरी तरह से वर्षा पर ही निर्भर है, जिसके कारण कृषि विकास दर एक अत्यधिक उतार-चढाव भरे ट्रेंड प्रदर्शित करता है।

पिछले वर्ष कृषि विकास दर 4.9 प्रतिशत रही, जबकि 2015-16 में यह 0.7 प्रतिशत थी, 2014-15 में -0.2 प्रतिशत जबकि 2013-14 में 5.6 प्रतिशत का था। पिछले 4 वर्षों में औसत कृषि विकास दर 2.75 प्रतिशत रही है, जबकि सरकार को 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 12.5 प्रतिशत प्रति वर्ष औसत विकास दर वांछनीय है अतएव किसानों की आय को दोगुना करने की बात सफेद झूठ है।

इसके अतिरिक्त कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों में गिरती हुई पूँजी निर्माण की दर भी समस्या का विषय बनी हुई है जो की वर्ष 2014-15 में 8.3 प्रतिशत से घट कर वर्ष 2015-16 में 7.8 प्रतिशत पर आ गयी है जिससे इस क्षेत्र में निजी निवेश की दर में भी कमी आई है।

दूसरा मुख्य क्षेत्र है औद्योगिक और संरचनात्मक विकास। जी.वि.ए. में उद्योगों की हिस्सेदारी 31.2 प्रतिशत की है। पिछले वर्षों में सरकार ने इसके विकास के लिए कई योजनायें जैसे मेक इन इंडिया, स्टार्टअप, मुद्रा आदि चलायी हैं तो वहीं नोटबंदी और जी.एस.टी लागू करके उसकी कमर खुद ही तोड़ भी दी है।

वर्ष 2015-16 में 8.8 प्रतिशत की विकास दर वर्ष 2016-17 में घट कर 5.6 प्रतिशत जबकि वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही में और कम होकर 1.6 प्रतिशत पर आ गयी। हालांकि दूसरे तिमाही में पुनः 5.8 प्रतिशत की विकास दर अर्जित की गयी। इसके अतिरिक्त आर्थिक समीक्षा में औद्योगिक उत्पादन की दर भी क्रमशः गिरती हुई दिख रही है।

वर्ष 2016-17 में जो 4.6 प्रतिशत थी वह गिरकर वर्ष 2017-18 की पहली दो तिमाही में 3.2 प्रतिशत हो गयी। इसके अतिरिक्त निवेश की गिरती हुई दर भी संकट का विषय बनी हुई है और उद्योगों के गिरते हुए आंकड़ों के साथ आप रोजगार की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसी स्थिति में केवल चुनाव को ध्यान में रखते हुए बजट में लोक-लुभावन वादों की ओर आकर्षण सरकार की पूर्ववर्ती स्थिति से एक शिफ्ट है।

हांलाकि सेवा क्षेत्र में विकास की दर 8.3 प्रतिशत है, परन्तु यह भी रोजगार की दर से मेल नहीं खाती जो की 4.5 प्रतिशत है। क्योंकि सेवा क्षेत्र में अधिकतर विदेशी निवेश कम्युनिकेशन और सॉफ्टवेर उद्योग में ही हुआ है और यह क्षेत्र अधिक रोजगार सृजन करने में सक्षम नही हैं।

इसके अतिरिक्त यदि शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति पर नजर डालें तो पाएंगे की आज भी सरकार जी.डी.पी. का बहुत छोटा भाग ही इन मदों पर खर्च कर रही है। शिक्षा पर कुल खर्च जी.डी.पी. का 2.6 प्रतिशत का है जो की सभी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बहुत कम है।

जबकि आर्थिक समीक्षा में शिक्षा की स्थिति पर चिंता जताई गयी है फिर भी शिक्षा के बजट में मामूली वृद्धि की गयी है। विशेषकर विश्वविद्यालयी शिक्षा एवं शोध के विकास के लिए कोई विशेष प्रावधान नही किये गए हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी केवल जुमलेबाजी मात्र हुई है।

स्वास्थ्य पर खर्च, जो की चिकित्सा और जन स्वास्थ्य, परिवार कल्याण और जल आपूर्ति एवं स्वच्छता को समाहित किये हुए है, जी.डी.पी. का मात्र 1.4 प्रतिशत है जो की पिछले वर्ष की तुलना में 53198 करोड़ रुपये से बढाकर मात्र 54,667 करोड़ रुपये किया गया है।

इसके साथ ही आयुष्मान योजना के तहत 10 करोड़ परिवारों का हेल्थ इंश्योरंस करने की बात कही गयी है जिसके लिए एक भी रुपया आवंटित नही किया गया है। तो ओवरऑल एक इंश्योरंस स्कीम के भरोसे ही जनता को तसल्ली देने का काम किया गया है। हालांकि हर तीन लोकसभा क्षेत्रों में एक मेडिकल कॉलेज बनाने का एक अच्छा निर्णय लिया गया है।

मुद्रा के माध्यम से 3 लाख करोड़ रुपये के कर्ज बांटने का लक्ष्य रखा गया है। मगर पिछले वित्तीय वर्ष में मुद्रा के माध्यम से 80 प्रतिशत से अधिक मूल्य का कर्ज उन्ही उद्यमियों को दिया गया जो बाजार में पहले से ही निवेश किये हुए हैं। इसके अतिरिक्त 250 करोड़ से कम टर्न ओवर वाली कंपनियों को निगम कर में छूट देने की बात कही गयी है।

इस बजट में मजदूरों, शिक्षित बेरोजगारों, कुशल श्रमिकों के लिए कुछ भी नही है। यद्यपि बड़ी कुशलता के साथ वास्तविक राजकोषीय स्थिति और औद्योगिक उत्पादन जैसे मूल विषयों को बजट के केंद्र से हटाकर एक स्वास्थय बीमा योजना (जिसका अभी तक प्लान भी नहीं बन पाया है) पर शिफ्ट कर दिया गया है।

सरकार के इस बजट को किसानो के पक्ष का बताया जा रहा है, मगर जनपक्षधर नीतियों के अभाव में सभी आवंटनों का सीधा लाभ उद्योगपतियों को मिलता आया है जैसे एग्रीकल्चर सब्सिडी और उर्वरक सब्सिडी का सीधा लाभ एग्रो इंडस्ट्रीज को मिलता है।

कुछ दिनों पहले आई ऑक्सफेम की रिपोर्ट में स्पष्ट हो गया की देश में 73 प्रतिशत पूँजी 1 प्रतिशत अमीर लोगों के पास हैं। फिर भी जब तक सरकार की नीतियाँ कोर्पोरेट्स के लिए ही बनी हुई है तब तक ऐसे किसी भी बजट से गाँव तथा किसान के जीवन पर कोई सीधा प्रभाव नही पड़ने वाला है।

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