विचार

केमिकल फ़र्टिलाइज़र के विरोध का मतलब क्या है ?

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से इस बार रासायनिक उर्वरकों पर भी हमला बोला . उन्होंने किसानों से कहा कि वे केमिकल फ़र्टिलाइज़र का इस्तेमाल न करें.  मोदी जी ने अगर कृषि उपज वृद्धि का इतिहास और उसमें केमिकल फ़र्टिलाइज़र की भूमिका का मनन किया होता तो ऐसी अतर्कसंगत बातें न की होती.

प्रधान मंत्री ने रासायनिक खादों के विरुद्ध सबसे बड़े मंच से बोला है तो  इतना तो तय है कि किसानों पर सरकार की ओर से कोई बड़ी आपत्ति आने वाली है. किसानों के लिए सहजता से सस्ते केमिकल फ़र्टिलाइज़र की उपलब्धता समाप्त करने की योजना सरकार बना रही है और उन पर कोई  महंगा वैकल्पिक खाद थोपा जाने वाला है. साथ ही रासायनिक खाद बनाने वाले भारत  के खाद कारखाने धीरे-धीरे बंद किये जाने वाले हैं और विरोध न हुआ तो उनमें कार्यरत मजदूरों और अधिकारियों की नौकरियां भी समाप्त होने वाली हैं.

यहाँ मैं केमिकल फ़र्टिलाइज़र की फसलों का उत्पादन बढ़ाने में अदा की गयी भूमिका, उस पर लग रहे अनर्गल अरोपों, आरोपों में छुपे उद्देश्यों और निहितार्थों, केमिकल फ़र्टिलाइज़र के संभावित विकल्पों, उन विकल्पों के किसानों पर पर पड़ने वाले कुप्रभावों और सबसे ऊपर कॉर्पोरेट को होनेवाले लाभों आदि की चर्चा करूँगा.

भारत में पहले रासायनिक खाद कारखाने की स्थापना तत्कालीन बिहार राज्य के सिंदरी नामक जगह पर सिंदरी फ़र्टिलाइज़र एंड केमिकल लिमिटेड नाम से एक पब्लिक सेक्टर कंपनी के रूप में हुई थी. इसकी योजना तो अंग्रेजी सरकार ने, जो यूरोप में रासायनिक खादों की उपयोगिता देख रहे थे, 1945 में बनायीं थी, पर उसके बनते-बनते स्वतंत्र भारत में 31 अक्टूबर 1951 का दिन आ गया और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू  ने 2 मार्च 1952 को सिन्दरी फैक्ट्री के अमोनियम सल्फेट प्लांट का औपचारिक रूप से उद्घाटन किया.

इसकी अगली कड़ी के रूप में 1 जनवरी 1961 को देश की सार्वजानिक क्षेत्र कंपनी फ़र्टिलाइज़र कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया लि०  का गठन हुआ , जिसके कई कारखानों में हर तरह के रासायनिक खाद बनने लगे. हरित क्रांति की शुरुआत 1965 में भारत के तत्कालीन कृषि मंत्री श्री सी. सुब्रह्मण्यम के नेतृत्व में हुई. उसके पहले यहाँ अनाज की भारी कमी रहा करती थी. हाथों में कटोरे लेकर मंत्रीगण अमेरिका और दूसरे देशों से अन्न मांगने नियमित दौरा लगाया करते थे. हरित क्रांति ने उस पूरे दृश्य को बदल दिया था.

हरित क्रांति को सफल बनाने में भूरी क्रांति का बहुत बड़ा योगदान था. भूरी क्रांति अर्थात केमिकल फ़र्टिलाइज़र का भरपूर उत्पादन की क्रांति. हरित क्रांति के पहले यानी 1965 में देश की आबादी 49.7 करोड़  थी.  पर आज की तुलना में अत्यंत छोटी उस आबादी को खिलाने लायक भी अनाज देश में पैदा नहीं हो पा रहा था. 1965-1966 में देश में गंभीर खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया था. मुझे याद है, तब मैं आठवीं-नौवीं कक्षा का छात्र था, किसान परिवार का था, पर राशन से जनेरा और मक्का लाना पड़ता था. एक जमींदार परिवार को भी मैंने राशन से उन्हीं खाद्यान्नों को लेते देखा था.  उस विकट स्थिति से निपटने के लिये भारत को अमेरिका के पीएल-480 में गेहूँ का आयात करना पड़ा. भारत में बढ़ते खाद्यान्न के इस आयात ने देश को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक रूप से कमजोर बनाया और अमेरिका  से गेहूँ के इसी आयात को लेकर देश की नीतियों में हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया.

