विचार

क्या अब योग से गरीबी और भुखमरी खत्म होगी

डॉ संदीप पांडेय (प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता )

21 जून को दुनिया में योग की लोकप्रियता, जो नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के गठन ये पूर्व ही स्थापित थी, का इस्तेमाल कर अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस धूम-धाम से मनाया गया। प्रधान मंत्री का योगदान इतना है कि इधर-उधर चल रहे पृथक प्रयासों को उन्होंने संगठित कर दिया और योग के भारतीय मूल का होने का खूब डंका पीटा। पिछले वर्ष से संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इन प्रयासों को मान्यता देते हुए 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाना तय किया। इसका निश्चित रूप से एक प्रतीकात्मक महत्व है। योग का मुख्य आकर्षण है यह एक मानसिक-शारीरिक संतुलन, जिसका अभाव आधुनिक दुनिया में बहुत लोगों को परेशान करता है, उपलब्ध कराने की संभावना। इसके अलावा इसकी उपयोगिता व्यक्तिगत स्तर पर ही है जो व्यक्ति को दुनिया की समस्याओं से कुछ तात्कालिक राहत का अनुभव करा सकता है। इससे आगे इसकी उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह है। अंतराष्ट्रीय योग दिवस मनाने से हमारी कौन सी राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय समस्या का समाधान निकाला जा सकता है? इसकी कोई सामूहिक उपयोगिता नहीं है। ज्यादातर लोग भी अपने निजी स्वास्थ्य कारणों से ही इसे अपनाते हैं।
इस बार संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के स्थाई मिशन ने ’विकास में निरंतरता के लक्ष्य की पूर्ति में योग की भूमिका’ पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया। ’विकास में निरंतरता के लक्ष्य’ संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा द्वारा 19 जुलाई 2014 को पारित वे 17 वांछनीय लक्ष्य हैं जो दुनिया के सभी देश 2030 तक पूरा करने की कोशिश करेंगे। इन लक्ष्यों में भूख व गरीबी की समाप्ति, खाद्य सुरक्षा हासिल करना, कृषि में निरंतरता को बढ़ावा देना, स्वस्थ्य जीवन, समावेशी एवं समतामूलक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना, लैंगिक समानता हासिल करना, सभी के लिए पानी एवं शौचालय की व्यवस्था, समावेशी आर्थिक विकास जिसमें निरंतरता हो, सभी के लिए रोजगार, गैर-बराबरी को समाप्त करना, उत्पादन एवं उपभोग में निरंतरता, जलवायु परिवर्तन को रोकना, समुद्र एवं जंगल का संरक्षण व सभी को न्याय सुलभ कराना शामिल हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि योग के माध्यम से कैसे इन महत्वाकांक्षी उद्देश्यों को पूरा किया जा सकता है। उपर्युक्त लक्ष्यों में सिर्फ एक ’स्वस्थ्य जीवन’ में ही योग की भूमिका दिखाई देती है वह भी, जैसा हम निम्नलिखित में देखेंगे, एक सीमित वर्ग के लिए ही। उल्टा योग से आत्ममुग्ध होकर हम अपना नुकसान भी कर सकते हैं। उपर्युक्त लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ठोस अनुसंधान पर आधारित गम्भीर नीति निर्माण के साथ सही नीतियों व कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है। यदि हम अपनी पूरी क्षमता का भी उपयोग कर लें तो इसमें कोई आश्चर्य न होगा यदि 2030 आते-आते हम उपर्युक्त उद्देश्यों से अपने आप को कोसों दूर पाते हैं। यदि कोई यह कहता है उपर्युक्त लक्ष्यों की पूर्ति में योग की कोई भूमिका है तो यह भ्रमित करने वाली बात है। यह नरेन्द्र मोदी का खास मार्का कार्यक्रम है जिसमें प्रचार ज्यादा होता है लेकिन ठोस कोई उपलब्धि नहीं होती।
