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शायरी और नगमों के साथ एक शाम अपने अजीज शहर में डा. हरिओम

जीएनएल रिपोर्टर, गोरखपुर

दो वर्ष तक गोरखपुर के डीएम रहे डा हरिओम को एक दशक बाद न तो शहर भुला पाया है न वह खुद गोरखपुर को भूल पाए हैं। यही कारण है कि शहर उन्हे जब-तब याद कर बुलाता है , सम्मान देता है तो वह भी गोरखपुर को अपनी शायरी और कविताओं में भरपूर जीते रहते हैं।
वर्तमान में संस्कृति विभाग के सचिव डा. हरिओम 19 नवम्बर को गोरखपुर में थे। बतौर डीएम फरवरी 2007 में यहां से जाने के बाद उनकी यह दूसरी यात्रा थी। वर्ष 2009 में युवा चेतना समिति ने उन्हें फिराक सम्मान से नवाजने के लिए बुलाया था। इस बार सैयद मजहर अली शाह मेमोरियल अखिल भारतीय मुशायरा एवं कवि सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में शहर ने उन्हें आमंत्रित किया था। प्रशासनिक अफसर के साथ-साथ कवि, शायर, कहानीकार, गायक के बतौर खासी शोहरत बटोर चुके डा हरिओम भला मुशायरे के चीफ गेस्ट हों और लोग उनसे सुनने की फरमाइश न करें , यह हो ही नहीं सकता था। यूं तो मुशायरे में देश के बड़े-बड़े शायर थे लेकिन डा. हरिओम ने अपनी नज्मो, गजलों से महफिल लूट ली।

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उन्होंने जब गोरखपुर पर लिखी अपनी रचना –
जिसे चाहत की दुनिया का नया दस्तूर कहते हैं
जिसे इल्म-ओ-अदब के हुस्न से भरपूर कहते हैं
जिसे सब जौहरी पूरब का कोहेनूर कहते हैं
सुना है उस शहर को लोग गोरखपुर कहते हैं
सुनाई तो हजारों की भीड़ ने खूब तालिया बजायीं। इसके बाद श्रोताओं की फरमाइश पर उन्होंने कई शेर पढ़े-
मेरी तलाश है तारीख के सरमाये की।
वो चंद लोग जो मुंह में जुबान रखते हैं।।
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वो चंद लोग जो खामोश रह गये अक्सर
उन्हीं के दम पे ये तारीख मुस्कुरायेगी
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तमाम दैरो हरम आ गये सियासत में
हमारा फर्ज है अल्लाह को आगाह करें।
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शुमार एक ही सफ में यहां तो हैं सारे
तुम्हीं बताओ किसे चोर किसे शाह करें।
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आंख सूरज से मिलाकर देखिए ।
लौ सितारों से लगा कर देखिए ।।
चंद कतरें आंसुओं के डालिए।
फिर चरागों की हिमाकत देखिए।।
ये तमाशों का शहर हैं आप भी।
हर तरफ नाटक ही नाटक देखिए।। 
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आंखों में समाए हुए मंजर की तरह हूं।
मैं बूंद हूं आंसू की समंदर की तरह हूं।
फितरत ये मेरी खुद मेरे काबू में कहां हैं।
शीशे की तरह हूं कभी पत्थर की तरह हूं।।
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तू मुझमें उमड़ता हुआ इक रंग का दरिया।
मैं तुझसे सराबोर मुसविर की तरह हूं।
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बेचैनियां तलाशता फिरता हूं दर बदर।
चैनों अमन के शोर में शायर की तरह हूं।
मुझको संभालना कि जमाना खराब हूं।
दौरे फरेब -ओ-मक्र में जेवर की तरह हूं।
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कोई मुझे बतायें कहां जा रहा हूं मैं।
क्यो बैठे बिठायें फरेब खा रहा हूं मैं।
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ये कैसी पुरखुलूस निगाहों की चमक हैं।
बेअख्तियार खुद से खींचा जा रहा हूं मैं।
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उन्होंने तरन्नुम में गजल भी पढ़ी-

