विचार

गुरमेहर कौर की आवाज सुनिए और उनकी निडरता का सम्मान करिए

प्रो सदानंद शाही 

लगभग एक दशक पहले मैं विश्वविद्यालय के महिला अध्ययन केन्द्र से जुडा था।उस दौर में हमने महिला अध्ययन में पाठ्यक्रम आदि बनाये।उस समय हमें अपने कुछ पुरुष सहकर्मियों की टिप्पणियां हैरत में डाल देतीं।अपने सारे वैदुष्य और पांडित्य को धता बताते हुए वे प्राय:  कहते रहते कि कहां फंसे हुए हो -‘महिलायें तो वैसे ही बेहाथ हो गयी हैं आप लोग महिला अध्ययन कराकर और दिमाग खराब कर दे रहे हैं। उस समय हमने महसूस किया कि हमारे समाज में महिला अध्ययन की जरूरत महिलाओं से ज्यादा पुरुषों के लिए है। परम्परागत ढांचे और सामाजिक परिवेश से पुरुषों ने जिस कदर लैंगिक दुराग्रह की विरासत प्राप्त और विकसित किया है उससे उन्हें मुक्त  करने के लिए नितान्त जरूरी है कि उन्हें महिला अध्ययन में शिक्षित किया जाय और उन्हें बताया जाय कि पुरुष नजरिए से बनी दुनिया कितनी तंगदिल हो गयी है। इसी तरह मुझे यह भी लगता है कि अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का उपयोग पुरुषों के भीतर बद्धमूल  लैंगिक असमानता की धारणा को बदलने का अवसर हो सकता है।

यह अच्छी बात है कि महिलाओं के मुद्दे पर हमारा समाज इतना सहिष्णु जरूर हो गया है कि वह हर साल अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस की नोटिस लेने लगा है।

पिछले साल हमारे प्रधानमंत्री ने यह इच्छा व्यक्त की थी कि मैं चाहता हूं कि महिला दिवस के दिन संसद में केवल महिला सदस्य ही बोलें। प्रधानमंत्री के इस कथन को मैं महिला दिवस की नोटिस लेने का ही प्रमाण मानता हूं। मैं मानता हूं कि संसद में महिला दिवस के दिन सिर्फ महिला सदस्य ही बोलें, कह कर प्रधानमंत्री महिलाओं के बोलने के अधिकार की हिमायत कर रहे थे। ऐसा कहते हुए प्रधानमंत्री की यह मंशा नहीं रही होगी कि केवल सत्ता पक्ष की महिला सदस्य ही बोलें।यह आमन्त्रण विपक्ष में बैठी महिला सदस्यों के लिए भी रहा होगा। हमारे प्रधानमंत्री की मंशा यही रही होगी कि महिलाओं को बोलने की आजादी हो।महिला दिवस के बहाने से ही सही उन्होंने महिलाओं की आवाज के प्रति एक स्वीकार्यता का भाव दर्शाया था।जिस पितृसत्तात्मक समाज में महिला या  स्त्री जीवन की भूमिका सिर्फ मनोरंजन,चुहल,उपभोग और प्रजनन तक सीमित हो ,उसमें यह भी किसी उपलब्धि से कम नहीं है। लेकिन यह बात अपनी जगह बिल्कुल दुरुस्त है कि लैंगिक समानता और सम्मान की दिशा में हमें लम्बी दूरी तय करनी है।

