विचार

ज़िन्दगी के ग़म ही क्या कम थे नीलाभ कि तुम्हें ग़म-ए-इश्क़ से भी मारा जाये….

पंकज मिश्र

सब जाम बकफ बैठे ही रहे
हम पी भी गए छलका भी गए ..

दस्तूर है पुराना , असमय भी चले जाना | चन्द रोज़ पहले मोहम्मद शाहिद आज नीलाभ | एक सफेद गेंद और स्टिक से मैदान में जादू दिखाता और दूजा कलम और कागज़ की जमीन पे ब्लैक एन्ड व्हाइट समझाता चला गया |

न जाने वह कौन सी प्रेरणा थी जिसने उसे मुआफीनामा लिखवाना शुरू कर दिया अचानक | एक के बाद एक | जिस जिस का वो गुनहगार रहा होगा वो मुआफ़ी नामे की अगली क़िस्त में अपने नाम का इंतज़ार जरूर कर रहा होगा | उम्मीद बर हूँ कि उसकी किश्तें पूरी हो चुकी होंगी और उसने अपने गुनाहों की तलाफी मुकम्मल कर ली होगी | तो क्या वाहिद नीलाभ ही गुनाहों गलतियों का पुतला था | क्या हम नही के आप नही | जो हम भी और आप भी हैं , तो फिर फ़र्क़ क्या सबमे और नीलाभ में |

फ़र्क़ तो है और बहुत बड़ा फ़र्क़ है | यह कयास हो सकता है कि उसे शायद अपनी मौत का इल्हाम हो गया हो और वह अपनी रूह पर कोई बोझ छोड़ के न जाना चाहता हो | लेकिन ये कयास भर है | कमज़र्फ आदतन कयासबाज़ होते है और आलाज़र्फ़ चीज़ों को मुकम्मल देखना चाहते है | नीलाभ के जेहन में भी जैसे ही कोई तस्वीर मुकम्मल हुई उसने देर न की उसे शाया करने में फिर चाहे वह उसके गुनाह ही क्यों न हो | कितने है जो ऐसा हौसला जुटा पाते है | मर तो सब जाते है |

दुस्साहसी भर नही था नीलाभ | कभी बेवज़ह भिड़ता तो बावज़ह भी उतनी ही शिद्दत से लड़ता | गलतियों पर माफी मांगता एहसानों का बदला चुकाता चला गया | लेकिन इतना ही नही गया | जितना गया है उससे ज्यादा कहीं ठहर गया है | मेरे तइं तो वह अपने फेसबुक के अकाउंट में रुका हुआ है और अपनी टाइम लाइन में मुझे दिख भी रहा है | गो उससे पहले से कोई पहचान न थी बस धुंधली यादें थी बीबीसी में गुज़ारे गए उसके वक़्तों की | तब कि जब वह सिर्फ आवाज़ की शक्ल में नुमाया होता था | फिर इसी फेसबुक की आभासी दुनिया में मिला तो परिचय और बढ़ा | आज भी उससे मिलना होता है तो वही जाता हूँ | उसकी टाइम लाइन खंगालता हूँ | अब जब कि उसकी टाइम लाइन में आगे कुछ और नही टँकना तो भी कितनी ज़िंदा है उसकी समय रेखा | कहीं कुदरत के फलसफ़ों से तो इंसानियत की इबादतों से , कहीं कोई ग़ज़ल कहीं कोई संस्मरण ….. कहीं किसी ने खुदरा कमेंट किया के Nature sanctifies तो नीलाभ ने उसे अपने हर्फों के गुहर से थोक में तौल कर खरीद लिया | वह पूरा सौदा अभी उसकी वाल पर मिला | मेरी तरह कोई भी सुधी पाठक भी इस कलम समृद्ध की शब्द सम्पदा से चमत्कृत हुए बिना न रह सकेगा | इतना चमकदार सितारा जब निस्तेज होता है तो कुछ घड़ी के लिए कुछ भी नही दीखता | चकाचौंध तो जाते जाते चली जाती है लेकिन रोशनी की लम्बी लकीर जेहन में जरूर खीच जाती है | रोशनाई की खूबसूरती यही है | इसलिए रोशनाई से कागज़ पे अद्भुत पेंटिंग बनाने वाला स्मृतिधन्य शब्द चितेरा औचक चला जाए तो यह दुःख बड़ा है , बहुत बड़ा है | आखिर मोहम्मद शाहिद को साथ लिए नीलाभ के बारे में क्यों लिख रहा हूँ मैं | क्या करता मैं जो दोनों के हुनर यकसां है , हिकमतें भी और हिम्मत भी | दोनों भीतरी तौर पर एक ही तत्व से बने है बस उनके मुरीद उन्हें अलग अलग जगह , देख सुन पढ़ पाते है | एक के पास कमाल की भाषा कमाल की अदायगी और हर्फों की बुनावट भी बाकमाल तो दूसरा भी अपनी फील्ड में बिलकुल उसी तरह का |

महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई
कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए …

सब जाते है | लेकिन कुछ ही होते है जो जितना जाते है उससे ज्यादा रह जाते है | तो तुम दोनों भी बाकायदा रहोगे | जाओ शाहिद मैच खत्म हुआ और तुम भी नीलाभ कलम छोडो , बीमार हो, आराम करो …. मुकम्मल आराम | वो तुम्हारी आखिरी ग़ज़ल मैं पढ़ देता हूँ …. तो सामयीन समात फरमाये ….

पहले तो इश्क़ को सीने में उतारा जाये
फिर उसे दर्द के ख़ारों से संवारा जाये

जब वो इख़्तियार करे दार की सूरत यारब
दिल को हर बार उसी दार पे वारा जाये

हमारे लिए तो आब-ए-हयात है शराब
उसी से अब इस जगत को तारा जाये

ख़ारिजुल्बज़्म है जाने कबसे हमारा वुजूद
अब कहां अज़्म कि उस बज़्म में दोबारा जाये

ग़मों के हाथ वक़्फ़ रहा है अपना वुजूद
जब वो जाना है तो फिर सारे-का-सारा जाये

ज़िन्दगी के ग़म ही क्या कम थे नीलाभ
कि तुम्हें ग़म-ए-इश्क़ से भी मारा जाये….⁠⁠⁠⁠

pankaj mishra

(पंकज मिश्र सोशल मीडिया पर ‘ यक्ष -युधिष्ठिर संवाद ‘ के लिए खूब चर्चित हैं )