तू दिल अजीज भी हैं और है हरजाई भी
वफा भी तुझमें हैं थोड़ी सी बेवफाई भी

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इसके पहले उन्होंने गीत-संगीत की दुनिया में रमने वालों के आग्रह पर दुर्गा बाड़ी रोड स्थित सिटी पैलेस में अपने एलबम के कई गीत गाए। यह आयोजन इंडिया फ़र्स्ट, टीच ओर रसरंग संगीत संकुल द्वारा आयोजित किया गया था।
इस कार्यक्रम में डा हरिओम ने अपनी खूब चर्चित हुई गजल सुनाई

उड़ूंगा रोशनी के पंख लेकर

नई दुनिया का हरकारा हुआ हूं

मै तेरे प्यार का मारा हुआ हूं

सिंकदर हूं मगर हारा हुआ हूं 

इसके बाद ‘ उन्होंने जरा करीब तो आओ कि जिंदगी कम है ’ और ‘ माय री का से कहूं पीर अपने जिया की ’ सुनाई। उन्होंने यह सुरमयी शाम अहमद हसन की गजल ‘ ऐ सनम तुझसे मै जब दूर चला जाउंगा / याद रखना कि तुझे याद बहुत आउंगा ‘ गाकर यादगार बना दी। इसके पहले डा. शरद मणि त्रिपाठी ने डा हरिओम की एक गजल सुनाकर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। इस मौके पर गोरखपुर की डीएम संध्या तिवारी भी मौजूद थीं।

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इस मौके पर उन्होंने कहा कि गोरखपुर से उनका मोहब्बत का रिश्ता है। यह उनका अजीज शहर है। उन्होंने कहा कि उनके फेसबुक से जुड़े दस हजार दोस्तों में सात हजार गोरखपुर के ही हैं।
डा हरिओम वर्ष 2005 से 2007 तक गोरखपुर के जिलाधिकारी रहे थे। साहित्यिक, सांस्कृतिक अभिरूचि के कारण एक ओर वह यहां के साहित्य, संगीत, थियेटर की दुनिया के लोगों के अभिन्न तो बने ही मिलनसार स्वभाव के कारण साधारण लोगों में भी बहुत लोकप्रिय हुए। वर्ष 2007 के जनवरी माह में गोरखपुर में हुई साम्प्रदायिक हिंसा की घटना के बाद गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ की गिरफतारी के कारण वह पूरे देश में चर्चा में आ गए थे।
कुछ समय पहले गोरखपुर पर लिखी गई उनकी लम्बी कविता ‘ ये जो शहर है गोरखपुर ’ भी काफी पसंद की गई।

ये जो शहर है गोरखपुर
1)

ये जो शहर था बिस्मिल का
यह वह शहर तो नहीं
जिसके सिरहाने बजा था कोई बिगुल
और चौंक कर उठा था इतिहास
यह वो ज़मीं तो नहीं
जिसकी मिट्टी अपनी सूखी त्वचा पर मल
कभी खेत-मजदूरों ने ठोकी थी ताल
और आकाश की छाती से उतर
भागे थे फ़िरंग
ये धुआंती हवा
नहीं देती पता उस अमोघ वन का
जिसने किसी राजा की आँखों में
छोड़ा था आज़ादी का हरा स्वप्न
और जिसने बसाई थी
जुगनुओं की एक राजधानी सुन्दर
इस शहर के सीवान में
अब कैसे ढूँढें वह वृक्ष
जिसके नीचे सदियों बैठे रहे गोरख
और रचते रहे
अज्ञान और पाखंड के नाश का अघोर पंथ
अब नहीं दिखती चिटखी मीनारों वाली ईदगाह में
वो नन्हीं चहक
जहां साहित्य के किसी मुंशी ने
हामिद के हाथों में सौंपा था
दादी का चिमटा
अब जबकि
किसी शहर से छीन ली गई हो उसकी विरासत
परम्परा के पहिये को मोड़
उलट दी गई हो उसकी गति
कैसे मिल सकेंगे फिर हमें
राहत, देवेन्द्र नाथ
धरीक्षण, मोती और फ़िराक
नदियों की गोद में खेलता एक शहर
जिसके माथे पर मचलती रहे
उमगते चाँद की ठंडक
और जो तब भी बूढ़ा होने से पहले हो जाए बंजर
एक शहर, लोग कहते हैं-
जिसका अक्स कभी
झील में झमकते परीलोक-सा लगता था

