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फिल्मों ने नफरत, हिंसा और उन्माद की राजनीति के खिलाफ दर्शकों को सचेत किया

गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का दूसरा और आखिरी दिन

गोरखपुर. 13वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के दूसरे दिन दिखाई गई फिल्मों ने नफरत, हिंसा और उन्माद की राजनीति के खिलाफ दर्शकों को सचेत किया. बच्चों के सत्र में एनिमेशन फ़िल्म  ‘फर्दीनांद’ ने हिंसा के खिलाफ अमन और मुहब्बत का सन्देश दिया तो गोरखपुर के वैभव शर्मा द्वारा निर्देशित अद्धा टिकट ने बाल मजदूरों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई. लघु कथा फ़िल्म ‘गुब्बारे ‘ में गुब्बारे बेचने वाली एक लड़की और एक वृद्ध की दिल को छू लेने वाली कहानी को देख दर्शक भावुक हो गए. फेस्टिवल में आज दिखाई गई चार दस्तावेजी फिल्मों ने किसानों की जमीन की कार्पोरेट लूट, पंजाब के दलित मजदूर कृषि मजदूरों की व्यथा, ‘माब लिंचिंग ‘ की घटनाओं और परमाणु उर्जा परियोजनाओं की निर्थकता व उसके खतरों से दर्शकों को परिचित कराया.

फिल्म फेस्टिवल के दुसरे दिन की शुरुआत कार्लोस सलदान्हा निर्देशित एनिमेशन फिल्म ‘फर्दीनांद’ से हुई. यह एक प्यारा-से बैल की कहानी है जिसे बुल फाइटिंग के बजाय फूल-पत्तों से प्यार है। उसे लड़ाई पसंद नहीं है। अमन और मुहब्बत का संदेश देने वाली यह एनिमेशन फ़िल्म भावनात्मक रूप से काफी सशक्त है. फर्दीनांद के पिता बुल फाइटिंग के लिए चुने जाते हैं. उन्हें विदा करते हुए फर्दीनांद सवाल करता है कि क्या बिना लड़े कोई जीत नहीं सकता ? पिता के पास इसका जवाब नहीं है। फर्दीनांद को इंतजार है कि उसके पिता लौटकर आएंगे, पर वे नहीं आते. फिर एक दिन फर्दीनांद उस बाड़े से भाग जाता है, जहां बुल फाइटिंग के लिए बलिष्ठ बैल बनाए जाते हैं लेकिन एक दिन उसे पकड़कर फाइटिंग के मैदान में पहुंचा दिया जाता है, जहां उसका सामना क्रूर बुल फाइटर से होता है. फर्दीनांद अवसर मिलने के बावजूद बुल फाइटर को नहीं मारता। जब बुल फाइटर उसकी तरफ तलवार लेकर बढ़ता है, पर दर्शकों का समूह कहता है कि उसे मत मारो। लड़की भी उसे खोजते हुए वहां पहुंचती है और फिर वह अपने दोस्तों के साथ फूलों की घाटी वाले घर में पहुंच जाता है.

फ़िल्म ‘ अद्धा टिकट ‘ फुटपाथ के दर्द व फैक्टरियों में बाल मजदूर शोषण के विरुद्ध आवाज उठाती है. इस फिल्म में फुटपाथ पर जीवन बसर करने वाले प्रतिभावान बच्चों के साथ संसाधन विहीन ग्रामीण बच्चों ने अभिनय किया है। फिल्म  गोरखपुर परिक्षेत्र में आस -पास के गांव तथा शहर में शूट की गई है.

मथुरा के फ़िल्मकार मो.गनी द्वारा निर्देशित लघु कथा फ़िल्म ‘ गुब्बारे ‘ गुब्बारे बेचने वाली एक लड़की और एक वृद्ध की दिल को छू लेने वाले प्रसंग पर बनी है. पिता की दुर्घटना के कारण लड़की गुब्बारे बेचने को मजबूर है, पर उसके गुब्बारे कोई नहीं खरीदता. पार्क में बैठा एक वृद्ध उसकी मदद करने के लिए उसके सारे गुब्बारे खरीद कर अपने उन दोस्तों को याद करते हुए आसमान में उड़ा देता है, जो अब इस संसार में नहीं हैं. वृद्ध के चेहरे पर मौजूद एक विवशता और अकेलापन भी फिल्म को गहरे अर्थ प्रदान करते हैं.

