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‘ सात पावरलूम कबाड़ में बेच दिया, इस कारोबार में सिर्फ टेंशन और बीमारी मिली ’

मनोज कुमार सिंह / सैयद फरहान अहमद 

गोरखपुर , 22 फरवरी। गोरखपुर के बुनकर राजनीतिक दलों और उनके नेताओं से नाराज हैं। उन्हें उम्मीद थी कि चुनाव के वक्त राजनीतिक दल और चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी उनकी समस्याओं को उठाएंगे लेकिन वे तो उनके क्षेत्र में उनकी पीड़ा भी सुनने नहीं आए। तब उन्होंने चुनाव बायकाट का नारा दिया है। उनका कहना है कि नेता उनके क्षेत्र में न आएं। बुनकर कहते हैं कि वह मतदान का बहिष्कार नहीं कर रहे, चुनाव का बहिष्कार कर रहे है। इसका मतलब है कि उनके क्षेत्र में प्रत्याशी वोट मांगने न आए क्योंकि पूरे पांच वर्ष वह बेहाल रहे लेकिन उन्होंने उनकी सुधि नहीं ली। वह मतदान करेंगे लेकिन नोटा के बटन को दबाएंगें।

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गोरखनाथ मंदिर से महज 300 मीटर दूर नौरंगाबाद और जाहिदाबाद मुहल्ले से उठा चुनाव बायकाट का नारा अब अन्य बुनकर बस्तियों में भी फैल रहा है। इन दोनों मुहल्लों में बुनकरों ने बैनर लगा कर नेताओं से यहां न आने को कहा है।
बुनकरों ने जबसे चुनाव बहिष्कार का नारा दिया है , यहां मीडिया का जमावड़ा रोज देखा जा रहा है। बुनकर इस बात से खुश हैं कि भले राजनीतिक दलों ने उनका मुद्दा न उठाया, मीडिया उनकी पीड़ा को स्वर दे रहा है।

गोरखपुर में हैं एक लाख बुनकर
प्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर के चारो ओर स्थित मुहल्ले बुनकरों के हैं। गोरखपुर के 14 मुहल्ले-चक्सा हुसैन, जमुनहिया, अहमदनगर, नौरंगाबाद, जाहिदाबाद, पुराना गोरखपुर, हुमांयूपुर, रसूलपुर, दशहरी बाग, अजय नगर आदि बुनकर बाहुल्य हैं जिनकी आबादी करीब एक लाख है। ये मुहल्ले गोरखपुर शहरी और गोरखपुर ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र में आते हैं। अधिकतर बुनकर बस्तियां गोरखपुर ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र में हैं।

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रसूलपूर, जाहिदाबाद नौरंगाबाद मुहल्ले में आज भी करघों की खटर पटर सुनाई देती है लेकिन यह आवाज धीरे-धीरे मंद होती जा रही है। वर्ष 1990 तक इस इलाके में 17 हजार हथकरघे थे लेकिन अब बमुश्किल 100 हथकरघे ही बचे हैं। 1990 के बाद से बुनकरों ने पावरलूम पर काम शुरू किया। गोरखपुर में  साढ़े आठ हजार पावरलूम लगे। कोई ऐसा घर नहीं था जहां दो तीन हथकरघे या पावरलूम न हो लेकिन बुनकरों के पास आज कोई काम नहीं और हजारों करघे खामोश पड़े हैं।
बुनकर नेता कमरूज्जमा अंसारी बताते हैं कि अब बुनकरों के पास सिर्फ 200 से ढाई सौ पावरलूम बचे हैं।

https://youtu.be/FcatIvN2AEg

80 हजार का पावरलूम 18 हजार में कबाड़ में बेचा 

कमरूद्दीन के पास आज से 12 वर्ष पहले सात पावरलूम थे। एक-एक पावरलूम 80-80 हजार में खरीदा था। अब उन्होंने सभी पावरलूम बेच दिया है। तीन दिन पहले ही उन्होंने पांच पावरलूम 18 से 20 हजार में कबाड़ी को बेच दिया क्योंकि उनके उपर 32 हजार का बिजली का बकाया हो गया था और उसे चुकाने का कोई रास्ता नहीं था।
बुनकर मुहल्लों में बाहर से रोज कबाड़ी आ रहे हैं और बुनकरों के पावरलूूम कबाड़ में खरीद रहे हैं।

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मकबूल अंसारी ने अपने पावरलूम बेच कर फल की दुकान खोल ली है। उनके सामने वाले घर में पावरलूम बंद पड़ा है और वहां सब्जी की दुकान खुल गई है।

एक समय था जब इन मुहल्लों में बंगाल और बिहार से बुनाई करने मजदूर आते थे और कलकत्ता से व्यापारी। बुनकरों के बनाए चादर, तौलिए, गमछे, लुंगी की बहुत मांग थी। यहां की शाल भी बहुत मशहूर थी जो सिर्फ ढाई रूपए में बिकती थी जिसे स्टेपल धागे से बुना जाता था।
इस शाल को खरीदने के लिए व्यापारी यहां महीनों डेरा डाले रहते थे लेकिन अब सब कुछ खत्म हो रहा है। बुनकर उद्योग आखिरी सांस ले रहा है।

