साहित्य - संस्कृति

जनकवि दुर्गेंद्र अकारी विजेंद्र अनिल ने जनजागरण का काम किया

जन संस्कृति मंच ने विजेंद्र अनिल और दुर्गेंद्र अकारी की स्मृति में गोष्ठी आयोजित की 
 आरा (बिहार ) .
3 नवंबर 2007 को जनगीतकार और कहानीकार विजेंद्र अनिल का निधन हुआ था और 5 नवंबर 2012 को जनकवि दुर्गेंद्र अकारी का। विजेंद्र अनिल के दसवें स्मृति दिवस और अकारी जी के पांचवें स्मृति दिवस पर विगत 5 नवंबर को जन संस्कृति मंच की ओर से ज्ञानपीठ पब्लिक स्कूूल, आरा में ‘अकारी-अनिल स्मरण’ नाम से एक गोष्ठी आयोजित की गई। पहले इन दोनों रचनाकारों के साथ 1998 में इसी रोज गुजरे बाबा नागार्जुन और हाल में दिवंगत हुए भोजपुरी के प्रसिद्ध साहित्यकार पांडेय कपिल, विशुद्धानंद और कथाकार-गजलकार बनाफरचंद्र की स्मृति में एक मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गई।
अध्यक्षता रामनिहाल गुंजन, सुरेश कांटक, रवींद्रनाथ राय और जितेंद्र कुमार ने की। संचालन सुधीर सुमन ने किया।
जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रामनिहाल गुंजन ने कहा कि विजेंद्र अनिल जब भी आरा आते थे, तब उनसे जरूर ही मिलते थे। उन्होंने गीतों, गजलों, कहानियों के माध्यम से बहुत शानदार काम किया। एक ऐसा समय आएगा जब रमता जी, गोरख पांडेय, विजेंद्र अनिल और अकारी जी पर नए सिरे से इतिहास लिखा जाएगा। दोनों ने जनजागरण का काम किया है। अकारी एक ओर ये कहते हैं कि ‘मत कर बनिहारी तू सपन में’, ‘देखु, जगले किसान, अब का करबे जमींदरवा’ और ‘बड़का टोपरवा हमार होई’ वहीं दूसरी ओर इस पर आपत्ति भी दर्ज करते हैं कि देश का सारा धन अमेरिका और रूस को चला जा रहा है। वे सामंतों को समझाने का प्रयत्न भी करते हैं- ‘सामंती मिजाज आपन बदल विचार हो’ या ‘ कब्बो मत बोलीह गरीब से कुबोली ’। वे बहुत कम पढ़े-लिखे थे, पर बुद्धिजीवी थे। रामनिहाल गुंजन ने अकारी जी को भोजपुरी का कबीर कहा। विजेंद्र अनिल के बारे में उनका कहना था कि उनके गीत भोजपुर के जनांदोलन से प्रभावित हैं और जनांदोलनों को प्रभावित करते हैं। विजेंद्र अनिल यह सवाल उठाते हैं कि ‘केकर ह ई देश आ के काटत बा चानी’। वे परिवर्तनकारी शक्तियों की एकजुटता का आधार तैयार करते हैं।
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संतोष सहर
जसम, बिहार के अध्यक्ष कथाकार सुरेश कांटक ने कहा कि विजेंद्र अनिल और दुर्गेंद्र अकारी भोजपुर के किसान आंदोलन के सांस्कृतिक योद्धा थे। वे सिर्फ अपनी कलम से ही नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष तौर पर भी जनता के संघर्ष में शामिल रहे।
उन्होंने कहा कि 1970 में उनकी विजेंद्र अनिल से पहली मुलाकात हुई थी। बाद में उन्होंने उन्हें नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चे का सदस्य बनाया। साथ-साथ रहने, लिखने, यात्राएं करने का भी उन्होंने जिक्र किया। उनके अनुसार विजेंद्र अनिल के गांव में सामंती ताकतों का वर्चस्व था। वीरबहादुर सिंह के लोग उनसे मिलने आने वालों पर भी नजर रखते थे, पर उनके साथ भी जनता की ताकत थी, जिस कारण उस सामंती शक्तियों के गढ़ में भी निर्भीकता के साथ उनके विरुद्ध लिखते रहे। शब्द और कर्म दोनों स्तरों पर उन्होंने एक सा जीवन जिया।
