लोकरंगसाहित्य - संस्कृति

‘ अवैज्ञानिकता, अंधविश्वास और महानायकों को प्रश्नांकित करते रहना चाहिए ’

 

जोगिया (कुशीनगर)। लोकरंग-2019 के दूसरे दिन आज दोपहर में हुई संगोष्ठी में ‘ गिरमिटिया लोकसंस्कृति का पुरबिया सम्बन्ध ’ पर लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों ने विचार व्यक्त किए। वक्ताओं ने गिरमिटिया देशों में वहां के समाज, संस्कृति, साहित्य और उसका अपने देश के पूर्वी अंचल से सम्बन्ध पर विस्तार से चर्चा कि और कहा कि इन देशों में गए लोग पूर्वी अंचल के सबसे गरीब श्रमिक थे जिनमें अधिकतर दलित और पिछड़ी जाति के थे। इन लोगों को असहनीय यातना सहनी पड़ी। तमाम मुसीबतों के बीच अपना गीत-संगीत, किस्से-कहानियों को लिए ये गिरमिटिये जहां भी गए वहां की सस्कृति में रचे-बसे और अपनी संस्कृति को संजोया भी।

संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कथाकार जय प्रकाश कर्दम ने कहा कि गिरमिटिया संस्कृति को समझने के लिए जरूरी है कि यह जाना जाय कि आज की तारीख में वहां की संस्कृति क्या है और धार्मिक आस्थाएं क्या है ? मारीशस में अपने प्रवास के अनुभवों को साझा करते हुए उन्होंने कहा कि गिरमिटिया लोग रोटी के लिए समूहों में मारीशस, गयाना, त्रिनीडाड, फिजी आदि देशों में गए। आज बेहतर जीवन के लिए पलायन हो रहा है लेकिन यह सामूहिक नहीं है। यह नया और पुराना डायस्पोरा में अंतर है। उन्होंने कहा कि जाति एक कड़वी सच्चाई है। जाति को नकारना उसकी सचाई से मुंह मोड़ना है। मारीशस के बारे में कहा जाता है कि वहां जाति नहीं है तो फिर वहां आर्य महासभा, राजपूत महासभा, क्षत्रिय राजपूत महासभा आदि संगठन क्यों अस्तित्व में हैं। सचाई यह है कि वहां भी जातियों का समाज है, भले वह उपर से दिखता नहीं हो। मारीशस में जाति के बारे में लिखी गई किताब को प्रतिबंधित कर दिया गया। सिर्फ 92 गांवों वाले मारीशस में करीब दो हजार मंदिर है। वहां भाषा को लेकर काफी संवेदनशीलता है और लोग मानते हैं कि भाषा गई तो संस्कृति गई। यह हैरत करने वाला है कि वहां हिंदी बोलने वाले को ही हिन्दू माना जाता है। मराठी, तमिल भाषी लोगों को हिंदू नहीं माना जाता। मारीशस में समाज का यह वर्गीकरण उसके आजाद होने के बाद निर्मित हुआ है। श्री कर्दम ने कहा कि मारीशस में संस्कृति को संजोने का कार्य श्रमिक वर्ग ही कर रहा है।

इसके पहले विषय प्रवर्तन करते हुए लोक संस्कृति के मर्मज्ञ तैयब हुसैन ने लिखित वक्तव्य में गिरमिटयों के इतिहास, संघर्ष, साहित्य-संस्कृति की विस्तार से चर्चा की।

कथाकार मदन मोहन ने कहा कि गिरमिटयों को गरीबी, रोजी-रोजगार के लिए निर्वासन हुआ। उन्होंने अदम्य संघर्ष कर अपने बेहतर जीवन के लिए रहा बनाई। उन्होंने कहा कि बेहतर समाज का सपना धर्म, परम्परा में धंसे रहकर नहीं हो सकता। हमें यह जानने की जरूरत है कि गिरमिटिया संस्कृति का विकास किस तरह और किस प्रभाव में हो रहा है।