भारत ने अपनी प्रथम पांच वर्षीय योजना से ही  आधुनिक उपकरण, उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक, सिंचाई आदि का प्रयोग करके कृषि का स्थायी विकास करना अपना लक्ष्य रखा था. परन्तु, चतुर्थ पंच वर्षीय योजना (1 अप्रैल 1969 से 31 मार्च 1974) में ही हरित क्रांति के सहारे  कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए पहली बार ठोस योजनायें बनायी गयी. इस योजना की पृष्ठ भूमि देश में बन रही केमिकल फ़र्टिलाइज़र से मज़बूत हो चुकी थी, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू  2 मार्च 1952 को सिन्दरी फैक्ट्री के अमोनियम सल्फेट प्लांट का औपचारिक रूप से उद्घाटन कर चुके थे, उसकी अगली कड़ी के रूप में 1 जनवरी 1961 को देश की सार्वजानिक क्षेत्र कंपनी फ़र्टिलाइज़र कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया लि०  का गठन हुआ, जिसके अंतर्गत देश के विभिन्न भागों में अमोनिया-यूरिया व अन्य नाइट्रोजन और फोस्फटिक खादों का बड़े पैमाने पर उत्पादन प्रारंभ हो चुका था. आगे चल कर कुछ नयी कंपनियों की स्थापना कर केमिकल फ़र्टिलाइज़र  का उत्पादन बढाया गया. स्थापित फ़र्टिलाइज़र कम्पनियाँ थीं –

सार्वजनिक क्षेत्र में

1.फ़र्टिलाइज़र कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया लि (एफसीआईएल)

2.नेशनल फ़र्टिलाइज़र्स लि (एनएफएल)

3.फ़र्टिलाइज़र्स एंड केमिकल्स ट्रावन्कोर लि (एफएसीटी )

4.राष्ट्रीय केमिकल्स एंड फ़र्टिलाइज़र्स लि (आरसीएफ)

5. हिंदुस्तान फ़र्टिलाइज़र कारपोरेशन लि (एचएफसी)

6. मद्रास फ़र्टिलाइज़र्स लि (MFL)

7. पाइराइट्स, फोस्फेट्स एंड केमिकल लि (PPCL)

8. पारादीप फोस्फेट्स लि (PPL)

9. ब्रह्मपुत्र वैली फ़र्टिलाइज़र कारपोरेशन लि  (BVFCL)

10. एफसीआईएल-अरावली जिप्सम एंड मिनरल इंडिया लि  (FAGMIL)

कोआपरेटिव क्षेत्र में –

11. IFFCCO

12. KRIBHCO

फ़र्टिलाइज़र उत्पादन में निजी क्षेत्र की भी भागीदारी है, चम्बल फ़र्टिलाइज़र्स एंड केमिकल्स, नागार्जुन फ़र्टिलाइज़र्स एंड केमिकल्स, दीपक फ़र्टिलाइज़र्स एंड पेट्रोकेमिकल्स, मंगलोर केमिकल्स एंड फ़र्टिलाइज़र्स श्रीराम फ़र्टिलाइज़र्स एंड केमिकल्स, तूतीकोरन अल्कली फ़र्टिलाइज़र्स एंड केमिकल्स आदि कुछ प्रमुख निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ है.

इन कंपनियों में नये-नये कारखाने बनाते गए, कारखानों की उत्पादन क्षमता का विस्तार भी किया जाता रहा. इन कारखानों में यूरिया के अलावे अमोनियम नाइट्रेट, अमोनियम सलफेट, कैल्शियम नाइट्रेट, डाई अमोनियम फॉस्फेट, ट्रिपल सुपर फॉस्फेट, पोटैशियम नाइट्रेट , पोटैशियम क्लोराइड, एनपीके  आदि के उत्पादन होते थे.

