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“ हमने 10 वर्ष की उम्र में बाबरी मस्जिद में कई बार नमाज पढ़ी, यहीं नाना और मामू को खोया भी ”

बाबरी मस्जिद की शहादत के 25 साल पूरे होने पर उससे जुडी यादें ताजा कर रहे हैं  शहर-ए-काजी मुफ्ती वलीउल्लाह 

सैयद फरहान अहमद/अशफाक अहमद

गोरखपुर, 6 दिसम्बर। बाबरी मस्जिद की शहादत को इस 6 दिसंबर को 25 साल पूरे हो रहे हैं। हर साल 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद की याद ताजा हो जाती है। ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद से शहर-ए-गोरखपुर के एक ऐसे शख्स का गहरा ताल्लुक है जिन्हें बाबरी मस्जिद में पांच वक्त व जुमा की नमाज अदा करने का सर्फ हासिल हुआ। वह भी अनगिनत बार। उन्होंने बाबरी मस्जिद के मेहराबों, मिम्बर, दरों-दीवार, गुंबद को अपनी आंखों से देखा। यह शहर के एक वाहिद शख्स है जिन्होंने ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को रूबरू देखा और नमाज अदा की। यहीं नहीं इन्होंने बाबरी मस्जिद के अंदर अपने नाना व मामू को खोया भी।

यह शख्स है 82 वर्षीय शहर-ए-काजी मुफ्ती वलीउल्लाह जिनकी पैदाइश टांडा अंबेडकर नगर में हुई।  अयोध्या के रायगंज में इनका ननिहाल हुआ करता था और घंटाघर में दुकान थीं। शहर-ए- काजी 9-10 साल की उम्र में बाबरी मस्जिद में अपने नाना मरहूम नजीर अहमद के साथ नमाज अदा किया करते थे। शहर-ए-काजी का सारा खानदान बाबरी मस्जिद में नमाज अदा किया करता था।

बाबरी मस्जिद से जुड़ी यादों के बारे में मुफ्ती वलीउल्लाह बतातें है कि हमारे खानदान के सभी लोग बाबरी मस्जिद में पांच वक्त की नमाज पढ़ने जाते थे। उस वक्त मेरी उम्र 9-10 साल के करीब रही होगी। जब ननिहाल आना होता था तो नाना के साथ बाबरी मस्जिद में नमाज पढ़ने जाता था। बाबरी मस्जिद के आस-पास सैर सपाटा भी करते था। पास में ही ननिहाल की दुकान भी थीं। यह सब आजादी से पहले का वाकया हैं। सन् 1949 में तालीम हासिल करने के लिए बाहर निकलना पड़ा तो ननिहाल जाना बहुत कम हो गया। बाबरी मस्जिद को याद करते हुए कहते हैं कि मस्जिद की मेहराब व मिम्बर शानदार थे। उसमें ताक बने हुए थे। कदीम तर्ज पर मस्जिद बनी हुई थीं। बहुत ज्यादा मरम्मत के लायक नहीं थी। दीवारें बहुत मोटी और मजबूत थीं। वुजू के लिए सुर्खी और चूने की टंकिया बनी हुई थीं। जिसमें से पानी निकालकर वुजू बनाया जाता था। आज भी बहुत सी मस्जिदों में वह व्यवस्था मिल जाती हैं। हर नमाज के दौरान 3-4 सफें बनती थीं। मस्जिद चूंकि बहुत बड़ी थीं इसलिए 3-4 सफें बनना बड़ी बात थीं। यहां मुसलमानों की तादाद ठीक-ठाक हो जाया करती थीं। जुमा में पूरी मस्जिद भर जाती थीं। मस्जिद का जो पिछला हिस्सा था वह वीरान हो रहा था क्योंकि कोई मरम्मत का सिलसिला नहीं था।

उन्होंने एक दर्दनाक वाकया बयान करते हुए बताया कि सन् 1949 की रात एशा की नमाज (रात की नमाज) जमात के साथ अदा हो रही थीं। नाना मरहूम नजीर अहमद व मामू मकसूद अहमद नमाज में शरीक थे। अराजक तत्वों ने पत्थरबाजी कर दी। नाना के सर पर एक पत्थर लगा और वह नमाज की हालात में वहीं मस्जिद में ऑन द स्पाट शहीद हो गए। मामू को गंभीर चोटें आयीं और उन्हें इलाज के लिए टांडा ले जाया गया जहां तीन दिन बाद उनका भी इंतकाल हो गया। अब ननिहाल का कोई बाकी नहीं है। ननिहाल का जो घर था वह अब नर्सिंग होम बना हुआ है।
उन्होंने बताया कि ननिहाल में गुजारा एक-एक लम्हा यादगार हैं। बाबरी मस्दिद से जुड़ी उस जमाने की हर यादें याद है। वह अंग्रेजों का जमाना हुआ करता था।
उन्होंने बताया कि उस समय जिले में काफी मुसलमान रहा करते थे। मस्जिद भरी रहा करती थी। सन् 1901 के अंदर पं. लक्ष्मन प्रसाद ने ‘तारीख-ए- अयोध्या’ लिखा, जो सरकार के रिकार्ड पर आधारित है उसमें उन्होंने लिखा है कि शहर को ‘शहर-ए-अवलिया’ के नाम से जाना जाता था। यहां 250 से ज्यादा बुजुर्गों की मजारात भी मौजूद है।

उन्होंने आवाम से अपील करते हुए कहा कि इस वक्त तमाम फित्नों के बावजूद हमें जिंदगी में अपने पड़ोसियों के साथ कोई मनमुटाव नहीं करना है। चाहे वह किसी मजहब का हो। कोई मनमुटाव कोई झगड़ा न हो। हमारी जिम्मेदारी है कि सुकून को नुकसान न पहुंचाया जाए। मोहब्बत का पैगाम हमेशा आम किया जाए। जिस तरह एक दूसरे की मदद करते आ रहे है उसी तरह एक दूसरे की मदद करते रहें।

उन्होंने अंत में शेर कहा कि
” जुल्म फिर जुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है।
खून फिर खून है गिरता है तो जम जाता है।।”

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