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बारकल्लाह ताले वाले नहीं रहे, जनाजे में उमड़ी भीड़

ताला बनाने वाले कारीगर ने लड़कियों की तालीम के लिए स्कूल खोला

मदरसा और निकाह घर बनवाया 

आखिरी ख्वाहिश जच्चा बच्चा अस्पताल स्थापित करने की थी

सैयद फरहान अहमद

गोरखपुर, 6 अगस्त। अस्करगंज के बारकल्लाह ताले वाले नहीं रहे। शनिवार को मोहल्ला अस्करगंज स्थित आवास पर दोपहर करीब ३.३० बजे के करीब इनका इंतेकाल हो गया। हर तरह का ताले, तिजोरी, गाड़ियों के ताले चंद मिनट में  ठीक कर देने वाले बारकल्लाह ने पूरी ज़िंदगी की कमाई सामाजिक कार्यों में लगा दी। उन्होने लड़कियों की तालीम के लिए स्कूल खोला और एक मदरसा व निकाह घर भी बनवाया। जच्चा- बच्चा अस्पताल बनाने की उनकी आखिरी ख्वाहिश पूरी नहीं हो सकी।

उनके  इंतेकाल की खबर जैसे ही शहर में पहुंची सभी गमगीन हो गए। ९० वर्षीय हाजी बारकल्लाह अपने पीछे दो लड़के व पांच लड़कियां छोड़ गए हैं। उनके जनाजे की नमाज हजारों लोगों ने मोहल्ला अस्करगंज सब्ज इमामबाड़ा के निकट अदा की. जनाजे को कंधा देने के लिए भरी भीड़ उमड़ पड़ी।  नार्मल स्थित हजरत मुबारक खां शहीद कब्रिस्तान में नम आंखों से लोगों ने उन्हें आखिरी विदाई दी। मरहूम हाजी बारकल्लाह साहब किसी तारूफ के मोहताज नहीं थे। वह काफी मशहूर थे । सिर्फ इसलिए नहीं कि हर तरह का ताला, तिजोरी, ब्रीफकेस का लॉक, गड़ियों के ताले चंद मिनट में ठीक कर देते हैं बल्कि इसलिए भी कि इस शख्स ने ज़िंदगी कि तमाम दुश्वारियों के बीच लड़के और लड़कियों कि शिक्षा के लिए दो शैक्षिक संस्थान स्थापित किया था । इसके अलावा वह छोटे काजीपुर में निकाह घर संचालित करते थे और अब जच्चा बच्चा अस्पताल स्थापित करने में जुटे थे ।

ताला -चाभी के उम्दा कारीगरी ने मशहूर किया 

शहर में ताला -चाभी का जब-जब जिक्र होगा। इनका नाम जरूर आयेगा। सर से पैर तक हरा लिबास पहनते थे यहीं इनकी पहचान थी। इनका कोई उस्ताद नहीं था सिर्फ देखकर ही हुनरमंद बन गये। खराब तालों को मिनटों में ठीक कर देते थे । ताला व चाभी के उम्दा करीगर थे । चाइनीज, अमेरिकन, जापानी, इंगलिश या भारतीय तालों पर इनकी करीगरी सिर चढ़ कर बोलती थी। दुनिया का ऐसा कोई ताला व उसकी चाभी नही थी जिसको इन्होंने न बनाया हो। इस उम्र में भी तीस से चालीस ताला बना लेते थे। इस काम से इनकी अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी। 65 सालों से रेती पुल पर इनकी छोटी से दुकान है। इनके हुनर की खासियत यह थी कि ताला देखकर उसकी खराबी बता देते थे और उसे ठीक कर देते थे। ताले की चाभी अगर गुम हो जाये तो ताला देखकर उसकी चाभी बना देते थे चुटकी बजाते ही।

