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‘ फिल्में सत्ता से लड़ना सिखाएं ’

प्रख्यात फिल्म अभिनेता ओमपुरी का 32 वर्ष पुराना इंटरव्यू

(यह इंटरव्यू गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर चन्द्रभूषण अंकुर ने जून 1984 में लिया था जो अमृत प्रभात में 26 अगस्त 1984 को साप्ताहिक परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था। उस वक्त अंकुर एमए की पढाई पूरी करने के बाद गर्मी की छुट्टियों में मुम्बई गए थे। इस दौरान वह ‘ अमृत प्रभात ’ के लिए फिल्म काॅलम लिख रहे थे। ‘ आक्रोश ‘ और ‘ अर्धसत्य ‘ देखने के बाद वह ओमपुरी से जबर्दस्त प्रभावित थे। उन्होंने ओमपुरी से सम्पर्क किया तो उन्होंने रात दस बजे आने को कहा। ओमपुरी उस समय दीपक बाहरी की फिल्म ‘ पत्थर ’ की मड आई लैंड में शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने अंकुर को वहीं बुलाया। बातचीत का सिलसिला रात तीन बजे तक चला। इस दौरान ओमपुरी ने चन्द्रभूषण अंकुर को खाना खिलाया और इंटरव्यू खत्म होने के बाद फिल्म यूनिट की गाड़ी से लोकल ट्रेन  तक पहुंचाया। आज जब चन्द्रभूषण अंकुर ने ओमपुरी के निधन की खबर सुनी तो स्तब्ध रह गए। काफी देर तक वह 32 वर्ष पुरानी भेंट और लम्बी बातचीत की यादों में खोए रहे। गोरखपुर न्यूज लाइन के लिए उन्होंने यह साक्षात्कार साझा किया )

चन्द्रभूषण: ओमपुरी जी, आप फिल्मों में कैसे आए ?

ओम: अभिनय में तो मुझे कालेज के दिनों से ही रूचि थी किंतु पंजाब का माहौल सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत उन्नत नहीं था। कालेज के ही दिनों में मै एक नाट्य संस्था पंजाब कला मंच के सम्पर्क में आया। इसी नाट्य संस्था द्वारा प्रोत्साहन पाकर मैने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली में दाखिला लिया। दिल्ली आने तक मेरे मन में फिल्मों के प्रति एक पूर्वाग्रहित दृष्टिकोण था कि फिल्मों में काम करने वालों की समाज में इज्जत नहीं है, खास तौर पर कला जगत में। अतः उसमें जाने की कोई इच्छा नहीं थी। दूसरे मैने अभिनय की विधा को सामाजिक विसंगतियों को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए चुना था और हिन्दी फिल्मों का कथानक कहां तक तत्कालीन समस्याओं और समाज से सम्बद्ध होता था, आप जानते ही हैं। अतः पूर्वाग्रहित दृष्टिकोण के तहत ही मैं फिल्मों से दूर रहता था लेकिन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अध्ययन के दौरान मुझे कई देशी-विदेशी फिल्मों, जिनमें कला-व्यावसायिक सभी तरह की फिल्में थीं, देखने को अवसर मिला। इससे मेरा दृष्टिकोण फिल्मों के प्रति बदला। इसी समय भारत में भी 1970 के आस-पास कुछ लोगों ने हिन्दी सिनेमा में सार्थक प्रयास शुरू किए तो मुझे भी फिल्मों के प्रति आकर्षण हुआ। फिर सिनेमा एक पूर्णतः तैयार माध्यम है तो उसे क्यों न इस्तेमाल किया जाय ? यह भी सवाल था। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात मैने एक वर्ष तक दिल्ली में ही दूरदर्शन और हिन्दी रंगमंच के लिए स्वतंत्र रूप से कार्य किया। वर्ष 1974 में मै पूना फिल्म संस्थान में चला आया और वहां से पुनः दो वर्ष का प्रशिक्षण अभिनय कला में प्राप्त किया। वर्ष 1976 में मै बम्बई आ गया।

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यहां आने के बाद मैने ‘ मजमा ’ नाम से अपना एक थियेटर ग्रुप तैयार किया और हिन्दी रंगमंच पर सक्रिय हो गया। इसी दौरान गिरीश कर्नाड, गोविन्द निहलानी सरीखे प्रयोगधर्मी फिल्म कलाकारों ने मुझे रंगमंच से पहचाना। धीरे-धीरे फिल्मी क्षेत्र में भी सम्पर्क बने और गिरीश कर्नाड के साथ मुझे पहली फिल्म ‘ गोधूलि ’ मिली किन्तु प्रदर्शित पहले हुई ‘ शायद ’। इसके बाद मैने लगभग एक दर्जन फिल्मों में रोल किए लेकिन मुख्यतः मै रंगमंच पर ही सक्रिय रहा और मेरे ग्रुप ने ‘ ध्वस्त धर्मशाला ’ और ‘ अंधों का हाथी ’ इत्यादि नाटक किए। मेरी पहचान भी नाटकों से ही बनी। फिर आयी ‘ आक्रोश ’। इस फिल्म ने मुझे सही मायनों में हिन्दी रजत पट पर स्थापित कर दिया।

चन्द्रभूषण: फिल्म की विधा चुनने के पीछे आपका क्या उद्देश्य था ?

