साहित्य - संस्कृति

बहिष्करण की राजनीति हमारे परिवेश का बड़ा संकट: रणेन्द्र

हिन्दी उपन्यास में प्रतिरोध का स्वर मंद हो गया है: वीरेन्द्र यादव
कथाकार रणेन्द्र को मिला प्रथम विमला देवी स्मृति सम्मान
रणेन्द्र ने सम्मान धनराशि मउ के राहुल सांकृत्यायन पीठ को दिया

गोेरखपुर। दीदउ गोरखपुर विश्वविद्यालय के संवाद भवन में हिन्दी विभाग के सहयोग से कुशीनारा उच्च अध्ययन संस्थान द्वारा आज दोपहर आयोजित एक कार्यक्रम में चर्चित कथाकार रणेन्द्र को प्रथम विमला देवी स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया। सम्मान में स्मृति चिन्ह, सम्मान पत्र और 11 हजार रूपए की नगद धनराशि दी गई। कथाकार रणेन्द्र ने सम्मान रााशि मऊ में साहित्यकार जय प्रकाश धूमकेतू द्वारा स्थापति राहुल सांकृत्यायन सृजन पीठ के सहायतार्थ भेंट कर दिया।
इस अवसर पर ‘ हिन्दी कथा साहित्य और परिवेश ’ विषयक संगोष्ठी में वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव, बीएचयू के प्रोफेसर अवधेश प्रधान, प्रो सदानंद शाही व कथाकार रणेन्द्र ने अपनी बात रखी।
कथाकार रणेन्द्र ने कहा कि संरचनात्मक हिंसा से आज पूरा परिवेश संकटग्रस्त है। क्रोंच के वध से द्रवित होकर महाकाव्य रचा गया लेकिन आज लोग सड़कों पर मारे जा रहे हैं लेकिन वैसी रचना नहीं आ पा रही है। हमें विचार करना होगा कि आखिर हमारी लेखनी को क्या हो गया है ? क्या हमारी लेखनी डर गई है, पलायन कर रही है, पथरा गई है ? आखिर हम कहां भटक रहे हैं ?
‘ गायब होता देश ’ और ‘ ग्लोबल गांव का देवता ’ जैसा चर्चित उपन्यास रचने वाले रणेन्द्र ने कहा कि बहिष्करण की राजनीति हमारे परिवेश का बड़ा संकट है। यह पूरी हिन्दुस्तानियत का संकट है। योगेन्द्र आहूजा की कहानी ‘ मर्सिया ’, अनिल यादव की कहानी ‘ गोसेवक ’ व ‘ दंगा भेजियो मौला ’ की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इन रचनाओं में हम हिन्दू समय की आहट देख सकते हैं। इन कहानियों में हम अपने समय में हिन्दी साहित्य को हिन्दू साहित्य और भारतीय शास्त्रीय संगीत को हिन्दू संगीत में बदलते देख रहे हैं। आज गोपाल गिरी और अमीर खुसरो के मिलन को हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के टकराव के बतौर पेश किया जा रहा है जबकि भारतीय शास़्त्रीय संगीत की अवधारणा उनके मिलन से शुरू होती है।
सुप्रसिद्ध आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि रणेन्द्र का सम्मान हिन्दी कथा साहित्य की उस धारा का सम्मान है जो हाशिए के समाज का लेखन कर रही है। यह आसान काम नहीं बल्कि बेहद जोखिम भरा है। अंग्रेजी में लिखने वाले सााहित्यकार हंसदा सौवीन्द्र के कहानी संग्रह को प्रतिबंधित किया गया और उनको उत्पीड़ित किया गया। पेरूमल मुरूगन की रचना पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रदर्शन आयोजित किया गया। उपन्यास सिर्फ एक विधा नहीं है। यह जीवन और समाज की आलोचना है। प्रेमचन्द की परम्परा वर्ण व वर्ग से मुक्त होकर लेखन की परम्परा है। प्रेमचंद स्वाधीनता आंदोलन की शक्ति व चेतना को तो अभिव्यक्ति कर ही रहे थे, उसकी सीमाओं को भी व्यक्त कर रहे थे।
उन्होंने अस्मिताओं के संघर्ष को भारतीय जनतंत्र और जनतांत्रिक आकांक्षाओं के विस्तार के रूप में देखे जाने पर जोर देते हुए कहा कि उपन्यास समाज में सत्ता के समानान्तर प्रतिपक्ष की आवाज है। उपन्यास की यही शक्ति सत्ता के केन्द्रों को डराती है। उन्होंने दूधनाथ सिंह के ‘आखिरी कलाम ’, भगवान दास मोरवाल के ‘ काला पहाड़ ’, मदन मोहन के ‘ जहां एक जंगल था ’ के साथ-साथ अरून्धती राय, नयनतारा सहगल, गीता हरिहरन के चार उपन्यासों की चर्चा करते हुए कहा कि उपन्यास अपने परिवेश से तो संवाद करता ही हैं बिगड़ते परिवेश का भी प्रतिपक्ष रचता हैं। श्री यादव ने सवाल उठाया कि क्या कारण है कि 90 के पहले दलित विषय पर हिन्दी के मुख्य धारा के लेखकों द्वारा कई उपन्यास लिखे गए लेकिन उसके बाद के 30 वर्षों में एक भी मुकम्मल उपन्यास नहीं दिखता है जबकि यही दौर दलित विमर्श का उभार का दौर है। क्या मध्य वर्ग का एक बड़ा लेखन मध्यवर्गीय लेखन करने लगा है ? तब यह सवाल उठाता है कि क्या मध्य वर्ग के लेखकों का बड़ा हिस्सा अपने वर्ण, वर्ग में वापस चला गया है ? यदि ऐसा है तो आदिवासी, दलित, दूसरे संघर्ष छूटेगा। भारतीय समाज की नई समस्याओं, नए नायकों पर कैसे लिखा जाएगा।
उन्होंने कहा कि हिन्दी उपन्यास के सामने यह चुनौती दरपेश है कि तमिल, मलायलम, तेलगू में जिस तरह प्रतिरोध का लेखन हो रहा है वह हिन्दी में कैसे मंद हो गया है। तमिल, मलायलम, तेलगू में जोखिम के इलाके में लेखन हो रहा है। इसलिए उस इलाके के लेखक जोखिम से दोचार हो रहे हैं। समूचे देश, वैचारिकी, चिंतन को निर्धारित करने वाला हिंदी क्षेत्र यदि धधकते सवालों से बचेगा तो वह एक साहित्यकार, लेखक के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर सकेगा। इसलिए जरूरी है कि हिन्दी लेखक तत्कालिकता में न जाकर अपनी पूर्व परम्परा से जुड़े।
बीएचयू के प्रोफेसर अवधेश प्रधान ने कहा कि भारतीय उपन्यास के केन्द्र में किसान और स्त्री हमेशा रहे हैं। आजादी के पहले शुरू-शुरू के उपन्यास स्त्री पर लिखे गए। नामवर सिंह ने कहा था कि गोदान इसलिए सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है क्योंकि होरी की मौत के बाद उसकी कथा खत्म नहीं होती बल्कि धनिया के संघर्ष से आगे बढ़ती है। ऐसा नहीं है कि कथा साहित्य पर परिवेश की लहरों का असर नहीं रहा है। दलितों, स्त्रियों पर बहुत कुछ लिखा गया। अस्सी के बाद पुरानी बड़ी हुए चिंताएं उपन्यासों, कहानियों में दूसरे सवालों के साथ आने लगती हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद साम्प्रदायिकता के सवाल प्रमुख हुए। ये सवाल पहले विस्तार के साथ आए और फिर कथाकार गहराई में जाने लगे। आदिवासी समाज पर केन्द्रित उपन्यासों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि हमारे अधिकतर उपन्यासकार ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना में इतिहास के अनुशासन में नहीं बंधे। उन्होंने इतिहास भी लिखा और वर्तमान औद्योगिकीकरण के भीतर उसकी दुर्दशा को भी उजार किया। उन्होंने कहा कि उपन्यासकार का काम पाठकों का बहलाव करना, सुलाना नहीं है बल्कि उसेे झटका देना है।