अपने हुनर के मुताल्लिक बताते थे कि कि इन्होंने छह कारोबार किया। सब फेल हो गया। कुछ सुझा नहीं। रेती पुल के पास सरदार जी की मशहूर व ताला की वाहिद दुकान थी। वहीं घंटों खड़े होकर देखते रहते। धीरे-धीरे कुछ समझ में आने लगा। मोहल्लें में ऐलान करवाया। जिसका भी ताला खराब हो। वह मुझे दे दे। फ्री में ठीक कर दूंगा। फिर क्या था। करीब 150-200 ताले इनके पास आ गये। कुछ बने कुछ बिगडे। धीरे-धीरे यह हुनरमंद ताला चाभी का नायाब कारीगर बन गया। एक वाक्या इन्होंने बताया कि पहले सरदार जी की ही दुकान थी। लोगों की खूब भीड़ होती थी। एक दिन ग्राहक से सरदार की तू-तू मैं-मैं हो गयी। इसे देखकर हाजी बारकल्लाह को बहुत तकलीफ हुई। इन्होंने दुकान खोलने की निश्चय कर लिया। फिर क्या था रेतीपुल के पास दुकान खोली। जो आज भी कायम है। उनके 55 वर्षीय पुत्र इंशाल्लाह भी इस हुनर के बेहतरीन कारीगर है।

बारकल्लाह ताले वाले जहां ताला चाभी के माहिरीन है वहीं तिजोरी, ब्रीफकेस, गड़ियों के लॉक पर इनका हुनर बराबर बोलता था। एक खासियत और भी है जनाब की। वह यह कि यह बेहतर मैकेनिक भी थे। अंग्रेजो के ताले तो बनाये ही इन्होंने उनकी मोटरसाइकिलें भी बनायी। उस जमाने की टैरेम क्वीन, मेचलस, बीएसए जैसी मोटरसाइकिलों को ठीक किया।

जन सहयोग से बनाया निकाह घर, मदरसा और गर्ल्स स्कूल 
हाजी बारकल्लाह उम्दा कारीगर तो थे ही साथ ही उससे भी उम्दा था इनका दिल। इनकी समाज सेवा तो मिशाल था। गरीबों, मजलूमों , बेसहारा, बीमार की मदद करने का जज्बा तो इनकी रगों में बचपन से ही कूट-कूट कर भरा हुआ है। इन्होंने अपनी मेहनत व ईमानदारी की कमाई से समाज को नयी दिशा दी। इन्होंने 35 साल पहले मशरिकी वेलफेयर सोसाइटी की स्थापना की। उन्होंने एक अंग्रेज माइटी से घोसीपुरवा में जमीन खरीदी। उस पर मदरसा मजहरूल उलूम की नींव रखी जो दरख्त की शक्ल ले चुका है। जिससे तालीम याफता कई सौ हाफिज, आलिम दीन व दुनिया की खिदमत अंजाम दे रहे है। इस समय यहां 60 बच्चें हाफिज, आलिम आदि को कोर्स कर रहे है। वहीं प्राइमरी सेक्शन में 300 बच्चे अरबी, फारसी व उर्दू के साथ गणित, विज्ञान, अंग्रेजी की तालीम हासिल कर रहे है।

इसके कुछ समय बाद सरजू प्रसाद पाण्डेय से छोटे काजीपुर में जमीन खरीद कर निकाह घर की तामिर करायी। तामिर कराने के लिए 14 माह तक पूरे शहर से चंदा इकट्ठा किया। निकाह घर से होने वाली आमदनी का 25 प्रतिशत गरीबों पर खर्च करते थे। 25 प्रतिशत निकाह घर के रखरखाव पर और पचास प्रतिशत रकम जच्चा बच्चा अस्पताल के लिए सुरक्षित रख रहे थे जो इनका अहम ख्वाब था। इस निकाह घर की आमदनी से समाज के गरीब तबके की मदद की जाती है। नि: शुल्क चिकित्सा कैम्प, हज कैम्प लगाया जाता है। साथ ही रमजान में सौ परिवारों को रमजान का राशन, जाड़े में गरीबों को कम्बल व गर्म कपड़े वितरित किया जाता है।
इनका सफर यहीं खत्म नहीं होता है। फिर इन्होंने 22 साल पूर्व लड़कियों की तालीम के लिए इलाहीबाग में आमना गर्ल्स स्कूल खोला जिसमें करीब 900 लड़कियां तालीम हासिल कर रही हैं ।

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