सदानंद शाही
आज से सौ वर्ष पहले प्रेमचंद ने एक उपन्यास लिखा – सेवासदन. सेवासदन की याद आज केवल इसलिए नहीं आ रही है कि इसके सौ वर्ष पूरे हो गए हैं . बल्कि इसलिए कि प्रेमचंद ने इस उपन्यास में एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है-‘ ईश्वर वह दिन कब लावेगा कि हमारी जाति में स्त्रियॉं का आदर होगा ’. इस सवाल का जवाब इन सौ वर्षों में भी हम नहीं खोज पाये हैं. सारी शिक्षा दीक्षा ,स्त्री – विमर्श,स्त्री सशक्तिकरण के बावजूद यह सवाल अपनी जगह जस का तस बना हुआ है .
सामाजिक जीवन में स्त्री को हर रोज हर कदम अग्नि परीक्षा से गुजरना होता है. स्त्री को कोई उपलब्धि मिल गयी तो उसके पीछे किन्हीं हाथों की कल्पना कर ली जाती है,विफल हो गयी तो उसे ‘यह तो होना ही था’ जैसे जुमले झेलने होते है . यह करो यह न करो ,यह पहनों यह न पहनों,ऐसे उठो , ऐसे बैठो ,हंसो ऐसे ,बोलो ऐसे जैसी स्त्री सुबोधिनी का पाठ निरंतर चलता रहता है . खुदा न खास्ते अगर कोई घटना घट गयी तो सारी ज़िम्मेदारी उसी की . लक्ष्मण रेखा लांघने का दंड तो मिलना ही चाहिए था, मिला ।
कुछ साल पहले जब निर्भया कांड हुआ था एक ओर देश में उबाल आया था ,अपराधियों को दंडित करने की बात हो रही थी ,सख्त कानून बनाने की बात हो रही थी ,उसी बीच पीड़ित लड़की के लिए तरह-तरह की बातें की जा रही थीं, और प्रकारांतर से उसे ही दोषी बताया जा रहा था . एक तरफ सख्त कानून बनें , दूसरी ओर स्त्रियॉं को खास तरह की पाबंदियों में रहना चाहिए , का उपदेश चलता रहा . नतीजा यह हुआ कि स्त्री के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के प्रकरण रोज नए रूप में सामने आते रहे हैं, जघन्य से जघन्य घटनाएँ घटती रहीं , हर बार वह अग्नि परीक्षा देती रही और , अपनी निर्दोषिता प्रमाणित करने की कोशिश करती रही.
हमारी सामूहिक चित्ति में स्त्री उपभोग की वस्तु बनी रही. यह ऐसी सोच है जिसके रहते किसी जाति या समाज में स्त्री के लिए आदर का सहज भाव नहीं हो सकता. और जिस जाति या समाज में स्त्री के प्रति आदर का भाव नहीं होगा बलात्कार जैसी घटनाएँ घटती रहेंगी ,चाहे जितने सख्त कानून बन जाएँ. कानून कुछ भी कहे ,अपराधी पुरुष का सम्मान कम नहीं होता ,स्त्री ही दोषी ठहरायी जाती है. प्रेमचंद ने सेवासदन में स्त्री को आदर देने का प्रश्न इसीलिए उठाया है. जब तक समाज का सामान्य बोध नहीं बदलेगा , तब तक स्त्री को आदर नहीं मिल सकता.
प्रेमचंद अपनी कहानियों के माध्यम से इस सामान्य बोध को बदलने की कोशिश करते रहे हैं. सेवासदन में प्रेमचंद ने यह सवाल ज्यादा व्यवस्थित तरीके से उठाया है. वैसे तो सेवासदन सुमन नाम की एक लड़की की कहानी है जिसे परिस्थितिवश वेश्या का जीवन अपनाना पड़ता है. वेश्या जीवन में मिलने वाले झूठे सम्मान और ऐश्वर्य में सुमन का मन नहीं रमता और वह सामान्य जीवन में वापस लौट आती है .
प्रेमचंद यह सवाल भी उठाते हैं कि क्या ऐसी स्त्री की सामान्य जीवन में वापसी संभव है ? हमारा मिथक , हमारा इतिहास यही बताता है कि जिस भी किसी स्त्री ने लक्ष्मण रेखा पार करने की हिमाकत की,उसे चाहे जितनी अग्निपरीक्षाओं से गुजरना पड़ा हो, उसकी घर वापसी संभव नहीं हो सकी है। जीवन भर की अग्नि परीक्षाओं से गुजरने के बाद भी स्त्री को उसका खोया हुआ सम्मान वापस नहीं मिलता. हर आँख उसे संदेह की दृष्टि से देखती है,हर मन में उसके लिए अविश्वास और असम्मान का भाव भरा होता है .
पति गजाधर पांडे के मन में सुमन के साथ किए अन्याय और दुर्व्यवहार को लेकर चाहे कितनी ग्लानि या पश्चाताप हो लेकिन वह घर नहीं बसाता. वह सुमन के लिए सेवासदन ही बनाता है. सुमन पूरी तरह से निर्दोष है, इस बात को गजाधर से बेहतर कौन जानता रहा होगा ,लेकिन वह भी समाज के सामान्य बोध का अतिक्रमण नहीं कर पाता.
