साहित्य - संस्कृति

‘अपना सफर दूसरी रोशनी तक है ’ कहने वाले शायर तश्ना आलमी नहीं रहे

कौशल किशोर
लखनऊ, 19 सितम्बर। ‘हमें दुश्मन मिटाना चाहते हैं/ उनकी हिमाकत तो देखिए/सूरज को बुझाना चाहते हैं।’ जैसी शायरी के लिए मशहूर उर्दू के जाने-माने शायर तश्ना आलमी नहीं रहे। 18 सितम्बर की सुबह 9 बजे उनका इंतकाल उनके निवास बशीरतगंज में हो गया। कुछ महीने पहले उन्हें लकवा का आघात हुआ था। तभी से वे अस्वस्थ चल रहे थे।
तश्ना आलमी अपनी इंकलाबी शायरी के लिए मशहूर थे। हिन्दी में उनकी शायरी की एक किताब ‘बतकही’ नाम से छपी थी। मुशायरों में भी वे अपने खास अन्दाज तथा तल्ख तेवर के लिए जाने जाते थे। जन संस्कृति मंच के पटना में 1988 में हुए दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन मे बतौर प्रतिनिधि शामिल हुए थे। भाकपा माले, जन संस्कृति मंच और लेनिन पुस्तक केन्द्र जैसी संस्थाओं में ही उनका मन रमता था। संप्रति वे मंच की राष्ट्रीय परिषद और राज्य परिषद के सदस्य थे। उनके निधन पर जसम के प्रदेश अध्यक्ष कौशल किशोर, भाकपा माले लखनऊ जिला प्रभारी कामरेड रमेश सिंह सेंगर ने उनके निधन पर गहरा दुख व्यक्त किया है। उन्होंने कहा कि उनके निधन से हमने क्रान्तिकारी वाम धारा के शायर को खो दिया । वे सही मायने में सर्वहारा वर्ग के शायर थे। उन्होंने न सिर्फ इस वर्ग की जिन्दगी जी बल्कि उनकी शायरी भी गरीब-गुरबा के लिए थी।
तश्ना आलमी पूर्वी उत्तर प्रदेश देवरिया जिले के रहने वाले थे। करीब चालीस साल पहले वे अपने गांव सलेमपुर से लखनऊ आये और बशीरतगंज मोहल्ले में बस गये। यहीं रहते हुए उन्होंने शायरी की। लोगों के दुख दर्द में शरीक हुए। किसी होम्योपैथी डाक्टर मित्र की सोहबत में डाक्टरी के गुर सीखे और यह  लोगों की बीमारी में काम आया। इसी मोहल्ले के एक कोने में अपना दवाखाना खोल दिया जहां जरूरतमंद गरीब गुरबा आते और होम्योपैथिक दवा की पुडि़या ले जाते। तश्ना उर्दू के टीचर रहे। विचारों से प्रखर वामपंथी थे। उर्दू साहित्य की दुनिया में भले उपेक्षित रहे हों लेकिन अपनी इस दुनिया में खूब लोकप्रिय थे। इसीलिए तो कोई उन्हें मास्टर साहब कहता तो किसी के लिए डाक्टर साहब थें। कोई उन्हें कामरेड कह कर संबोधित करता तो कोई शायर। ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो उनकी गजलों के शेर पढ़ते हुए मिल जाएं।
चार साल पहले कवि भगवान स्वरूप कटियार और अवनीश सिंह ने उनके जीवन व शायरी पर ‘अतश’ नाम से एक दस्तावेजी फिल्म बनाई थी। इसमें तश्ना आलमी के कई रूपों को उकेरा गया। इसमें तश्ना सिर पर सफेद कैप, सफेद बढ़ी हुई दाढ़ी – इस पहचान के साथ रु ब रु होते हैं। तश्ना की शायरी में गली मुहल्ले की गलियों में घूमते, कूड़े के ढ़ेर से कुछ बीनते बच्चे बच्चियां, सड़कों पर  ठेला खींचते बच्चों के विषय हमें बहुत गहरे संवेदनशील बनाते हैं। उनकी शायरी कई तरह के विस्थापन के बीच घूमती है। यह देश में रहते हुए देश से विस्थापन, गांव से शहर व शहर में रहते हुए शहर से विस्थापन तथा साहित्य की दुनिया से विस्थापन – सबको समेटती है।  तश्ना की शायरी इस विस्थापन से पैदा हुए दर्द, संघर्ष और मुक्ति की शायरी है।