आज लगभग साल भर बाद महिला दिवस फिर हमारे सामने है । महिलाओं की आवाज की स्वीकार्यता या उनके बोलने के अधिकार के सवाल पर विचार करने की जरूरत महसूस हो रही है। हम महिलाओं को सहानुभूति देने के लिए तैयार रहते हैं।तीन चार साल पहले दिल्ली में जब एक लडकी पाशविक दुर्घटना का शिकार हुई तो पूरा देश ही उठ खडा हुआ था। साहस पूर्वक लडने और प्रतिरोध करते हुए अपनी जान गंवा देने वाली लडकी का नाम कुछ और था लेकिन हमने उसे निर्भया और दामिनी कह कर मान दिया। मन में यह सवाल उठता है कि यदि वह लडकी बच गयी होती और खुद को निर्भया कहती तो क्या हम उसके साथ यही सुलूक करते ? यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि अभी जब बीस बाईस साल की एक लडकी गुरमेहर कौर ने कहा कि वह किसी से डरती नहीं है,तो हंगामा बरपा हो गया।अपनी निडरता की घोषणा करते हुए उसने एक छात्र संगठन का नाम ले लिया  था।  मैं समझता हूं कि एक लडकी का बेखौफ होकर कहना कि वह किसी व्यक्ति या संगठन के डर से अपनी बात कहने से हिचकेगी नहीं और अपनी निडरता की घोषणा करना किसी लोकतांत्रिक राज्य के लिए प्रमाणपत्र की तरह है कि लोकतंत्र का स्वास्थ्य सही सलामत है।लेकिन उसके वक्तव्य पर जो प्रतिक्रियाएं आयीं वह हैरत में डालने वाली है। उन्हें देखते हुए लगता है कि हमारा समाज अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि वह किसी निडर लडकी के अस्तित्व को स्वीकार कर सके।लडकी कमजोर हो,डर और दबाव में रहे और हम  उसके प्रति सहानुभूति जता सकें, इसके लिए तो हम तैयार हैं लेकिन कोई लडकी जब अपनी निडरता का दावा करती है तो हम डर जाते हैं। यह डरना इसलिए होता है कि इसमें पुरूष सत्ता को चुनौती दी जा रही है।जब लडकी कहती है कि वह किसी से नहीं डरेगी तो इससे हमारे सामूहिक पुरुष अहं को ठेस लगती है।और चोटिल सामूहिक पुरुष अहं फुफकार उठता है। ऐसी लडकी को गलत साबित करने के लिए तमाम तरह के तर्क गढे जाते हैं। प्रमाण जुटाये जाते हैं ।उसे डराया धमकाया जाता है।पुरुष अहं जो सबसे बडी धमकी देता है वह बलात्कार की धमकी होती है।गुलमेहर कौर के मामले में यह सब हुआ और हो रहा है।आश्चर्य यह कि ऐसा करने वाले  वे लोग हैं जो  खुद को प्रधानमंत्री का समर्थक कहते हैं,जबकि प्रधानमंत्री खुद औरतों के बोलने के हिमायती हैं।

असल में गुरमेहर कौर का अपराध केवल यह नहीं है कि वह किसी संगठन की नीतियों का विरोध कर रही है,उसका अपराध यह है कि वह पुरुष वर्चस्व को चुनौती दे रही है। डर की असल वजह यह है। वजह यह भी है कि वह सिर्फ निडरता की घोषणा नहीं करती बल्कि समाज को सोचने की नयी दिशा देने की हिमाकत करती है।

गुरमेहर कौर के जिस वीडियो को आधार बनाकर उसके खिलाफ वातावरण बनाया गया उस वीडिओ में उसमें वह ऐसे समाज की कल्पना करती हुई दिखाई देती  है जिसमें घृणा और युद्ध के लिए स्थान नहीं हैं ।वह शांति के लिए अपील करती है।युद्ध नहीं शाँति चाहिए।और क्यों न करे।युद्ध और आतंकवाद का सबसे बडा खामियाजा स्त्री को ही भुगतना पडता है।महाभारतकाल से लेकर दोनो विश्वयुद्धों तक स्त्रियों को युद्ध की विभीषिका झेलते हुए हम पाते हैं।रही सही कसर मौजूदा दौर के आतंकवाद ने निकाल दी है। इसीलिए आतंकवाद के अमानवीय चेहरे को उजागर करने और साहस के साथ उसका प्रतिपाठ रचने के लिए विश्वमानवता ने मलाला युसुफजई का अभिनन्दन किया ।ऐसे में अगर गुलमेहर कौर युद्ध के उन्माद का प्रतिपाठ रचती दिखाई पडती है तो आगे बढकर हमें उसका अभिनन्दन करना चाहिए,न कि उसकी दुनिया उजाडने की कोशिश।

खास तौर से इसलिए भी कि पुरुषों की बनाई दुनिया घृणाजन्य उन्माद  से धधक रही है।पूरे विश्व में आग सी लगी हुई है।हाल में अमरीका में हो रही भारतीयों की हत्या का सम्बंध इस घृणा और उन्माद से ही है। यह संभव नहीं कि हम एक जगह कहीं उन्माद की हिमायत करें और कहीं पर शांति का पाठ पढायें ।इसलिए अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हमें गुरमेहर कौर की निडरता का सम्मान करना चाहिए और उसके द्वारा उठाई युद्ध विरोधी और शांति की  आवाज को सुनना और समझना चाहिए।यह हमारे समाज में स्त्रियों को निर्भय बनाने की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही एक उदात्त और मानवीय दुनिया रचने की दिशा में ठोस कदम सिद्ध होगा।

प्रो सदानन्द शाही
प्रो सदानन्द शाही

(बीएचयू में हिन्दी विभाग में प्रोफेसर सदानंद शाही का यह लेख आज ‘ हिंदुस्तान ‘ में प्रकाशित हुआ है)

Related posts