ओम: सचेतन व्यक्ति जब किसी माध्यम को चुनता है तो निश्चित रूप से उसका कोई उद्देश्य होता है। दरअसल मेरी इच्छा है कि फिल्मों के माध्यम से सामाजिक विषमताओं को चित्रित किया जाय लेकिन मै यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मै किसी भी राजनीतिक विचारधारा से प्रतिबद्ध नहीं हूं। समाज में जो विषमताएं हैं, उन्हें आम आदमी मसलन-मजदूर, किसान सभी महसूस करते हैं लेकिन उनमें से कुछ ही लोग, कुछ सार्थक प्रयास करते हैं। या यों कहें कि कुछ ही लोग इस स्थिति में होते हैं कि वो कुछ कर पाएं। साधारण आदमी तो अपनी रोजमर्रा की जरूरियात पूरी करने में ही लगा रहता है।
मैने अभिनय कला का माध्यम उन विषमताओं को चित्रित करने के लिए चुना है जो हमारे सामाजिक ढांचे में है और इनके माध्यम से मै नीति-निर्धारकों को सचेत करना चाहता हूं कि वे आवश्यक परिवर्तन करें। साथ ही मै जनता को भी फिल्मों के माध्यम से शिक्षित करना चाहता हूं कि वो विषमताओं को , उनके कारणों को समझे। यदि समूह सचेतन हो तो शासक अपनी मनमानी नहीं कर सकता।

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मेरी इच्छा है कि फिल्में एवं रंगकर्म जनता को इस दिशा में भी शिक्षित करें कि सत्ता से कैसे लड़ा जाए ? मै नाटकों के साथ-साथ फिल्मों में भी इस कारण सक्रिय हुआ क्योंकि मैने देखा कि हिन्दी नाटकों की पहुंच दर्शकों के एक खास वर्ग तक ही है जबकि फिल्मों की पहुंच वृहत्तर क्षेत्र में थी। दूसरे मैने शौकिया रंगकर्म को नहीं चुना अतः जरूरी था कि बम्बई जैसे शहर में जिंदगी की जरूरतें भी इसी काम से पूरी हों। फिल्मों में आने का यह भी एक कारण था।

चन्द्रभूषण : आपने जिस प्रकार की फिल्मों में काम किया है उनमें से अधिकांश कला फिल्में या प्रयोगधर्मी फिल्में कही जा सकती हैं। लेकिन मैने आपकी ऐसी कोई फिल्म नहीं देखी जिसमें सत्ता से लड़ने का तरीका चित्रित किया गय हो।

ओम: देखिए ! आप चन्द्रशेखर से नहीं, ओमपुरी से बात कर रहे हैं। मुझे यह नहीं मालूम कि व्यापक स्तर पर सत्ता से कैसे लड़ा जाय ? लेकिन मै चाहता हूँ कि मै राजनीतिक दर्शन को भी समझूं। थोड़ा सा वक्त दें।
मेरा मानना है कि यदि व्यक्ति और समाज अपनी समस्याओं को समझ जाय तो आधी समस्या का समाधान हो गया। उसके बाद आदमी रास्ते तो तलाश लेता है। अतः जरूरी है कि रंगकर्मी, फिल्मकार जनता को उनकी अपनी समस्याओं से इस तरह रूबरू करें कि वह जनता के संवेदन-तंतुओं को स्पर्श करें।
वैसे यह सवाल हो सकता है कि ‘ डिस्को डांसर ’ , ‘ रास्ते प्यार के ’ वक्त वक्त की बात ’ और ‘ माटी मांगे खून ’ जैसी फिल्में मैं क्यों करता हूं। जबकि मै कथ्य के प्रति सचेत हूं तो मै आपसे कहूंगा कि हमारे वर्तमान सामाजिक ढांचे में घूस एक स्वीकार्य चीज है। जैसे हम जानते हैं कि 600 से 800 रूपए पाने वाला सिपाही बम्बई में कैसे जियेगा ? फिर भी हम उससे ईमानदारी की उम्मीद करते हैं लेकिन उसका घूस लेना जायज है, उसी तरह मै भी पैसे के लिए कामर्शियल फिल्में करता हूं लेकिन साथ ही मै इसे एक प्रकार की घूस ही समझता हूं। यह जायज इसलिए है कि बम्बई जैसे शहर में सम्मानजनक ढंग से रह सकें। इसके लिए पैसा हमें रंगमंच और आर्ट फिल्मों से नहीं मिल पाता।

चन्द्रभूषण: क्या आप यह मानते हैं कि आज के सामाजिक ढांचे में सही सोच से प्रतिबद्ध रह पाना सम्भव ही नहीं है ?

