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‘ तीन दिन हो गए, कुछ खरीद लो बाबू ‘


नोट बम से टूट गयी छोटी पूंजी, नहीं मिल रहे ग्राहक
रोज कमाने खाने वालों के घर रोटी के लाले, अब उधार भी नहीं मिल रहा

अशोक चौधरी
गोरखपुर। ‘ तीन दिन हो गए, एक भी सामान नहीं बिका। रोज सवेरे घर से निकलता हूं, शाम ढले घर पहुंचता हूं, खाली हाथ। अब तो मुहल्ले का दुकानदार भी उधार देने को तैयार नहीं। साहब कुछ खरीद लीजिए। ‘

दरवाजे पर अधेड़ उम्र का एक फेरी वाला गुहार लगा रहा है। साइकिल का कैरियर ही उसकी दुकान है, जिस पर बच्चों के सस्ते रेडीमेड कपड़ों का गट्ठर लदा हुआ है। इस अधेड़ फेरीवाले की गुहार से दिल भर आता है। पर क्या करें, कुछ खरीदे भी तो कैसे, 100 रुपये का नोट कहां हैं। अधेड़ फेरीवाला समेत शहर के लगभग 20 हजार ठेले, फेरीवालों को सूझ नहीं रहा है वे क्या करें। उनके पास भी कागज हो चले 500 और 1000 के कुछ नोट बचे पड़े हैं। ये नोट घर में रोटी के लिए नहीं, माल खरीदने की पूंजी के रूप में हैं। इनमे से सिर्फ 4000 रुपये ही तो बदल पाएंगे। वह भी पैन या आधारकार्ड की कापी देने के बाद। पैन तो शायद ही किसी के पास हो। आधार कार्ड भी सिर्फ एक बार ही काम आएगा।
आम आदमी का दर्द है कि किससे अपना दुख कहे। सब एक ही दुख में है। दूसरे के प्रति संवेदना जगकर भी क्या करेगी। जब असहाय निरूपाय जैसी हालत हो कि खाते में रुपये रहते हुए भी किसी जरूरतमंद की मदद नहीं कर पाएं। ऐसा कब होता है याद है, शायद भूकंप के समय, जब गिरती हुई छतों के नीचे विस्फारित आंखों से हम किसी अपने को ही दबते हुए देखते हैं। या फिर बाढ जैसी आपदा में जब अपने खेत और आशियाने डूबते जाते हैं और हम कुछ भी बचा लेने की मानसिक स्थिति में सबकुछ छोड़कर विस्थापित हो जाते हैं। बाजारी संस्कृति के उपभोक्तावादी समय में यही तो होना है। जब संवेदना का मूल्य कुछ नहीं होना है। आप ज्यादा सोचे और समझे तो अपना दुख खुद ही पीने की क्षमता रखें।