प्रेमचंद ने इस सामान्य बोध को तोड़ने की पुरजोर कोशिश की है. सुमन का वेश्या बनने का निर्णय ही रूढ़िग्रस्त समाज को झटका देने का एक तरीका है और जब वेश्या बनी सुमन विट्ठलदस से कहती है –‘इस मंडी में मैं ही एक ब्राह्मणी नहीं हूँ ,दो चार नाम तो मैं अभी ले सकती हूँ,जो बहुत ऊंचे कुल की हैं,लेकिन जब विरादरी में अपना निबाह किसी तरह न देखा तो विवश होकर यहाँ चली आयीं. जब हिन्दू जाति को खुद ही लाज नहीं है तब फिर हम जैसी अबलायेँ उसकी रक्षा कहाँ तक कर सकती हैं’ । इस संदर्भ में सुमन ने और भी सख्त वाक्य कहे हैं।
मुझे लगता है कि यह प्रेमचंद की स्त्री के बारे में हमारे सामान्य बोध को झटका देने की युक्ति है। आखिर प्रेमचंद को इतने सख्त वचन बोलने की जरूरत क्यों पड़ी ? शायद इसलिए कि वे देख रहे थे सभी सामाजिक संस्थाएं ,मिथक ,इतिहास ,पोथिया स्त्री को लंक्षित करने में लगीं है और प्रकारांतर से स्त्री के बारे में इस सामान्य बोध को बनाने और बनाए रखने में जुटी हुई हैं। और सब को छोड़ भी दें तो मध्यकाल का महान क्रांतिदर्शी कवि कबीर और उनकी संत परंपरा भी यहाँ हमारी मदद नहीं करती क्योंकि वह भी स्त्री के बारे में गढ़े गए इस सामान्यबोध कि वह उपभोग की वस्तु है और उसे अधीन रहना चाहिए, का अतिक्रमण नहीं कर पाती । शताब्दियों से जबदे हुए (कु) संस्कारों की चुनौती सामने थी शायद इसीलिए प्रेमचंद को इतनी सख्त भाषा का इस्तेमाल करना पड़ा ।
असल में प्रेमचंद स्त्री मुक्ति के सवाल को हवा में नहीं उठा रहे थे ; बल्कि वृहत्तर सामाजिक संरचना में मौजूद शृंखला की उन कड़ियों की पड़ताल कर रहे थे . आगे चल कर महादेवी वर्मा ने जिन्हें रेखांकित किया था. महादेवी ने वेश्यावृत्ति के लिए ‘ जीवन का व्यवसाय ’का प्रयोग किया है । जिसे समाज वेश्या कहता है ,महादेवी उसे वेश्या नहीं मानतीं। इसके लिए वे संस्थानीकृत (कु)संस्कारों को जिम्मेदार मानती हैं और उनपर हमला करती हैं ।
सेवसादन में प्रेमचंद ऐसे ही संस्थानों पर सवाल उठाते हैं जो स्त्री को गुलाम बनाए रखने की आकांक्षा से लबरेज हैं. महादेवी वर्मा और प्रेमचंद इस बात पर सहमत दिखाई देते हैं की ‘जीवन का व्यापार’ सबसे बड़ा अभिशाप है. प्रेमचंद बताते हैं कि दालमंडी (वेश्याओं का मुहल्ला) वहीं आबाद हो सकती है जहां मनुष्यता अपने निचले स्तर पर आ गिरी है- ‘ यह हमारी ही कुवासनाएं, हमारे ही सामाजिक अत्याचार , हमारी ही कुप्रथाएँ हैं, जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया . यह दालमंडी हमारे ही जीवन का कलुषित प्रतिबिंब, हमारे ही पैशाचिक अधर्म का साक्षात स्वरूप है ’।
खास बात यह है कि इस पैशाचिक अधर्म और संस्थानीकृत (कु) संस्कारों को ध्वस्त करने के लिए दोनों ही लेखक संवाद पर भरोसा करते हैं। दोनों ही लेखक संवाद के माध्यम से ऐसे पुरुषों की खोज करते हैं जो कुसंस्कारों से घृणा कर सकें और मनुष्यता की गरिमा वापस ला सकें और ऐसा समाज विकसित कर सकें जहां स्त्रियॉं के लिए आदर हो,उन्हें किसी दालमंडी या फिर किसी सेवासदन में शरण न लेनी पड़े . इसीलिए प्रेमचंद सेवासदन में भौतिक गुलामी की अपेक्षा मानसिक गुलामी को दूर करने का वितान रचते हैं.
[author ]( लेखक सदानंद शाही बीएचयू में हिदी के प्रोफ़ेसर हैं. उनका यह लेख 31 जुलाई को ‘ हिंदुस्तान’ में प्रकाशित हुआ है जसे हम साभार अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं ) [/author]