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अफगानिस्तान से गोरखपुर पहुंचने के लिए 100 साल का सफर किया बाकरखानी रोटी ने 

 गोरखपुर के खान पान में खास मुकाम बनाया 
सैयद फरहान अहमद
गोरखपुर, 1 जुलाई। रमजान की आमद से मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में फिजा नूरानी हो जाती है। सुबह शाम की रौनक देखते ही बनती है। इफ्तार, सहरी व लजीज व्यंजनों की खुशबू लोगों को अपनी ओर खींचती नजर आती है। नखास, मदीना मस्जिद, शाहमारूफ व जामा मस्जिद उर्दू बाजार की फिजां बेहद दिलकश नजर आती है। यहां की बनने वाली ब्रिरयानी, कोरमा, सीक कबाब, गोल कबाब, गलौटी कबाब सभी के पसंद है। इन लजीज व्यंजनो को चखने के लिए यहां विभिन्न प्रकार की रोटियां भी बेहद जायकेदार व मुगलिया है। तंदूर से गरमा गर्म निकलती हुई यह रोटियां बरबस ही आपको अपनी ओर खींचती है। जहां फुटकर में सैकड़ों के हिसाब से बाकरखानी, शीरमाल , नान, खमीरी रोटी, रूमाली रोटी, कुल्चा जैसी कई अन्य तरह की रोटियां मिल जाएंगी।
लेकिन एक ऐसी रोटी के बारे में लोग कम जानते हैं जिसने अफगानिस्तान, बांग्लादेश, जौनपुर, बनारस का लम्बा सफर तय कर गोरखपुर में दस्तक दी। मुगल बादशाहों और बाद में नवाबों के बावर्ची खाने की शान माने जाने वाली बाकरखानी रोटी अपने जायके व खुबसूरती के लिए गोरखपुर के खान पान में चार चांद लगा रही है।
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बाकरखानी की रमजान में मांग बढ़ जाती है। आर्डर तैयार करने में कारीगरों को 12 घंटों के बजाय 18 घंटे या उससे अधिक काम करना पड़ता है। क्योंकि रमजान के महीने में बिक्री का समय दिन में न होकर देर शाम से पूरी रात चलता है यानी शाम चार बजे से सुबह चार बजे तक।
नवाबों ने खानपान के बहुत से व्यंजन चलाये हैं। इनमें बहुत प्रकार की रोटियां भी होती हैं। ऐसी ही रोटियां यहां के बाजार में आज भी मिलती हैं।
विशेषज्ञ के अनुसार शाही खाने में गिनी जाने वाली बाकरखानी रोटी अमीरों के दस्तरखान की बहुत ही विशष्टि रोटी थी। इसमें मेवे और मलाई का मिश्रण होता है। ये नाश्ते में चाय का आनन्द बढ़ा देती है।
मुगलिया खान-पान विश्व प्रसिद्ध है। जो हिन्दुस्तान के खान पान में रच बस गयी। मुगल सल्तनत के पतन के बाद उनके खान-पान की रिवायत को आगे बढ़ाया लखनऊ व जौनपुर के नवाबों ने। जब इन नवाबों का पतन हुआ तो इनके बावर्ची खाने में काम करने वाले खानसामा ने दूसरी राह पकड़ी। जौनपुर के नवाब युसूफ के यहां काम करने वालें खानसामों ने पहले बनारस और फिर गोरखपुर की राह पकड़ी। इन्हीं के साथ चला आया, नवाबों का पसंदीदा व्यंजन शहर में इसी खास व्यंजन में जौनपुर के नवाब की पंसदीदा रोटी बाकरखानी भी है। जो शहर के खान-पान में रच बस गयी है। इस रोटी को अफगानिस्तार, बांग्लादेश होते हुए हिन्दुस्तान के जौनपुर, बनारस से गोरखपुर तक का सफर करने में करीब सौ साल लग गए।
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शमशाद अहमद
निजामियां होटल के शमशाद ने बताया कि इस रोटी का गोरखपुर आगमन करीब 90 साल पहले हुआ। पुरखें जौनपुर के नवाब के यहां खानसमा थे। जब नवाबों का पतन हुआ तो पुरखें बनारस चले गये। और अपने साथ लेते चले गए नवाब के बावर्ची खाने की प्रमुख व्यंजन। नवाब के बावर्ची खाने का स्वाद आज होटलों में जरूर देखा जा सकता है। पुरखों के साथ ही बाकरखानी जौनपुर से बनारस और फिर गोरखुपर आयी है।
उन्होंने बताया कि दादा मरहूम जहूर ने अस्करगंज में तंदूर लगाया और यहीं से अपने लड़के मरहूम हाजी मोहम्मद निजाम के साथ रोटी तैयार कर शाही मस्जिद उर्दू बाजार की सीढियों पर फरोख्त करते थे। कुछ समय बाद नखास चौक पर दुकान मिल गयी। तब से नवाबों के पंसदीदा व्यंजनों की रवायत यहीं से आगे बढ़ने लगी। उन्होंने बताया बाकरखानी उप्र में केवल जौनपुर, बनारस व गोरखपुर में ही बनती है। इनके विभिन्न प्रकार है। अमूमन जो बाजार में बाकरखानी नजर आती है। उसे जाफरानी बाकरखानी कहते है।
बाकरखानी की कीमत 10 रूपए से लेकर 110 रूपए तक है। बनारस में इसे बनारसी पराठा कहते है। इसके अलावा इसके प्रकार में शाहजहानी पराठा, मुगलिया रोटी, लच्छा पराठा, बनारसी पराठा, रोटी बाकर खानी, जाफारानी बाकरखानी आदि है। इसे हर व्यंजन के साथ खाया जाता है।
उन्होंने बताया कि बाकरखानी का एक प्रकार जो खासो आम में मशहूर है उसे शिरमाल कहते है। इसे लखनऊ में इजाद किया गया।
सात साल की उम्र से बाकरखानी बनाने वाले बनाने वाले धम्माल निवासी शफीउल्लाह उर्फ शब्बू ने बताया कि वह सात तरह की बाकरखानी बनाना जानते है। उन्होंने बताया कि बाकरखानी शाही, मनेरियम बाकरखानी, मिनी बाकरखानी, मेवे वाली बाकरखानी, रोगनी बाकरखानी, मैंगो पराठा व लच्छा पराठा बनाने में महारत रखते है। काफी सालों तक शाही मस्जिद उर्दू बाजार स्थित होटल हबीब में काम किया अब शादियों वगैरह में दूर-दराज बाकरखानी बनाने जाते है। उन्होंने बताया कि सबसे सस्ती बाकरखानी 10 रूपए की है तो वहीं सबसे महंगी बाकर खानी जिसे मैंगों पराठा कहते है 110 रूपए की है।
जामा मस्जिद शाही उर्दू बाजार के नीचे 25 सालों से होटल हबीब चलाने वाले वलीउल्लाह बताते है कि बाकरखानी की काफी डिमांड है। 10, 15, 20 रूपए की बाकरखानी बनती है।
तुर्कमानपुर स्थित दिलदार हुसैन के मालिक दिलदार हुसैन के मुताबिक बाकरखानी तो कई जगह बनती है लेकिन जैसी बाकरखानी गोरखपुर में तैयार की जाती है वैसी गोरखपर, बनारस व जौनुपर में ही मिलती है। मुगलों के खान पान की जीती जागती रिवायत है बाकरखानी। दस्तरखान की शान है।