समाचारसाक्षात्कार

हिन्दी बुद्धिजीवी प्रच्छन्न साम्प्रदायिक है-मुद्राराक्षस

(वर्ष 2008 में लिया गया मुद्राराक्षस का  साक्षात्कार)
सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं प्रखर चिन्तक मुद्राराक्षस साम्प्रदायिकता के उभार से चिन्तित हैं और उनका मानना है कि बुद्धिजीवी समाज साम्प्रदायिकता का मुकाबला नहीं कर रहा है। उनका बहुत साफ शब्दों में कहना है कि हिन्दी के बुद्धिजीवी प्रच्छन्न साम्प्रदायिक हैं, इसलिए उनसे कोई आशा नहीं की जा सकती। साम्प्रदाकिता से मुकाबले में वामपंथ की भूमिका से भी वह निराश हैं। एक दिन के गोरखपुर-कुुशीनगर दौरे पर आए श्री मुद्राराक्षस ने बातचीत में सांप्रदायिकता के उभार और बुद्धिजीवियों की भूमिका, वामपंथ, दलित राजनीति पर अपनी बेबाक राय रखी।

साम्प्रदायिकता और बुद्धिजीवी समाज
मैं अभी तक निराशावादी नहीं था लेकिन पिछले पाँच-सात वर्ष में जिस तरह से हिन्दू साम्प्रदायिकता बढ़ी है उसे देखते हुए निराशा होने लगी है। साम्प्रदायिकता विरोध हिन्दी क्षेत्र में व्यवसाय तो है, आन्दोलन नहीं है क्योंकि हिन्दी बुद्धिजीवी अंततः उसी धर्माडम्बर के पीछे चलने लगते हैं जहाँ से साम्प्रदायिकता पैदा होती है। बुद्धिजीवियों की दुनिया में यह दुखद है। हिन्दी के बुद्धिजीवी प्रच्छन्न साम्प्रदायिक हैं। हिन्दी बुद्धिजीवी धर्माडम्बर के पीछे चलते हुए इसे भारतीय संस्ऽृति की संज्ञा दे देता है। हिन्दी बुद्धिजीवी के सामने शत प्रतिशत भारत की संस्कृृति का अर्थ हिन्दू संस्कृति है। इसलिए साम्प्रदायिकता से मुक्ति के अभियान में देश हिन्दी बुद्धिजीवी पर विश्वास नहीं करता। हिन्दी में रामविलास शर्मा से ज्यादा जनवादी कौन हो सकता है लेकिन वह अंततः रामचरित मानस और वेदों की उस दुनिया में पहुंच गए जहाँ उनका स्वागत आरएसएस अपने मुख्यपत्र में उनके लेख छापकर करता है। त्रिलोचन शास्त्री को जिद थी कि माक्र्सवादी लेनिनवादी पार्टी में रह कर हिन्दू मिथकों पर लेखन करें और यह स्थिति सबकी है। कोई वेद तो कोई उपनिषद का नाम लेता है। दिलचस्प है कि इनमें से कोई मूल पढऩा भी नहीं चाहता है। अभी हिन्दी केे कवि कुँवर नारायण ने वाजश्रवा के बहाने खण्ड काव्य लिखा है। इसमें सारा आध्यात्म है लेकिन उपनिषद की एक ही चीज गायब है। वह ये कि तर्क नहीं करना चाहिए। भक्ति और श्रद्धा से चीजों को समझो, तर्क से नहीं। ऐसी हिन्दी की दुनिया पर क्या भरोसा।
साम्प्रदायिकता और वामपंथ
यही स्थिति वामपंथ की भी है। वामपंथ अपनी समग्र चेतना से साम्प्रदायिकता के विरुद्ध खड़ा नहीं होता और बार-बार हिन्दू साम्प्रदायिकता के सवाल पर वह कहने लगता है कि मुस्लिम साम्प्रदायिकता से भी लडा जाना चाहिए। वह यह भूल जाते हैं कि इस देश में मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने कोई मंदिर नहीं ढहाया। उन्होंने कोई गुजरात नहीं किया। उन्होंने किसी स्टेन्स को बच्चों समेत जीवित नहीं जलाया। चर्चों-मस्जिदों पर हमले लगातार हो रहे हैं। ऐसे में दुख ही होता है कि वामपंथ हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता को एक ही बाँट में तौलता है।
दलित राजनीति
दलित राजनीति चूँकि दलित नेताओं में ही सीमित रह गई है और दलित समाज सिर्फ भीड़ बना दिया गया है। इसलिए साम्प्रदायिकता से दलित राजनीति मुकाबला नहीं कर पा रही है। दलित आवाम को उसी तरह से जहालत में लपेट कर देखा गया है जैसे हिन्दू तंत्र मंदिर जाने वाली भीड़ को अशिक्षित रखता है। इसका बुरा नतीजा यह होने वाला है कि अब दलित मात्र वोट बैंक रह जाने वाला है। अपनी राजनीति का निर्णायक समुदाय नहीं बन पाएगा। इस देश में बहुत बड़ा परिवर्तन दलित पिछड़े समाज के जरिए आ सकता था। जिस तरह कभी दक्षिण भारत में हुआ था लेकिन यह संभावना अब सभी दलों ने समाप्त कर दिया है। पेरियार या फूले का जो दर्शन था वह पिछड़े-दलित और जनजातीय समुदाय की समान नियति को सम्बोधित था। इसलिए वह सफल भी हुआ लेकिन पिछले दो दशक में दलित और पिछड़े के बीच वैसा ही टकराव पैदा कर दिया गया जैसे हिन्दुत्व और वंचितों के बीच था।
साम्प्रदायिकता से लडऩे का सही नजरिया
ऐसा मैं महसूस करता हूँ कि उत्तर प्रदेश और बिहार की जड़ों में कही वह चिंगारी अभी जीवित है। साम्प्रदायिकता से लडऩे का सही नजररिया तो यह है कि उत्तर भारत को पेरियार के नजरिए से निर्मित किया जाता। पेरियार न ईश्वर मानता है न धर्म। अब ऐसी स्थिति में वह हिन्दुओं को पंसद नहीं ही है, अल्पसंख्यकों को भी पसंद नहीं आएगा। हालांकि रामस्वरूप वर्मा के अभियान से साबित हो गया था कि उत्तर भारत में धर्म और ईश्वर के बिना अच्छा और सुखी समाज बनाया जा सकता है। लेकिन यह भविष्य तो कल्पना ही दिखता है। मैं खुद भी नही चाहूँगा कि अल्पसंख्यऽ समाज जो वैसे ही दुर्दशाग्रस्त और तकलीफ में है, वह अपनी आस्था छोड़ दें। इसलिए मैं ज्यादा जोर पेरियार दर्शन पर नहीं देता, भविष्य पर छोडे़ रखता हूँ।

 

(प्रसिद्ध साहित्यकार एवं दलित चिंतक मुद्राराक्षस का आज लखनऊ में निधन हो गया। वर्ष 2008 में वह गोरखपुर और कुशीनगर में साम्प्रदायिक घटनाओं की पड़ताल करने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ आए थे। उस टीम का हिस्सा मैं भी था। उसी दौरान उनसे बातचीत करने का अवसर मिला। बातचीत का संक्षिप्त हिस्सा ‘हिन्दुस्तान’ के गोरखपुर संस्करण में प्रकाशित हुआ था। सं.)