देश में केमिकल फ़र्टिलाइज़र के बढ़ाते उत्पादन को निम्न लिखित चार्ट में देखा जा सकता है, इस चार्ट से यह भी साफ़ हो जाता है की हरित क्रांति और खाद उत्पादन में सीधा सम्बन्ध है.

वर्ष 1950- 51 60-61 70-71 80- 81 90- 91 96- 97 97- 98 98- 99 99- 2000 2000 -01 2001 -02 2002 -03
नाइट्रोजन

खाद

9 99 830 २१६४ 6993 8764 10538 10795 10912 11025 10745 10559
फोस्फटिक   खाद 9 54 229 842 2,052 2,803 3.191 3,227 3,374 3,745 3,859 3,885

( इकाई दस हज़ार टन में है)

यहाँ पीले रंग में हरित क्रांति के पहले का केमिकल फ़र्टिलाइज़र का उत्पादन लिखा है और हरे रंग में हरित क्रांति काल और उसके बाद का है.

(ये आंकड़े 2002 तक के ही हैं, मैं एफसीआईएल की  फ़र्टिलाइज़र फैक्ट्री गोरखपुर में कार्यरत था और फ़र्टिलाइज़र वर्कर्स फेडरेशन से सम्बद्ध खाद कारखाना मजदूर यूनियन में सक्रिय था. एफसीआईएल और एचएफसी को बंद करदेने के विरुध्द संघर्षरत संयुक्त संघर्ष समिति का प्रवक्ता होने के नाते इन आंकड़ों को मैंने इकठ्ठा किया था. इनके  श्रोत फ़र्टिलाइज़र वर्कर्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया के बुलेटिन, फ़र्टिलाइज़र एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया की पुस्तकें और पीरियोडिकल्स तथा सरकार द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं  – ‘कुरुक्षेत्र’ व ‘योजना’ के अंक हैं. 2002 में हम सभी नौकरी से जब  निकाल दिए गये तब से इस क्षेत्र के आंकड़े लेना मैंने बंद कर दिया.)

वर्ष 2002 के बाद खाद का उत्पादन घटा, इसका कारण यह था की अटल सरकार ने विश्व बैंक और आईएमएफ के दबाव में फ़र्टिलाइज़र कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया लि (एफसीआईएल) और हिंदुस्तान फ़र्टिलाइज़र कारपोरेशन लि (एचएफसी) नामक दो कम्पनीज की सात फैक्ट्रीज के उत्पादन को बंद कर दिया. (वर्तमान समय में गल्फ देशों से केमिकल फ़र्टिलाइज़र का आयात कर किसानों की जरूरतों को पूरा किया जा रहा है.)

इन रासायनिक खादों के उत्पादन के पहले देश में कम्पोस्ट खादों का ही प्रयोग होता था. अन्न की बेहद कमी थी. मुझे याद है कि सरकार हमें कक्षा चार, पांच और छः में गोबर से कम्पोस्ट खाद बनाने की विधि पढ़ाती रही. हरित क्रांति के पहले 61-65 में उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार ने जंगलों, अधीनस्थ भूमि और बेकार पड़ी जमीं को भी कृषि योग्य बनया. जिससे खाद्यान्नों में केवल 1.4 तथा गैर खाद्यान्नों के उत्पादन में मात्र 2.5 की मामूली वृद्धि होकर रह गयी, जबकि आवश्यकता २५% की थी.

हरित क्रांति कल और उसके बाद  यह केमिकल फ़र्टिलाइज़र की भूमिका थी कि देश अन्न के मामले में मात्र आत्म निर्भर ही नहीं बना, पिछले कई वर्षों से वह अन्न का निर्यात भी कर रहा है. इनसे अन्न उत्पादन में बढ़ोतरी के आंकड़ों को देखिये: –

     प्रति हेक्टेयर

अन्न का प्रकार वर्ष 49-50 वर्ष 64-65 वर्ष 2008-09
सभी अन्न क्विंटल में 5.5 7.6 18.98
चावल क्विंटल में 7.1 10.8 43.84
गेंहू क्विंटल में 6.6 9.1 28.91
मोटे अनाज क्विंटल में 4.3 5.1 11.76
दलहन  क्विंटल में 4.0 5.2 6.55
तेलहन क्विंटल में 5.2 5.4 10.16
कपास किग्रा में 55 122 419
गन्ना टन में 34 47 62