1990 से सरकार ने बुनकरों के उत्पाद खरीदने बंद किए

बुनकरों की हालत 1990 से खराब होनी शुरू हुई जब कताई मिले बंद हो गई और यूपी स्टेट हैंडलूम कार्पोरेशन भी बंद हो गया। कार्पोरेशन से बुनकरों को न सिर्फ सस्ते धागे मिलते थे बल्कि उनका उत्पाद भी खरीद लिया जाता था। कताई मिलों और कार्पोरेशन के बंद होने से बुनकर पूरी तरह महाजनों पर निर्भर हो गए। महाजन उन्हें तौल का धागा देता है और बुनकर बुनाई कर उतने ही वजन का कपड़ा देता है। बदले में प्रति मीटर के हिसाब से बुनकर को मजदूरी मिलती है। वर्ष 1995 तक बुनकर को 4 रूपए प्रति मीटर मजदूरी मिलती थी जो अब घटकर 3.80 पैसे तक आ गई है।

आठ नवम्बर 2015 को नोटबंदी के बाद बुनकरों की हालत और खराब हो गई क्योंकि महाजनों ने उन्हें धागा देना और उनसे बुने कपड़े लेने बंद कर दिए। इससे बुनकरों का काम पूरी तरह ठप हो गया है। आखिरकार उन्होंने अपने पावरलूम बेचने शुरू कर दिए।

बिजली सब्सीडी का फायदा कारखानेदार उठा रहे 

बुनकरों के लिए केन्द्र और प्रदेश सरकार की तमाम योजनाएं व घोषणाएं हैं लेकिन वास्तविक सिर्फ एक ही मदद मिल रही है, वह है बिजली बिल पर सब्सीडी लेकिन इस मदद ने भी बुनकरों को फायदा कम बल्कि उनको नुकसान अधिक पहुंचाया है। एक दशक पहले प्रदेश सरकार ने प्रति लूम बिजली का बिल फिक्स कर दिया जो आज 144 रूपए महीना है लेकिन सरकार ने अधिकतर बिजली लोड की सीमा 120 किलोवाट तक कर दी। इसका फायदा बड़े महाजनों ने उठाया और उन्होंने 200 से 400 की संख्या में पावरलूम के कारखाने बना लिए और दो-दो शिफ्ट में काम करने लगे। अब उन्हें बुनकरों से बुने कपड़े लेने की जरूरत ही नहीं पड़ती और बिजली सब्सीडी का पूरा फायदा वही उठा लेते हैं। ऐसे महाजनों की संख्या एक दर्जन ही है लेकिन वे एक लाख बुनकरों की रोजी-रोटी पर भारी हैं। दूसरी तरफ कपड़ों की बाजार व महाजनों से मांग न होने के कारण बुनकरों के पास कोई काम ही नहीं बचा। पावरलूम बंद हो गए लेकिन हर महीने बिजली का बिल देना पड़ता है। इस चक्कर में अधिकरत बुनकरों पर हजारों  का बिजली बिल बकाया हो गया जिसे उन्होंने लूम बेच कर पूरा किया। पावरलूम बेचने के बाद कईयों ने चाय, फल, सब्जी की दुकान खोल ली है तो कुछ मजदूरी भी करने लगे हैं।

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हर क्षेत्र में मजदूरी बढ़ी है लेकन बुनकरों की मजदूरी घटती जा रही है। उन्हें एक मीटर कपड़ा बुनने में सिर्फ 3.80 पैसे मिलते हैं। आज से दो दशक पहले उन्होंनेे 4.10 रूपए मिलते थे। एक बुनकर पूरे दिन-रात काम कर 40 मीटर से अधिक कपड़ा तैयार नहीं कर पाता है। इस तरह वह 150-160 रूपया ही कमा पाता है जबकि मनरेगा मजदूर को 300 रूपए मिलते हैं।

नोटबंदी के बाद बुनकरों की हालत और खराब हो गई क्योंकि महाजनों ने उन्हें धागा देना और उनसे बुने कपड़े लेने बंद कर दिए हैं। इससे बुनकरों  का काम पूरी तरह ठप हो गया है।
युवा बुनकर पावरलूम बेचकर पासपोर्ट बनवा रहे हैं और खाड़ी देशों में जा रहे हैं।
आज बुनकरों के बनाए उत्पाद की मांग नहीं है। गोरखपुर के बाजार में चीनी चादरें, पिलो कवर बिक रही हैं और बुनकर खाली हाथ बैठे हैं। उनके हुनरमंद हाथ अब चाय बना रहे हैं या ठेला खींच रहे हैं।

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