प्रो सदानंद शाही ने कहा कि हिन्दुस्तान की पीड़ा को एक नारे के भीतर समाहित नहीं किया जा सकता। हमारा देश बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय परम्पराओं का देश है। बहुत सारी पीड़ाओं का देश हैं। रणेन्द्र के उपन्यासों में आदिवासी पीड़ा की अभिव्यक्ति है।  आदिवासी समाज का आधुनिक समाज से टकराव और उससे उत्पन्न पीड़ा की अभिव्यक्ति उपन्यास की एक धारा को सम्बोधित करती है। राकेश सिंह, महुआ माजी, हरिराम मीणा इसी धारा में आते हैं। रणेन्द्र भारत के आंचल के ऐसे तंतुओं की पहचान करते हैं जो बड़े नारों, ग्लोबल आकांक्षाओं के बीच अनसुनी रहती है। हमें इन सिसकती आवाजों को सुनना होगा।
इसके पहले कार्यक्रम में आए हुए साहित्यकारों और श्रोताओं का स्वागत करते हुए हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो अनिल कुमार राय ने आयोजन को जनता का आयोजन बताते हुए कहा कि ऐसे समय में जब सम्मान संदिग्ध व अविश्वसनीय होते जा रहे हैं यह आयोजन उसका जवाब है। कथाकार रणेन्द्र जन सत्ता के समर्थन में मोर्चा संभालने वाले रचनाकार हैं। उन्होंने अपने उपन्यासों में अपनी दृष्टि, वैचारिक परिप्रेक्ष्य से हिन्दी समाज, समीक्षकों में जो विश्वसनीयता अर्जित की है, वह दुर्लभ है।

कार्यक्रम का संचालन कुशीनारा उच्च अध्ययन संस्थान के सचिव डा. आनन्द पांडेय ने किया। धन्यवाद ज्ञापन संस्थान के अध्यक्ष प्रो राजेश मल्ल ने किया। इस मौके पर हिन्दी विभाग के सभी शिक्षक, छात्र-छात्राएं, साहित्यकार, लेखक, संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

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