इस बढ़ोत्तरी में ऐसा नहीं कि केवल रासायनिक खादों की ही भूमिका थी, हरित क्रांति में कृषि यंत्रों, उन्नत बीजों की भी भूमिका थी. सिंचाई परियोजनाओं में कोई उल्लेखनीय सुधार हो सका था. एक सरकारी पत्रिका ने  (उसका नाम मुझे याद नहीं, शायद ‘कुरुक्षेत्र’ ) 1970- 1975 के आंकड़ों को सामने रखकर विश्लेषणों के आधार पर बताया था कि खाद्यान्न वृद्धि में उन्नत बीजों की भूमिका 30%, कृषि यंत्रों की 15% तथा रासायनिक खादों की 55% थी. कृषि यंत्र बेहद महंगे थे और अधिकांशत: पंजाब और हरियाणा में ही इस्तेमाल होते थे. 1971 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से दूसरे राज्यों के किसानों को भो ट्रैक्टर आदि खरीदने के लिए लोन मिलने लगे, पर वह लाभ सामान्य व छोटे किसानों को नहीं मिल पाया. लेकिन रासायनिक खादों पर सरकार ने सब्सिडी दी और छोटे किसान भी उन्हें आसानी से खरीद सके.  रासायनिक खादों ने खेतों को तुरंत नाइट्रोजन पहुँचाने की सुविधा दी, जिसकी सहायता से वर्ष में आराम से दो फसलों, और कहीं-कहीं तीन-तीन फसलो की खेती भी संभव हो सकी. इसका सीधा असर अन्न उत्पादन के आंकड़ों पर पड़ा. आज वह एक सौ तीस करोड़ की आबादी का पोषण कर ले रहा है.

रासायनिक खादों पर शुरू से ही अनेक अनर्गल आरोप लगते रहे हैं. पौधों की वृद्धि के लिए नाइट्रोजन की सख्त जरूरत होती है. लेकिन, पौधों को देने के लिए भूमि को नाइट्रोजन, फोस्फोरस और पोटासियम की भी जरुरत होती है. एफसीआईएल और अन्य सार्वजानिक क्षेत्र की कंपनियां किसानों को उनकी कृषि भूमि की जरूरतों को बताने का काम भी करती थी. कंपनी भूमि परिक्षण कर किसानों को बताती थी कि भूमि की प्रकृति  कैसी है, इसमें कौन सी फसल अच्छी पैदावार दे सकती है और भूमि को कौन से रासायनिक खाद और उसकी कितनी मात्रा, कितनी बार  देने की जरुरत है. ऐसा काम राज्य सरकारों के कृषि विभाग और उसके लोग भी करने के लिए नियुक्त होते हैं.

आम तौर पर किसान यूरिया का इस्तेमाल अधिक करते हैं, यूरिया में 46% नाइट्रोजन उपस्थित होती है. यूरिया जल में अत्यंत घुलनशील होती है. वह मिटी की नमी में भी घुल जाती है. जमीं पर डालते ही यूरिया कंपाउंड अपने अवयव तत्वों में विघटित हो कर नाइट्रोजन दे देता है.  यूरिया का  रासायनिक सूत्र  H2NCONH2.  है. इसके तत्वों में हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और कार्बन हैं जो मिटी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकते. कारखानों में यूरिया बनाते समय बाईयूरेट नामक एक अशुद्धि भी उत्पन हो जाती  है, जिसका रासायनिक सूत्र C2H5N3O2 होता है. यह मिट्टी  की उर्वरता को नुकसान पहुंचाती है. यूरिया में इसकी अधिकत्तम सीमा 1.5 % स्वीकार्य है. सार्वजनिक क्षेत्रों के कारखानों में बाईयूरेट की तनिक मात्रा भी नहीं रहने दी जाती थी. जबकि निजी क्षत्र के कारखानों में क्वालिटी कण्ट्रोल नहीं थी. इसीलिए गोरखपुर खाद कारखाने की स्वास्तिक छाप यूरिया किसानों की पहली पसंद होती थी.