तश्ना आलमी की शायरी में विस्थापन कई रूपों हैं। इसका एक रूप है गांव से विस्थापन। यह गांव की उदास व नीरस जिन्दगी से शहर की चमक व चकाचौंध से भरी दुनिया में आना नहीं है बल्कि यह विस्थापन आम आदमी  की समस्याओं व उसकी तकलीफों का विस्तार है। इसे तश्ना अपनी शायरी में कुछ यूँ बयाँ करते हैं: ‘तरक्की खूब की है गांव से इस शहर में आकर/वहां हम हल चलाते थे, यहां रिक्शा चलाते हैं’। इसका दूसरा रूप अपने ही शहर से विस्थापित गरीब गुरबा की बड़ी आबादी है। लखनऊ ‘पहले आप, पहले आप’ की नफासत व नज़ाकत वाली तहजीब व संस्कृति के लिए मशहूर रहा है, वहीं आधुनिकीकरण के रूप में शहर के पोर पोर में पसरती मॉल व मल्टीप्लेक्स वाली बाजारवादी संस्कृति है, इनसे अलग अपने अस्तित्व के लिए जूझती व सामान्य नागरिक सुविधाओं से वंचित एक और लखनऊ है जो गली, कूचों व मलिन बस्तियों में बसा है जहां विकास की हल्की सी किरण भी नहीं पहुंच पा रही है। तश्ना इन्हीं गली कूचों का दर्द व सच्चाई बयां करते हैं: ‘ये सुब्हे जिन्दगी की शाम करने जा रहा है/सुनहरे ख्वाब सब निलाम करने जा रहा है/जिसे अब इन दिनों स्कूल जाना चाहिए था/वो बच्चा दस बरस का काम करने जा रहा है।’ वहीं विस्थापन का एक अन्य रूप देश से विस्थापन का है। तश्ना देश की व्यवस्था पर व्यंग्य करते हैंः ‘ ‘जुम्मन अरब चले गये रोजी की फिक्र में/हिन्दोस्तां में जैसे कमाने को कुछ नहीं/कौव्वाल क्या करेंगे, ये तश्ना की है गजल/इस शायरी में गाने बजाने को कुछ नहीं।’
तश्ना की गजलों में जहाँ समंदर की विशालता है वहीं यह सूरज की तरह है जो सारी दुनिया को जीवन व प्रकाश देता है। तश्ना अपनी गजलों द्वारा आम आदमी के संघर्ष व हिम्मत को सामने लाते हैं और उन लोगों की खबर लेते हैं जो मनुष्य विरोधी हैं: ‘खुदा जाने ये कैसे बागबाँ हैं/यहाँ ये जंगल लगाना चाहते हैं’। आम आदमी के दर्द को अपनी शायरी में तश्ना पिरोते हैं। शहर में रहते हुए आम आदमी के पास एक छत नहीं, खानाबदोश जैसी जिन्दगी है। एक मकान का सपना लिए जी रहे लोगों के दर्द को तश्ना यूँ बयाँ करते हैं: ‘तुम्हारे शहर में खानाबदोश रहना क्या/मैं बेनिशान हूँ कोई निशान हो जाय/सड़क हो नाला हो कि फुटपाथ के तले/मैं चाहता हूँ अपना मकान हो जाय’। यही दर्द और आम आदमी का संघर्ष तश्ना की शायरी में विस्तार पाता है – ‘जलते सिकम की आग बुझाने को कुछ नहीं/बच्चे बिलख रहे खिलाने को कुछ नहीं/फांके के साथ साथ अंधेरा है शाम का/चूल्हा तो क्या चिराग जलाने को कुछ नहीं’।
तश्ना की शायरी प्रेम, संघर्ष व श्रम से निर्मित होती है। इसीलिए इसमें श्रम का सौंदर्य है तो आपस में भरोसा है। तश्ना कहते हैं: ‘हम खुशबू की तरह फैले हैं दुनिया भर में/लोग खुशबू को गिरफ्तार करेंगे कैसे ?’ तश्ना ने समाज की बुराइयों, शोषण की व्यवस्था पर प्रहार किया है। गरीबी, जातिगत भेदभाव, सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं को उभारा है। उनकी शायरी आम आदमी की दशा व दुर्दशा से ही नहीं, उसके अन्दर की ताकत से परिचित कराती है। यह उनकी शायरी का मूल स्वर है। यह तश्ना की ‘तश्नगी’ को उभारती है तथा पाठक व श्रोता को तश्ना के सफर का हमराह बनाती है: ‘तुम्हारे चांद की शायद हुकुमत चांदनी तक है/मगर अपना सफर दूसरी रोशनी तक है।’ इस तरह उनकी शायरी हमारी चेतना को दूसरी रोशनी के सफर के लिए तैयार करती है। अपने इस अजीज शायर को जन संस्कृति मंच अपना सलाम पेश करता है। अपने पीछे तश्ना आलमी ने एक भरापूरा परिवार छोड़ा है  हम दुख के इस लम्हे में उनके साथ हैं।

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