गोरखपुर के युवा फ़िल्मकार विजय प्रकाश की ‘ फिल्म हू इज तापसी ’ कुशीनगर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तापसी कुशवाहा की जिन्दगी पर आधारित है जिन्होंने अपने प्रयास से अपने इलके को हराभरा बनाया था. यह फिल्म उनके जिंदगी के आखिरी दिनों में उनकी उपेक्षा को तो दिखाती ही है, व्यवस्था के प्रति उनके आक्रोश को भी दर्ज करती है.

ओड़िसा के फ़िल्मकार देबरंजन सारंगी की फ़िल्म ‘ दोज़ स्टार्स इन द स्काई ( जब वे आसमान में तारे बन गए ) किसानों की जमीन की कार्पोरेट लूट और हिंसा को सामने लाती है. यह आम विश्वास  है कि जब लोग मरते हैं तब वे आसमान में तारे बन जाते हैं. यह फ़िल्म इस प्रचलित आम विश्वास  को उन लोगों से जोड़ने की कोशिश है जो राज्य की हिंसा और बड़े घरानों द्वरा मार दिए गए. हिन्दुस्तान में आर्थिक सुधार के दौर के साथ –साथ बड़े घरानों का विकास और आम लोगों की हत्या एक सामान्य बात है. इस परिप्रेक्ष्य के मद्देनजर यह फ़िल्म 2013 और 2018 के बीच की घटनाओं का विश्लेषण है जिस दौरान राज्य लोगों की जमीं हड़पकर उसे वेदांता, आदित्य बिरला, पोस्को और टाटा जैसी कंपनियों को देने की कसरत में जुटा था.

पिछले साल चलती ट्रेन में 16 साल के लड़के जुनैद की भीड़ द्वारा हत्या से मर्माहत दिल्ली के स्वतंत्र पत्रकार अशफाक ने अपने पत्रकार दोस्तों फुरकान अंसारी, विष्णु सेजवाल और शाहीद अहमद के साथ मिलकर पूरे देश में ‘माब लिंचिंग ‘ की घटनाओं को दस्तावेजीकृत करने का निर्णय लिया था। ‘ लिंच नेशन’ इसी प्रक्रिया में बनाई गई एक ऐसी फिल्म है, जो उत्पीड़ित परिवारों की व्यथा और उनके सवालों के जरिए दर्शकों को बेचैन करती है और नफरत की उस राजनीति का प्रतिकार करने की भावना से भरती है, जो भीड़ को हिंसक भेड़िये में तब्दील कर रही है.

दस्तावेज़ी फिल्मकार और मॉस कम्युनिकेटर फातिमा निजारुद्दीन अपनी पी एच डी फ़िल्म ‘ परमाणु ऊर्जा – बहुत ठगनी हम जानी ‘  बहुत मजाकिया और चुटीले अंदाज में हिन्दुस्तान के परमाणू ऊर्जा प्रोजक्ट की असलियत को सामने लाती है. फ़िल्म में अपने तर्कों के विकास के लिए उन्होंने तमिलनाडु में कुन्द्कुलम में चल रहे परमाणु ऊर्जा विरोधी आन्दोलन और भारत सरकार के फ़िल्म प्रभाग की फिल्मों के फुटेज का इस्तेमाल किया है. इस फ़िल्म को आम जनों तक लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से प्रतिरोध का सिनेमा अभियान ने इसका हिंदी संस्करण तैयार करने में फिल्मकार को मदद की है.  फिल्म के प्रदर्शन के बाद निर्देशक फातिमा निज़ारुद्दीन से दर्शकों का संवाद हुआ.

पंजाब के फ़िल्मकार रणदीप मडडोके की फिल्म ‘लैंडलेस’ पंजाब के भूमिहीन दलित कृषि मजदूरों की व्यथा कथा और उनके संगठित होने की दास्तान को दर्ज करती है. फिल्म पंजाब के हरे भरे खेतों और उनके साथ साथ कृषि मजदूरों की बदहाली के समानान्तर दृश्य खड़े कर एक विडम्बना की सृष्टि करती है. फिल्म के प्रदर्शन के बाद फिल्म के संपादक साहेब सिंह इकबाल और कंसल्टिंग संपादक अमनिंदर सिंह ने फिल्म के बारे में जानकारी दी और दर्शकों के सवालों का जवाब दिया.

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