ओम: हां, लेकिन अपवाद हर जगह है। जैसे आज भी रंगाराचूरे और शंकर गुहा नियोगी जैसे लोग तमाम विसंगतियों में भी अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं।

चन्द्रभूषण : आपने अभी कहा कि कला फिल्मों में कार्य करना आपका उद्देश्य है तो क्या आप यह उम्मीद करते हैं कि थोड़ी सी कला, समानान्तर या प्रयोगधर्मी फिल्मों से कोई बड़ा परिवर्तन भारतीय समाज में हो सकता है ?

ओम: यदि हम सीधे सामाजिक सवालों से जुड़ कर फिल्में बनाएं तो लोग रूचि लेंगे ही। अब आप ही देखें , सार्थक फिल्मों का प्रसार और दर्शकों में उनके प्रति रूचि जिस प्रकार बढ़ रही है क्या वह उत्साहजनक नहीं है ? आज से चार-पांच वर्ष पूर्व तक ऐसी फिल्में प्रदर्शित भी नहीं हो पाती थीं जबकि आज कम से कम प्रदर्शित होने का संकट तो समाप्त हो चुका है। अब तो ऐसी फिल्में अच्छा बिजनेस भी कर रही हैं। ‘ आक्रोश ’ और ‘ अर्धसत्य ’ फिल्में इस बात का प्रमाण हैं।

चन्द्रभूषण: दर्शकों की रूचि में जो परिवर्तन आया है या फिल्मों के बदलते दौर के विषय में आप क्या सोचते हैं ?

ओम: पिछले पन्द्रह वर्षों से जबकि भारतीय सिने उद्योग बहुत विकसित हो चला था तब व्यायसायिक किस्म के लोगों ने यह लिखा कि फिल्म बहुत फायदे का धंधा है और यहां आसानी से दस के दो सौ बनाए जा सकते हैं। इस सोच के कारण बहुत सारे ऐसे लोग जिन्हें साहित्य-कला और संस्कृति से कुछ भी सरोकार नहीं था, इस उद्योग में आ गए और उन्होंने हिट फिल्मों को देखकर उनके हिट होने के कारणों को विश्लेषित करने का प्रयास किया और अपनी बुद्धि से ‘ हिट फिल्म ’ के लिए ‘ फार्मूला’ तैयार किया जो बाद में ‘ फार्मूला -फिल्में ‘ ही कहलायीं। परिणाम यह हुआ कि एक ही फार्मूले पर फिल्मों के ढेर लग गए। जल्द ही दर्शकों को ऐसे फिल्मों में रूचि का ‘ सेचुरेशन प्वाइन्ट ’ आ गया और अधिकांश फिल्में दर्शकों की उब का शिकार हो गईं। यह पहला कारण था।
दूसरा कारण बढ़ती महंगाई थी। महंगाई के कारण फिल्म दर्शकों की संख्या और उनके द्वारा फिल्में देखने की ‘ फ्रीक्वेंसी ’ भी कम हो गई। इससे फिल्म व्यवसाय पर असर पड़ा और दर्शक अब बदलाव चाहने लगा ताकि पैसे के सार्थक उपयोग का अहसास उसे हो। तीसरे इसी दौरान कम बजट की फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें थियेटर के गुणी कलाकार कम पैसे में कार्य करने लगे क्योंकि ये फिल्में सामाजिक परिवर्तन के चक्र को तेज भले ही न करती हों किन्तु स्वस्थ मनोरंजन अवश्य देती थीं तो दर्शकों ने विकल्प के रूप में इन्हें स्वीकारा और इनकी लोकप्रियता बढ़ी। फलतः फिल्मों के दौर में परिवर्तन आया।

चन्द्रभूषण: फिल्मी कैरियर में आपको क्या संघर्ष करना पड़ा ?

ओम: संघर्ष तो दैनिक मजदूरी पर काम करने वाला आदमी करता है। हम जैसे लोग नहीं। मै तो हमेशा खाट पर सोया हूं, रोटियां भी दोनों वक्त खायी है और भर पेट खायी है। सच पूछिए तो पत्रकारों ने ही फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों के ‘ संघर्ष ’ का बहुत ‘ प्रोपेगण्डा ’ किया है।