भारत की 90 प्रतिशत और दुनिया के भी बड़े मेहनतकश वर्ग को तो योग की आवश्यकता नहीं होती न ही वे किसी योग के कार्यक्रम में भाग लेते नजर आएंगे। उनका योग तो खेत-खलिहानों, कारखानों व अन्य किस्म की मजदूरी में ही हो जाता है। ये तो शिक्षित वर्ग, और भारत में मात्र 10 प्रतिशत बच्चे विद्यालय की दहलीज पार कर महावि़द्यालय या विश्वविद्यालय में पहुंच पाते हैं, जिसमें अभी भी सवर्णों का ही वर्चस्व है जो मध्यम वर्ग होता है और चाहे-अनचाहे शासक वर्ग का भी हिस्सा बन जाता है, जो अपनी शिक्षा की वजह से श्रम से कट गया है, उसे अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए योग की आवश्यकता होती है। इस वर्ग के लोग ज्यादातर कुर्सी-मेज पर बैठकर अपना काम करते हैं और शारीरिक मेहनत बहुत कम करते हैं अथवा उनके काम में कोई रोचकता नहीं होती। ऐसे लोगों को अलग से समय निकाल कर कुछ शारीरिक अभ्यास करना पड़ता है अथवा मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए कोई कार्यक्रम लेना पड़ता है। कुछ कोई खेल खेलते हैं, तो कुछ सुबह-शाम दौड़ने जाते हैं, कुछ साइकिल चलाते हैं तो कुछ लोगों को तैराकी पसंद है। जैसे जैसे पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ते जा रहे हैं बहुत से लोग साइकिल की तरफ दोबारा लौट रहे हैं। अब तो सरकार भी साइकिल ट्रैक बनवाने लगी है।
महात्मा गांधी चर्खा चलाते थे। उसके पीछे मुख्य तो स्वदेशी की विचारधारा थी। हो सकता है यह भी सोच रही हो कि मनुष्य की तीन प्राथमिक आवश्यकताओं – रोटी, कपड़ा व मकान – में से किसी एक के उत्पादन में हमारा सीधा योगदान होना चाहिए। महात्मा गांधी की शिक्षा की अवधारणा में लिखना, पढ़ना, गणित, आदि के अलावा हाथ से काम करना सीखना भी शामिल था। दुर्भाग्यवश गांधी का विचार मुख्य धारा शिक्षा में शामिल न हो सका और हमने मूलतः वही अंग्रेजों की दी शिक्षा व्यवस्था कायम रखी जिसमें शिक्षा के माध्यम से प्रशासनिक ढांचे को चलाने के लिए व्यक्ति तैयार किए जाते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उत्तर भारत में पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्रों की पहली पसंद भारतीय प्रशासनिक सेवा होती है और उच्च शिक्षा व शोध कार्य में बहुत कम छात्र रुचि लेते हैं।
जिन लोगों ने अपनी दिनचर्या में शारीरिक अभ्यास करने का कोई न कोई तरीका निकाल लिया है उन्हें योग की जरूरत नहीं पड़ती। यह तो एक छोटा सा वर्ग है – देश-विदेश दोनों में – जिसे शारीरिक अभ्यास का कोई मौका नहीं मिलता, उसके लिए योग की उपयोगिता है। किंतु योग के महत्व या भूमिका को जरूरत से ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की जरूरत नहीं है। लोग इसे स्वयं-स्फूर्त पहल पर व्यक्तिगत निर्णय से करें तो इसकी ज्यादा उपयोगिता होगी।
प्रधान मंत्री और सरकार के पास ज्यादा जरूरी काम हैं, जैसे मंहगाई पर काबू पाना, और उन्हें मात्र प्रतीकात्मक महत्व के कार्यक्रम पर इतना समय या संसाधन नहीं खर्च करने चाहिए। योग दिवस की पूर्व संध्या पर नागरिक उड्डयन व रक्षा क्षेत्र को 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश के लिए खोल देना कई सवाल खड़े करता है। यह कदम देश हित में तो नहीं। क्या इसको घोषित करने का समय जान बूझकर ऐसा चुना गया कि अगले दिन इसकी आलोचना योग दिवस के उत्साह में दब जाए?

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