साहित्य - संस्कृति

′′ कुछ तो किरदार नए मंच पर लाए जाएं और नाटक को सलीके से निभाया जाए ’’

हर दिल अजीज कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में जन संस्कृति मंच का सालाना काव्य-जलसा वीरेनियत-2
नई दिल्ली, 1 नवम्बर. हर दिलअजीज कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में होने वाले जन संस्कृति मंच के सालाना काव्य-जलसे का यह दूसरा आयोजन था. 29 नवम्बर की शाम 6 बजे से ही श्रोता और कवि हैबिटेट सेंटर, दिल्ली के गुलमोहर सभागार पर जुटाने लगे थे. मनमोहन, शुभा, उज्जवल भट्टाचार्य और दिगंबर जैसे वरिष्ठों के साथ अनुपम, निखिल, सुनीता,कुंदन, आशीष जैसे युवा भी कविता-पूर्व की गहमागहमी भरी बहस में सभागार के बाहर घास के मैदान पर बतकही में मशगूल थे. ठीक 6:30 पर वीरेन डंगवाल पर बने दस्तावेजी सिनेमा का एक अंश दिखाया जाना शुरू हुआ. वीरेन डंगवाल की कवितायें उनकी जुबान से सुनना रससिक्त कर देने वाला अनुभव तो था ही, इस वीडियो-पाठ ने होनेवाले कवि सम्मलेन का एक गहरा पर्यावरण रच दिया.
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वीरेन डंगवाल की कविता  के बहुतेरे रंग हैं, उनमें से कई रंग कवि-सम्मलेन में उभरे, चमके, दिपे. उनके समकालीन कवियों की काव्य-भूमि तो उनकी साझे की थी ही, युवा कवियों ने भी अपनी कविताओं की मार्फ़त इस काव्य-भूमि को आपेक्षिक विस्तार दिया.
 संयोजक-संचालक आशुतोष कुमार के बुलावे पर सबसे पहले अनुज लुगुन कविता पढने आये. अनुज की कविताओं की अलहदा दुनिया हम श्रोताओं को उन इलाकों तक ले गयी जहां सचमुच रवि की पहुँच नहीं है . एक अलग आँख से दुनिया को भांपती अनुज की कविता हमारे पारंपरिक आस्वाद-बोध को चुनौती देती है. अनुज द्वारा पढी गयी ‘हमारा दुःख, उनका दुःख’ कविता एक रूपक बनकर उभरी, जो दो दुनियाओं के बीच की जगह को ठीक-ठीक पहचानती है.
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रूचि भल्ला हिन्दी कविता की दुनिया में अपेक्षाकृत नया नाम हैं, वे गोष्ठी की दूसरी कवि थीं. लगभग बतकही के शिल्प में रची रूचि की कविताओं ने दिखाया कि रोजमर्रा की जिन्दगी की नगण्य चीजें-बातें कैसे कविता बन जाती हैं ! एक कविता में स्वर्णाबाई की नज़र से देखी गयी दिल्ली का रंग यों उभरा- ‘ दिल्ली वही है जहां शिंदे साहब टूर पर जाता है ’. शरीफे पर लिखी उनकी कविता ने वीरेन डंगवाल की ‘पपीता’ जैसी कविताओं की याद ताजा कर दी. चर्च हिन्दी कविता में कम ही आया है, रूचि ने इलाहाबाद और गोआ के चर्चों की चर्चा के जरिये श्रोताओं को ‘ चर्च के पीछे के उस पेड़ ’ की याद दिलाई जो कभी किसी चर्च के पीछे था ही नहीं.
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तीसरे कवि थे संजीव कौशल जिनकी कविताओं में राजनीतिक रंग साफ़ दिखे. ‘सत्ता की सोहबत बिजूकों को भी नरभक्षी बना देती है ’ जैसी पंक्ति इस कठिन-कठोर समय में सत्ता के चरित्र और असर का जायजा लेती है. ‘चूल्हे’ और ‘कठपुतलियाँ’ जैसी कविताओं के सहारे संजीव हमारे वक्त का विद्रूप चेहरा दिखाते हैं पर तरीका उनका बेहद संवेदनशील था.
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अगले कवि महेश वर्मा अपने गहरे संवेदना बिंबों और अपनी अनूठी दार्शनिक नज़र के कारण  सराहे गए। डिस्टोपिक यथार्थ की बारीक समझ वाले संवेदन-बिम्ब मसलन ‘ तालाब में उतराती अपनी ही लाश ’ श्रोताओं को गहरे परेशान कर गए।
बिहार से आए वरिष्ठ कवि अमिताभ बच्चन की कवितायें जीवन प्रसंगों से कविता बुनने की विलक्षणता से भरी हुई थीं। व्यंग्य, जिसे आचार्यों ने कविता की जान कहा है, से भरी-पूरी अमिताभ जी की कवितायें आख़िर में एक गहरी उदासी छोड़ गयीं। हमारे वक़्त की शिनाख्त करती ये कवितायें एक हल्का कथा ढाँचा रखती हैं जिससे  तादात्मीकरण में बेहद आसानी हुई।
वीरेन डंगवाल के चिर-सखा और हिंदी के अप्रतिम कवि मंगलेश डबराल की कवितायें एक दूसरी, ज़्यादा इंसानी दुनिया की तलाश की कवितायें हैं,ऐसा उन्हें सुनते हुए फिर महसूस हुआ। ‘हमारे देवता’ जैसी कविता देव-लोक को मानुष-लोक में बदलकर समाज के सांस्कृतिक द्वंद्वों को रेखांकित कर गयी। मंगलेश जी के कलम में ही वह ख़ूबी है जो ‘बेटी पलटकर पूछती है/पापा आपने कुछ कहा’ जैसी पंक्ति पूरे काव्य-वैभव के साथ श्रोताओं के  दिलों में खुभ गयी।  अपनी एक गद्य कविता के माध्यम से उन्होंने राज की मुश्किलों व उसके भविष्य की ओर  इशारा किया।
गोष्ठी के आख़िरी कवि बल्ली सिंह चीमा की गजलें हिंदी कविता के छांदस रंग को उकेरने वाली थीं। उर्दू से हिंदी में आकर गजल का  न सिर्फ़ स्वर बल्कि सँवार भी बदल जाता है,यह महसूस किया गया .जनता से संवाद करने की भाषा और लबों-लहजा इन गजलों की ख़ासियत थी। जैसे –
“कुछ तो किरदार नए मंच पर लाए जाएं
और नाटक को सलीके से निभाया जाए”
 एक और शेर था -” मेन दुश्मन को हारने के लिए लाज़िम है/ हर विरोधी को ही दुश्मन न बनाया जाए.”
 तीन घंटों तक चली इस बहुविध कविता गोष्ठी में ठसाठस भरे सभागार में मौजूद श्रोताओं की सक्रिय भीगीदारी इसे और समृद्ध बना गयी.

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