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बहरहाल फेरी वाले अधेड़ कारोबारी की परेशानी अकेले उसकी नहीं है। यह दरियाफ्त करने लायक है कि उसके पास कोई बैंक खाता भी है या नहीं। या फिर उसने आधार कार्ड बनवाया है या नहीं। ऐसे लोगों की संख्या देश भर में कितनी होगी। कहीं कोई आंकड़ा है। इसका जरूर आंकड़ा है कि देश के इतने फीसदी लोगों को आधारकार्ड दे दिया गया है। आधारकार्ड न होना अपनी पहचान खोना है अपने ही देश में अनागरिक हो जाना है। उसे बेवकूफ कहा जा सकता है कि वह समय के साथ चल नहीं रहा है। समय जो कभी भी अधेड़ फेरीवाले जैसे लोगों के साथ नहीं होता। ऐसे लोग समय के साथ चलने की कोशिश भी कैसे करें। आधारकार्ड बनवाने के लिए भी उसकी पहचान मांगी जाएगी। मसलन राशनकार्ड , हाउसटैक्स की रसीद, बिजली का बिल या बैंक का खाता ताकि पता लगे कि वह इसी देश का है। एक गोल गोल चक्कर हर चक्कर के अंत में हाथ आता है एक शून्य।
अधेड़ फेरीवाले के पास क्या राशनकार्ड भी है। कोई जानना चाहेगा। उसका राशनकार्ड निरस्त हो चुका है इसलिए कि वह वोटर नहीं है। वोटर नहीं है इसलिए कि उसके पास घर नहीं है। फिर गोल गोल चक्कर। तो क्या अधेड़ फेरीवाला इस देश का नहीं है। उसके पास इस देश का नागरिक होना प्रमाणित करने का कोई भी पुख्ता दस्तावेज नहीं है। कौन है वह। उससे सामान खरीदने वालों को, उसके पड़ोसियों को उसकी शिनाख्त करने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। लोग जानते है कि वह फलाने फेरीवाला की औलाद है। मुहल्ले में ही उसका बचपन बीता, यहीं से वह अपने पिता की साइकिल के पीछे दौड़ते दौड़ते पता नहीं कब उसपर सवार हो गया। उफ, सोचते सोचते दिमाग का दही हो जाएगा। सवाल दर सवाल। यह समय सवाल दागने का है। कोई भी सवालों की बौछार के बीच आपको घेरकर कुछ भी साबित कर सकता है। मसलन सवाल हो सकता है ऐसे लोगों की वकालत आप क्यों करते हैं जिनकी नागरिकता ही संदिग्ध है। अधेड़ फेरीवाले या उसके जैसे तमाम लोगों को कभी अपनी नागरिकता प्रमाणित करने की जरूरत शायद कभी नहीं पड़ी। उसने अपना काम 10 रुपये सैकड़े के सूद पर लिए रुपये से शुरू किया था। मुहल्ले के ही एक पंडित जी का खानदानी सूद का कारोबार था। एक सादे कागज पर उसका अंगूठा निशान लेकर उसे कुछ रुपये दे दिए गए थे। पंडित जी ने उससे नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं मांगा था।  इसके पहले करीब 16 साल की उम्र में अपने पिता के साथ शहर की गलियां नापते हुए ना जाने कब अपने पिता की जगह ले ली। उसे यह शायद याद भी नहीं। 8 नवंबर की शाम तक उसका काम चल रहा था। उसने अपना राशनकार्ड रद होने का गम भुला दिया था। अलबत्ता दिक्कत हो गई थी। घर की ढिबरी के लिए तेल, महीने का कुछ राशन सस्ते में मिलने की उसकी सुविधा खत्म हो गई थी। मुहल्ले के पंसारी से उधार मिल जाता है।  दाल रोटी चलती रहेउसने कभी इससे ज्यादा चिंता नहीं की। अगर घूम फिरकर रोज सौ डेढ सौ भी कमा लिया तो काम चल गया। पर अब कैसे चलेगा। अधेड़ फेरीवाले के चेहरा उड़ा हुआ है। उसके आंखों के सामने पूरे परिवार का चेहरा घूम रहा है। सबसे बाबू भइया करके आधी उम्र बिता ली, पर अब कैसे चलेगा, उसे सूझ नहीं रहा है।
उसकी जेब में पड़े 500 और 1000 के नोट चुभ रहे हैं। इनका क्या करेगा। पंडित जी ने भी लेने से मना कर दिया। कहा कितना बटोरेंगे। जो है उसे ही निपटाने में हलकान है। उससे हमदर्दी रखने वाले भी क्या करें। चार ही हजार तो मिल रहे हैं। वह भी एक आईडी पर एक ही बार।
पता नहीं कितने दिन तक अफरा तफरी रहेगी। न जाने कब जीवन पटरी पर आएगा।

(अशोक चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनका यह लेख ‘ न्यूज़ फाक्स ‘ में 14 नवम्बर को प्रकाशित हुआ है। )

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