प्रलेस के राज्य महासचिव आलोचक रवींद्रनाथ राय ने कहा कि दोनों एक्टिविस्ट रचनाकार थे, जो एक बड़ा लेखक होने से भी बड़ी बात है। ये ऐसे रचनाकार हैं, जो समाज में संघर्ष के साथ रहे, संघर्षों के बीच जीवन जिया। इनमें समाज को बदलने का जुनून था। रणवीर सेना के खिलाफ जब लड़ाई चल रही थी, तब अकारी जी ने उसके खिलाफ लगातार लिखा। उनकी कविताएं तात्कालिक होते हुए भी महत्वपूर्ण हैं, उन्होंने हर घटना की प्रतिक्रिया में गीत रचे हैं। विजेंद्र अनिल ने भी जो कुछ भी लिखा जनता के लिए ही लिखा। उनके भोजपुरी जनगीत तो काफी असरदार हैं। ये कवि उम्मीद बंधाते हैं कि आज जो अंधेरा है, वह जरूर छंटेगा और उजाला आएगा। आज जो अमानवीय शक्तियां हावी हो रही हैं, उनके खिलाफ इनकी रचनाएं हमारा हथियार हैं। ऐसे कवियों की आज भी जरूरत है।

जसम के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य कवि-आलोचक जितेंद्र कुमार ने कहा कि विजेंद्र अनिल और अकारी जी को याद करते वक्त हमें यह सोचना होगा कि बदली हुई परिस्थितियों में हम सांस्कृतिक-राजनैतिक आंदोलन को कैसे संगठित करेंगे। भारत में जो वर्णवाद है, जो जातिवाद है, उससे कैसे निबटा जाए क्रांतिकारी शक्तियों को यह सोचना होगा। उन्होंने बताया कि 1998 में आरा आने पर विजेंद्र अनिल से उनका परिचय हुआ। बनारसी प्रसाद सम्मान समारोह और अन्य आयोजनों में उनके साथ मुुलाकातें हुईं। उनकी कहानियों और गीतों से परिचित होने का मौका मिला। आर्थिक सहयोग की पेशकश करते हुए उन्होंने कहा कि उनके गीतों और अन्य रचनाओं का दस्तावेजीकरण जरूरी है। अकारी जी के बारे में उनका कहना था कि उनसे उनकी मुलाकात ज्यादातर जसम के सम्मेलनों में ही हुई। वे जितना कवि-गीतकार थे, उतना ही सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्त्ता भी थे।
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रमता जी और अकारी जी की रचनाओं का संकलन-संपादन कर रहे संतोष सहर ने अकारी जी पर बोलते हुए कहा कि उनकी रचनाओं में विविधता तो है ही, पर वे अपने तईं सबसे विशिष्ट और अनूठे कवि भी हैं। कुछ चीजों के बारे में उनके पास जैसे प्रत्यक्ष अनुभव हैं, वैसा किसी दूसरे में नहीं है। वे स्वयं शिक्षित हैं। श्रम का जो कष्ट होता है, जो पीड़ा होती है, उसका वे वर्णन करते हैं। आपातकाल से लेकर अघोषित आपातकाल के दौर तक लिखी गई उनकी रचनाएं इसका भी उदाहरण हैं कि समाज के सबसे निचले तबके पर खड़े आदमी की वैचारिक पोजिशन क्या हो सकती है।
कवि सुमन कुमार सिंह ने कहा कि अकारी जी के गीत आंदोलनों की जरूरत की तरह रहे। उनके गीतों में श्रम का लय है। वे किसान-मजदूरों के जननेता रहे हैं। उनमें संघर्ष की एक जिद है। उन्होंने अकारी जी के गीत ‘जातरी का विलाप’ और ‘चाहे जान जाए’ को सुनाया। विजेंद्र अनिल को नई पीढ़ी के जनसाहित्यकारों के लिए उन्होंने वैचारिक संबल बताया और उनसे लिए गए एक लंबे साक्षात्कार का जिक्र किया।