बीएचयू की प्रोफेसर अर्चना कुमार ने गिरमिटिया किन परिस्थितियों में गए उस इतिहास को ठीक से जानने की जरूरत है। यह जानने की जरूरत है कि जिन देशों में वे गए वहां उनकी स्थिति कैसी बनी। उन्होंने कि गिरमिटियों ने सामूहिकता का जीवन जिया। खेतों में काम करते वक्त जाति-धर्म के बंधन टूट गए। उन्होंने मारीशस में गीत-गवाई की चर्चा करते हुए कहा कि आज वहां गीत गवाई के स्कूल खुले हैं और उससे महिलाएं ही नहीं पुरूष व ट्रांस जेंडर भी जुड़े हैं। लोकाचार से जुड़े गीत घर के अंदर गाए जाते हैं लेकिन वैवाहिक कार्यक्रम के पहले पूरे दिन गीत-संगीत-नृत्य होता है जिसमें युवा भी भागीदारी करते हैं। युवा कहते हैं कि इसमें भागीदारी करना खुशी की बात है। उन्होंने कहा कि गीत -गवाई से विधवा व सिंगल वूमन भी जुड़ी हैं और इसको लेकर कोई प्रतिबंध या भेदभाव नहीं है। उन्हें  समाज की मुख्य धारा से अलग नहीं किया जाता। इससे जुड़ कर महिलाओं को सामूहिकता में रहने का अवसर मिलता है और वे आर्थिक रूप से भी सशक्त होती हैं।

‘ गांव के लोग ’ के सम्पादक रामजी यादव ने गिरमिटया संस्कृति में धार्मिक गीतों की प्रधानता को प्रोजेक्टेड बताते हुए कहा कि यह जानना जरूरी है कि उपभोक्ता और उत्पादक के बीच सम्बन्ध क्या है। यह अनायास नहीं हुआ होगा कि उनके संघर्ष की दास्तान गीत-संगीत से अनुपस्थित हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि श्रमिक से देश का मालिक बनने में कई तरह के समझौते हुए हुए जिसने प्रतिरोध की संस्कृति को बदल दिया।

वाराणसी से आए प्रो राजकुमार ने कहा कि 20वीं सदी के हिन्दी साहित्य में गिरमिटिया समस्या पर काफी कुछ लिखा गया है। आज गिरमिटया इतिहास को रिकवर करने की जरूरत है। आश्चर्यजनक है कि सब्लार्टन इतिहास में गिरमिटिया नदारद है। इतनी बड़ी संख्या में पलायन पूरे अंचल का दुख है जिसे पूरी तरह भुलाया नहीं गया है। गीतों को विदेशिया और विरहा से जोड़कर गिरमिटिया गीत गाने की परम्परा भी मिल रही है। यहां से गए लोगों को यहां के लोगों ने कैसे याद किया, इन गीतों से उसकी झलक मिलती है। उन्होंने यहां से गए सभी गिरमिटया अशिक्षित थे, यह कहना ठीक नहीं होगा। यह एक जटिल कहानी है। धर्म, ईश्वर का अर्थ उनके लिए जो था, वह हमारे लिए भिन्न हो सकता है। यह सन्दर्भ से निर्धारित होता है।

लेखक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता विद्याभूषण रावत ने कहा कि यहां से जो लोग दूसरे देशों में गए वे अपनी जाति लेकर गए। इंग्लैण्ड में 55 फीसदी भारतीय रविदासी हैं। युगांडा में अलग-अलग जातियों के तीन गुरू़द्धारे हैं। श्रीलंका के चाय बागनों में गए तमिल श्रमिकों में जाति आज भी महत्वपूर्ण बनी हुई है। साम्राज्यवादी देशों ने अलग-अलग देशों में श्रम शक्ति का शोषण करने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए। भारत में उन्होंने जाति व्यवस्था का इसके लिए फायादा उठाया और यहां से दलितों, पिछड़ों को विभिन्न देशों में ले गए। उन्होंने डायस्पोरा में दासता और साम्राज्यवादी शक्तियों के कुचक्र पर अध्ययन पर बल दिया।

वरिष्ठ कवि प्रो दिनेश कुशवाहा ने कहा कि गिरमिटिया संस्कृति का हमसे संबंध एक दुखियारिन का संबंध है। स्मृतिजीवी समाज दयनीय हो जाता है और स्मृतिहीन समाज इतिहास विहीन हो जाता है। संस्कृति में अवैज्ञानिकता, अंधविश्वास और महानायकों को प्रश्नांकित करते रहना चाहिए। संस्कृति में मिथकीय चेतना को हाटाए बिना जनसंस्कृति का संवर्धन नहीं हो सकता।

नीदरलैंड से आए गायक राजमोहन ने गिरमिटियों के निर्वासन के लिए सामंतवाद और ब्राह्मणवाद को जिम्मेदार ठहराया और कहा कि इन परिस्थितियों ने गरीब श्रमिकों को सात समुन्दर पार जाने को विवश किया।

संगोष्ठी में वरिष्ठ कवि बीआर विप्लवी, पत्रकार मनोज कुमार सिंह, कवि मनोज भावुक ने भी अपने विचार व्यक्त किया। संचालन संतोष पटेल ने किया।

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