यह बात सही है कि पौधों को संतुलित खाद की जरूरत होती है अर्थात उन्हें नाइट्रोजन (N), फोस्फोरस (P) और पोटैशियम (K) की जरूरत पड़ती है.  केवल यूरिया के प्रयोग  से अन्न उगाने से मिटी में नाइट्रोजन की कमी तो दूर हो जाती  है लेकिन, उसमें उपस्थित P और K की कमी दूर नहीं हो पाती, जिससे आगे चलकर मिट्टी  ऊसर हो जाती है. इसमें किसानों को उचित जानकारी और प्रशिक्षण मिले और वे संतुलित खाद का प्रयोग करें तो मिट्टी ऊसर हो ही नहीं सकती.

1977 से रासायनिक खादों पर सरकार उत्पादक कारखानों को सब्सिडी देती है. उनके उत्पादन में चाहे जितनी लागत आये कारखाने  बाज़ार में उन्हें सरकार द्वारा  निर्धारित मूल्यों (रिटेंशन प्राइस स्कीम) पर ही बेचते हैं. रासायनिक खादों के  मूल्य को बाज़ार की शक्तियां नहीं निर्धारित कर सकतीं, न उनसे मनमाने लाभ की कोई संभावना होती है, इसलिए शुरू से ही बड़ी निजी कंपनियां खाद निर्माण में आना नहीं चाहीं. (छोटे पूंजीपतिओं की उपस्थिति है) यह प्रवृति आज भी देखी जा रही है.  कुछ वर्षों पहले टाटा केमिकल्स ने बबराला में स्थापित अपनी यूरिया फैक्ट्री से अपना निवेश पूरी तरह निकल लिया. वही स्थिति  बिरला समूह की है. संजय गाँधी के प्रयास से गल्फ के एक देश ने कुछ पैसे लगाये और उनके नाम से ही इंडो गल्फ फ़र्टिलाइज़र्स नाम से जगदीशपुर में फैक्ट्री बनी, जिसे आदित्य बिरला को दे दिया गया. वहाँ से भी बिरला अपना निवेश हटाने पर आमादा है.  जबकि जिन देशों में  मूल्य निर्धारण का अधिकार इन पूंजीपति साहबों को मिला हुआ है, उन देशों में ये खाद कारखाने लगाये हुए हैं. अभीतक भारत में सरकारी  मूल्य नियंत्रण किसानों के हित में है, बर्ना उन्हें किसान खरीद नहीं पाते. निजी क्षेत्र की पक्षधर वर्तमान सरकार रासायनिक खादों पर सब्सिडी कम करना या ख़त्म करना चाहती है. रासायनिक खादों के खिलाफ मोदी जी इस कारण से भी बोल रहे हैं.

रासायनिक खादों से पर्यावरण के नुकसान के आरोपों में भी कोई दम नहीं है. अधिकांश फ़र्टिलाइज़र जल में घुलनशील होते हैं. उनके अवशोषण मिट्टी की पहली परत द्वारा ही कर लिया जाता है. भूतल जल तक उनके पहुँचने को रास्ता नहीं मिलता. हाँ, आवश्यकता से अधिक मात्रा में डाले जाने पर इसका दुष्परिणाम सामने आ सकता है. इसे रोकने के लिए उचित प्रशिक्षण ही काफी है, उसका प्रयोग रोकने की जरूरत नहीं.  फ़र्टिलाइज़र वर्कर्स फेडरेशन और फ़र्टिलाइज़र एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया लगातार मांग करते रहे हैं कि जमीन की जाँच करके उसका कार्ड तैयार कर दिया जाये ताकि किसान सही मात्र में खादों का प्रयोग कर सकें.

फ़र्टिलाइज़र एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने दिसम्बर 2017 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘फ़र्टिलाइज़र यूज  एंड एनवायर्नमेंटल क्वालिटी’ में विस्तार से बहुत सारे आरोपों का आंकड़े देते हुए खंडन किया था. इस पुस्तक को एसोसिएशन के वेब साईट पर पढ़ा जा सकता है. विश्व के सारे विकसित देश प्रति हेक्टेअर भारत से बहुत अधिक रासायनिक खादों का प्रयोग करते है. चीन में भारत की तुलना में खादों का उपयोग कई गुना अधिक होता है, लेकिन ऐसे किसी प्रदूषण की खबर वहाँ से नहीं आती.