कवि सुनील चौधरी ने अकारी जी से हुई लंबी बातचीत का हवाला देते हुए कहा कि उम्र के अंतिम दौर में भी उनके भीतर कहीं भी निराशा नहीं थी। वे कविताएं लिखते थे, उन्हें गाते थे, कविताओं की पुस्तिकाएं बेचते थे। वे 74 के आंदोलन और लोकदल के साथ रहे, लेकिन भोजपुर के नक्सली आंदोलन से प्रभावित होकर गीत रचे और बाद में उस आंदोलन का हिस्सा हो गए। पुलिस की मार झेली। गरीबों की जमीन कब्जा करने वाले राजद नेताओं से उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी। उन्होंने कहा कि विजेद्र अनिल भी एक एक्टिविस्ट कवि थे। पेशे से वे शिक्षक थे। उनकी रचनाएं पढ़ते हुए बदलाव की जरूरत शिद्दत से महसूस होती है। दोनों कवि शोषक व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध करने वाले कवि थे। सुनील चौधरी ने प्रेमचंद की याद में विजेंद्र अनिल द्वारा विदेशिया के तर्ज पर लिखे गए गीत ‘गोरवन के राज रहे, बिगड़ल समाज रहे’ को भी सुनाया। इस गीत में ब्रिटिश राज के दौर में किसानों के शोषण-उत्पीड़न और उसके प्रतिरोध के इतिहास के साथ-साथ भोजपुर किसान आंदोलन के दौरान हुए दमन, जुल्म और उसके प्रतिरोध को भी दर्ज किया गया है।
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विजेंद्र अनिल बेटे-बेटियों में उनके सर्वाधिक करीब रहे उनके बड़े पुत्र सुनील श्रीवास्तव ने उनको याद करते हुए कहा कि छह माह की उम्र में ही उनके पिता ने अपने पिता को खो दिया था। सुनील ने बताया कि उनके पिता जिस स्कूल में विज्ञान के शिक्षक थे, उसी में उनकी पढ़ाई हुई। लगभग 28-29 साल तक वे उनके साथ रहे। मृत्यु के दिन भी वे उनके पास ही थे।
सुनील श्रीवास्तव ने एक दिलचस्प प्रसंग का जिक्र किया कि उनके परिवार में पहले यह अंधविश्वास था कि जो भी मैट्रिक करने की कोशिश करता है, उसकी मृत्यु हो जाती है। लिहाजा परिजन नहीं चाहते थे कि विजेंद्र अनिल मैट्रिक की परीक्षा दें। यह 1959-60 के आसपास की बात होगी। संयोग से लिखित परीक्षा के बाद उनकी तबीयत बुरी तरह खराब हो गई। व्यावहारिक परीक्षा देने में भी वे असमर्थ थे। परिवार के लोग भी मना करने लगे। लेकिन वे उस स्थिति में भी यथास्थिति और अंधविश्वास के खिलाफ परीक्षा देने पर अड़े रहे। लाख मना करने के बावजूद पालकी से परीक्षा केंद्र गए और परीक्षा में शामिल हुए। जब रिजल्ट आया तो पूरे राज्य में सर्वोच्च अंक पाने वाले विद्यार्थियों में उनका नाम ग्यारहवें स्थान पर था।