2)
एक शहर जिसके सुर्ख चेहरे पर
चढ़ा हो पीला लेप
जिसके जिस्म से गुज़रते हों
उन्माद के ज्वार अक्सर
जहां आदिम मुद्दों पर चलती हों बहसें
दिन-रात
ठेकों-पट्टों और लाइसेंसों की बिसात पर
नाचती हो सियासत
एक शहर जहां
गाय-भैस, सूअर और कुत्ते से
कहीं ज्यादा आसानी से
मरता हो आदमी
एक शहर जहां पलते हों
विराट राष्ट्र के सैन्य स्वप्न
और ‘ टाउन से अनुपस्थित हो गाउन ’
ये वह शहर तो नहीं
जिसके बारे में
‘ उजली हंसी के छोर पर ’ बैठ
आधी सदी से सोच रहे हों परमानंद
या जहां कामरेड जीता कौर ने
रामगढ़ ताल के किनारे
माथे पर साफा बाँध
छोटी जोत वाले किसानों
और बुझी आखों वाली स्त्रियों के मन में
जगाया था संघर्ष और जीत का जज़्बा
पर यकीनन
ये वह शहर है
जहां से आरम्भ होगा
हमारी सदी का शास्त्रार्थ
जिसमें भाग लेंगे
नीमर, गजोधर, रुकमा और भरोस
और कछारों के वे किसान
जिनके खेतों में उगती रही है भूख
वे जुलाहे जिन्होंने चरखों की खराद पर
काटी हैं अपनी उंगलियाँ
वे मज़दूर जो ठन्डे पड़ गए
कारखानों की चिमनियों से लिपट
पुश्तों से कर रहे अपनी बारी का इंतज़ार
इस शास्त्रार्थ में
उतरेंगीं वे लड़कियां भी
जो दादी-नानी के ज़माने से
जवान होने कि ललक में
हो जाती हैं बूढ़ी
और पूछेंगी अपने जीवन का पहला प्रश्न
और खुद ही देंगी उसका जवाब
हमारी सदी के इस अद्भुत विमर्श को
सुनेंगे योग-भोग के पुरोधा
पण्डे और पुरोहित
मौलवी और उलेमा
हाकिम-हुक्काम
सेठ-साहूकार
मंत्री और ठेकेदार
इस शास्त्रार्थ में नहीं होंगे वे विषय
जिन्हें पाषाण काल से पढ़ाते आ रहे हैं
‘ परम-पूज्य ’ गुरुवर
और न ही होंगे वे मसाइल
जिनके समाधान में
मालामाल होते रहे हैं
मुन्सफ़ और वकील
हमारी सभ्यता के इस उत्तर-आधुनिक समय में
पूछे जायेंगे संस्कृत के आदिम प्रश्न
कि पंचों के राज में भूख से क्यों मरता है बिकाऊ ?
कि मछुआरों के खेल में कैसे सूख जाते हैं ताल ?
कि इतने भाषणों के बावजूद दरअसल क्यों मर जाती है भाषा ?
कि इस शहर में प्रेम करना आखिर क्यूँ है इतना मुश्किल ?
या फिर शायद सिर्फ यही
कि ये जो शहर है गोरखपुर
ये वह शहर क्यूँ नहीं ?

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