प्रधान मंत्री के भाषण का एक उद्देश्य आर्गेनिक खादों की मार्केटिंग को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देना भी था. इस खाद को ही रासायनिक खादों के विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है. हर्बल सामग्रियों के उत्पादक एवं व्यापारी भी आर्गेनिक खाद के पक्ष में बोलते  और प्रत्यक्ष फायदे बताते हैं. लेकिन ये लोग उसके मूल्य और उपलब्धता पर कुछ नहीं बोलते.  निश्चित ही आर्गेनिक खादों से भी पौधों को नाइट्रोजन मिलती है. पर यूरिया सबसे अधिक 46% नाइट्रोजन देती है, यूरिया की मात्र के बराबर ही यदि हम पौधों पर  आर्गेनिक खाद डालें तो केवल 5% नाइट्रोजन मिलेगी. 46% नाइट्रोजन पाने के लिए 9 गुनी मात्रा से अधिक आर्गेनिक खाद की जरूरत पड़ेगी और उसकी कीमत ? उसकी कीमत 90 गुनी बढ़ जायेगी, अर्थात यदि कोई किसान आज एक हज़ार रुपये की यूरिया खरीदता है तो उतनी ही नाइट्रोजन के लिए  उसे 90 हज़ार का आर्गेनिक खाद खरीदना पड़ेगा. आर्गेनिक खादों पर सब्सिडी सरकार नहीं देगी. आगे चल कर ऐसी खेती करना किसानों के बूते का नहीं होगा. कॉर्पोरेट फार्मर उनकी जमीन पट्टे पर ले लेंगे. महंगे खाद देकर वे वायदा खेती करायेंगे. वे किसान  खेत खलिहान बेच कर मजदूरी करेंगे या भारी  क़र्ज़ लेकर आत्म हत्या करेंगे? अगले कुछ दिनों में मोदी सरकार आर्गेनिक खाद निर्माताओं को आर्थिक सहायता, सुविधाएँ,  क़र्ज़, जमीन आदि देगी और रासायनिक खाद कारखानों को बेमौत मरने की योजनायें लागू  करेगी.

फिर उपभोक्ताओं का क्या होगा ? पेट भरने में उन्हें कितना खर्च करना पड़ेगा!  एक नया महंगाई चक्र घुमना शुरू करेगा. आज देश के किसानों की जरूरतें क्या हैं- उन पर परदे डालने के लिए प्रधान मंत्री ऐसे षड्यंत्रों का निर्माण कर रहे है.

अभी 2016 में प्रधान मंत्री  ने हिंदुस्तान उर्वरक एवं रसायन लि०  (हर्ल ) नाम से सिंदरी, गोरखपुर और बरौनी में खाद कारखानों का शिलान्यास किया था, तब उन्होंने कहा था कि इनके खादों से किसानों को लाभ मिलेगा. अभी ये तीन कारखाने बन भी नहीं पाए हैं कि वही प्रधान मंत्री किसानों से रासायनिक खादों का प्रयोग न करने की शिक्षा दे रहे हैं. ऐसे हैं ये तीन दुर्भाग्यग्रस्त कारखानें, जिनके निर्माण में तीन सरकारी सार्वजानिक क्षेत्र की  कम्पनियों के हजारों करोड़ डूब रहे हैं.

अटल विहारी वाजपई की भाजपा सरकार ने दो बड़ी उर्वरक कंपनियों को बंद कर दिया था, अब मोदी की भाजपा सरकार सभी उर्वरक कंपनियों को बंद करने की योजना पर चल रही है.

मैं फिर कह रहा हूँ, लाल किले से प्रधानमंत्री का केमिकल फ़र्टिलाइज़र का विरोध किसानों, मजदूरों और आम उपभोक्ताओं के लिए हितों पर  बहुत बड़ा प्रहार है, दुर्भाग्य से इस संकेत को लोग अभी समझ नहीं रहे. मुझे उम्मीद है कि फ़र्टिलाइज़र वर्कर्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया इसे संज्ञान में लेगा, किसानों के संगठन भी इसे समझेंगे और इस का विरोध शुरू कर देंगे.