सुनील ने बताया कि पंद्रह साल में ही विजेद्र अनिल ने पहला जनगीत लिखा था। उन्होंने दो हजार के करीब कविताएं भी लिखी हैं, जिनमें ज्यादातर अप्रकाशित और असंकलित हैं। सुनील के अनुसार विजेंद्र अनिल ने कहानी लेखन की शुरुआत भोजपुरी कहानियों से की थी। बाद में हिंदी कहानी लिखना शुरू किया। ‘अपनों के बीच’, ‘जन्म’ और ‘फर्ज’ उनकी अपनी ही जिंदगी पर केंद्रित कहानियां हैं। ‘अपनों के बीच’ कहानी के बारे में उन्होंने बताया कि पहले उन्होंने उसे ज्ञानरंजन को पहल में छापने के लिए भेजी थी। लेकिन ज्ञानरंजन ने चतुर प्रतिक्रिया दी कि कहानी तो अच्छी है, पर बहुत लंबी है। एक दूसरी पत्रिका को इस पर आपत्ति थी कि कोई शिक्षक अंडरग्राउंड कैसे हो सकता है। तीसरी पत्रिका के संपादक ने कई अंशों को चिह्नित करके उन्हें भेजा कि इन्हें हटा दीजिए, तो कहानी छापी जा सकती है। जाहिर था विजेंद्र अनिल इसके लिए तैयार नहीं हुए। कोई शिक्षक किसी अंडरग्राउंड पार्टी का कार्यकर्ता हो सकता है, यह बात इन संपादकों को हजम नहीं हो रही थी। सुनील ने बताया कि विजेंद्र अनिल ने जब महेश्वर को इसकी जानकारी दी, तो उन्होंने यह कहकर ले लिया कि वे इसे ‘तत्काल’ में छापेंगे और उसी पत्रिका में वह कहानी छपी। वह पत्रिका महेश्वर और उनके मित्र लक्खीसराय से निकालते थे।
सुनील के अनुसार, विजेंद्र अनिल कहते थे कि ‘फर्ज’ उनके जीवन का मूल है। उनका गांव सामंती गढ़ था। दुश्मन एक-एक गीत और कहानी पर नजर रखते थे कि विजेंद्र अनिल क्या लिख रहे हैं। जैसे जब उन्होंने एक गजल में यह लिखा कि ‘ये तो तय है कि सभी शीशमहल टूटेंगे’ तो सामंत पढ़े-लिखे लोगों से पूछने लगे कि यह किसके बारे में लिखा गया है ?
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सुनील ने कहा कि नौकरी करने वालों की तरह विजेंद्र अनिल ने कभी यह बहाना नहीं बनाया कि उनके पास समय की कमी है। सुबह प्रायः इलाके के किसान-मजदूरों से बातचीत में ही समय निकल जाता, दिन भर स्कूल में अध्यापन करते थे। इस कारण अक्सर वे रात में ही लिख पाते थे। उनकी रचनाओं की डायरी और पांडुलिपि में प्रायः तारीख के साथ रात के 12 से लेकर 2 बजे का समय भी दर्ज है।
विजेंद्र अनिल द्वारा बनाए गए ‘लेखक-कलाकार मंच’ और प्रेमचंद जन्मशताब्दी पर आयोजित किए गए दो दिवसीय आयोजन के साथ-साथ  1983 में चंद्रशेखर आजाद नाटक के मंचन को याद करते हुए सुनील ने कहा कि गांव की सामंती शक्तियों के विरोध के बावजूद पंचायत भवन में वह नाटक हुआ था, जिसमें लगभगग दस हजार लोग मौजूद थे। यह उनके पिता की दृढ़ इच्छाशक्ति के बदौलत ही संभव हो पाया था। सुनील ने जोर देकर कहा कि सरकारी नौकरी करते हुए भी जनता और उसके संघर्षों के लिए काम किया जा सकता है, यह उनके पिता से सीखा जा सकता है।
सुनील ने बताया कि विजेंद्र अनिल की बहुत कम रचनाएं ही पुस्तकाकार आ पाई हैं। हां, उनके गीत अब भी लोगों की जुबान पर हैं, ठीक उसी तरह जैसे अकारी जी के गीत आज भी आंदोलनों के बीच हैं। अकारी जी के गीतों ने भोजपुर के आंदोलन को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाई है। लेकिन विजेंद्र अनिल, अकारी जी और उनके साथी तो अपना काम करके जा चुके हैं। उनकी कितनी रचनाएं प्रकाशित हो पाएंगी या नहीं हो पाएंगी, इससे ज्यादा सार्थक काम तो यह होगा कि उनकी स्मृति के बहाने हम अपनी राजनीतिक समझ को उन्नत करें। जनता के आंदोलन के प्रति अपनी भूमिका बढ़ाएं।
अरविंद अनुराग ने दिल्ली में विजेंद्र अनिल पर केंद्रित एक कार्यक्रम में अपनी मौजूदगी का  जिक्र करते हुए उनकी एक गजल ‘लिखने वालों को मेरा सवाल, पढ़ने वालों को मेरा सलाम’ को सुनाया। अकारी जी के बारे में अपनी याद साझा करते हुए उन्होंने बताया कि गांव के मेले में कविता की पुस्तिकाएं बेचते हुए और गीत गाते हुए उनको उन्होंने देखा था। बाद में अपने गीतों के माध्यम से चुनाव प्रचार करते हुए भी देखा।
जनकवि कृष्ण कुमार निर्मोही ने कहा कि विजेंद्र अनिल से तो उनकी मुलाकात प्रायः साहित्यिक-राजनीतिक आयोजनों-सम्मेलनों में ही होती थी, पर अकारी जी का संग-साथ ज्यादा रहा। दोनों गीतकारों के गीतों के भाव एक हैं, दोनों ने समाज के दबे-कुचले लोगों को जगाने के लिए लिखा। अकारी जी पर हुए पुलिसिया जुल्म की एक घटना और इंदिरा तानाशाही से लेकर भोजपुर आंदोलन के योद्धाओं में से एक रामेश्वर यादव पर लिखे गए उनके गीतों को भी उन्होंने याद किया।
वार्ड पार्षद सत्यदेव ने कहा कि जब वे छात्र संगठन आइसा में थे, उन्हीं दिनों पहली बार अकारी जी को देखा था। भाकपा-माले के पूर्व सांसद रामेश्वर प्रसाद जब जनसंहारों के खिलाफ आमरण अनशन पर बैठे थे, तब वे लगातार अपने गीतो के जरिए आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ा रहे थे। जो मजिस्ट्रेट था, उसने इनको ही टारगेट कर लिया था। उसका कहना था कि यह गीत गाने वाला आदमी बहुत खतरनाक है, लोगों को भड़का रहा है। सत्यदेव ने कहा कि आज भी ऐसे लोग जो गांवों में रहकर गीत रच रहे हैं, गा रहे हैं, उनको गोलबंद करने की जरूरत है। विजेंद्र अनिल को याद करते हुए उन्होंने एक प्रसंग सुनाया कि अपनी बेटी की शादी समारोह में साथियों को आमंत्रित करने वे आरा आए थे, तब उनकी उनसे मुलाकात हुई थी। उस वक्त भी शादी की तैयारियों की चिंता के बजाए उनमें समाज के प्रति चिंता अधिक नजर आई। कैसे बेहतर लिखा जाए, कैसे संघर्ष करने वालों को ऊर्जा प्रदान की जाए, उनकी बातचीत इसी पर केंद्रित रही।
आशुतोष कुमार पांडेय ने विजेंद्र अनिल की दो गजलों ‘काफिला चल पड़ा, अब रात पिघल जाएगी’ और ‘मुझ पर इल्जाम कातिलों ने लगाया यारो’ को तथा सुधीर सुमन ने विजेंद्र अनिल की गजल ‘मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना’ और अकारी जी के गीत ‘हितवा दाल रोटी पर’ को सुनाया।
शायर कुर्बान आतिश ने इस मौके पर अपनी गजल सुनाई-
‘‘कराहती हुई फस्ल भी कहां देख सके
उम्मीद लिए मर गए दहकान हजारों।
ये कौन सी साजिश का खेला गया नया खेल
एक जान बचाने में जान गई हजारों।
धन्यवाद ज्ञापन संतोष सहर ने किया।
इस मौके पर डाॅ. सिद्धनाथ सागर, राकेश दिवाकर, सुनील श्रीवास्तव, विजय मेहता, शिवप्रकाश रंजन, संजय कुमार, किशोर कुणाल, रामकुमार नीरज, रविप्रकाश सूरज आदि मौजूूद थे।

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