साहित्य - संस्कृति

बाश्शा भाई

( कथाकार बादशाह हुसैन रिजवी अब हम लोगों के बीच नहीं हैं. उनका १८ जून को निधन हो गया. उन्हें याद कर रहे हैं कथाकार रवि राय )

     बाश्शा भाई यानी बादशाह भाई यानी श्री बादशाह हुसैन रिज़वी से जुडी ये बातें काफी पुरानी हैं , तकरीबन सैंतीस साल पुरानी, मगर ये मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं .मेरी स्मृतियों में ताजातरीन घटनाओं की तरह ये  अभी  तक ज्यों की त्यों चिपकी हुई हैं .

              वर्ष 1980 में  ‘दैनिक जागरण’ गोरखपुर का दफ्तर बेतियाहाता में हुआ करता था . श्री तड़ित कुमार चटर्जी जिन्हें सभी तड़ित दादा कहते थे ,तब इसके चीफ सब एडिटर थे और श्री तरुण जी के साथ मैं लोकल पर था . बाश्शा भाई उन दिनों शहर की तमाम सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े हुए थे और जागरण के कला संस्कृति पेज के कर्ताधर्ता भी थे . गोरखपुर विश्वविद्यालय में मैडम गिरीश रस्तोगी के नाटक का मंचन होने जा रहा था जिसे कवर करने के लिए जागरण की ओर से बाश्शा भाई को ही जाना था पर  ऐन वक्त पर उन्होंने किसी अन्य को भेजने के लिए कहा. तड़ित दादा असमंजस में पड़े कि किसे भेजें. किसी घटना की रिपोर्टिंग या प्रेस कांफ्रेंस आदि रूटीन काम तो एडिटोरियल में उस वक्त तमाम धुरंधर थे. सोचसमझ कर दादा ने बाश्शा भाई से कहा कि वे खुद जिसे कहें भेजा जाए . बाश्शा भाई ने मेरा नाम लिया . मुझे पता चला कि मैडम रस्तोगी का नाटक देखने जाना है, मैं खुश, पर जब दादा ने कहा कि इसकी समीक्षा भी लिखनी है , मैं कुछ नर्वस हो  गया. अखबार की नई नई नौकरी थी . सबसे जूनियर था पहले कभी नाटक की समीक्षा की नहीं थी . देखना अलग बात है पर समीक्षक की दृष्टि से देखना और फिर उस पर लिखना कुछ तो अलग है ही . बाश्शा भाई ने कुछ टिप्स दिए और हिम्मत बंधाई .बहरहाल, मैं गया – देखा -लिखा और अगले दिन दादा को सौंप दिया. दादा ने उसे बिना देखे बाश्शा भाई को पकड़ा दिया कि आप देखिये और इसे दुरुस्त करके छपने लायक बनाइये.थोड़ी देर में बाश्शा भाई मुझे साथ ले कर दादा के सामने हाज़िर –

  “ बहुत सही लिक्खा है. ईका अब अईसहीं लगवा देव.”

badshah

 कम्पोजिंग हो गई ,प्रूफ चेक हो गया , करेक्शन हो गया और जहां लगना था उस पेज में सेटिंग भी हो गई . अब एक बार फिर दादा और बाश्शा भाई के बीच मंत्रणा शुरू हो गई ,यह मैटर तो नाम से छपेगा ? उस समय जागरण में रिपोर्टर्स का नाम नहीं छपता था. मगर मामला एडिटोरियल वाले पेज का था तो नाम भी जाना था. मेरा पूरा नाम रवि प्रकाश राय है , जो उपलब्ध स्पेस में समा नहीं रहा था . दादा ने कहा र.प्र.राय कर दिया जाय. फिर रवि प्रकाश हुआ . बाश्शा भाई ने कहा,

” परकास कौनों ज़रूरी है का , ईका करौ ‘रवि राय’ ! “

                 और इस तरह मेरा लेखकीय नामकरण हुआ . वह मेरी पहली अखबारी आर्टिकल थी जो रवि राय के नाम से छपी और तभी से मेरा यही नाम चला आ रहा है .

                अपनी रेलवे की नौकरी , लेखन और अन्य तमाम सांस्कृतिक गतिविधियों के बावजूद बाश्शा भाई अखबार के लिए शौकिया अपना वक्त देते थे . कहते थे कि मुझे यहाँ बहुत सुकून मिलता है .अक्सर देर रात भी न जाने कहाँ से घूमते टहलते पहुँच जाते ,

“ का हो , काव करत हौ ? “

                पहले पेज, खेलकूद और लोकल वालों को  अपना पेज पूरा होने के बाद भी फाइनल प्रूफ के लिए अक्सर देर रात बैठना पड़ता था.मेरी पढने की आदत थी सो कुछ न कुछ हमेशा लिए रहता .एक बार कहीं से ‘जासूसी दुनिया’ मिल गई , विनोद हमीद वाली . इंतज़ार में खाली वक्त ,उसी को बांच रहा था कि बाश्शा भाई आ गए ,

 “ ई काव पढ़त हौ जी ?” कहते हुए किताब हाथ से ले ली , पन्ने पलटते हुए पूछने लगे ,

“ ई जासूसी दुनिया के लिक्खिस  है , जानत हौ ?”

“ इब्ने सफ़ी .”

“ इब्ने सफ़ी बी ए , मालुम है  कउन ज़बान में लिक्खत हैं , उर्दू में, फिर ऊका हिंदी में तर्जुमा कीन  जात है.”

मैं भौंचक्का , कितनी किताबें पढ़ डाला पर ये बात तो मुझे पता ही नहीं थी .कमाल है .

बाश्शा भाई किताब वापस थमाते हुए बोले,

“ ई सब काव फालतू  किताब पढ़त हौ . अरे मंटो पढौ मंटो. राही भाई वाला आधा गाँव पढौ  , इस्मत चुगताई पढौ. “

“ जी “

“ रेलवे लाइबरेरी जाव , तनी देखौ ईहो कुल्ह. “

char mehrabon wali dalan

                 नामकरण के बाद मेरा दीक्षा संस्कार हो रहा था. रेलवे के बाद जुबली कालेज परिसर में बनी सरकारी लाइब्रेरी भी खंगलवा डाली . बाश्शा भाई के जाफरा बाज़ार सब्जी मंदी के पास पुराने वाले घर भी गया जो किराए पर था. उनकी कहानियां  पढ़ीं . अपनी एक कहानी तो उन्होंने जुबानी सुनाई थी , एकदम लाइन दर लाइन , जैसी किताब में थी हूबहू. अद्भुत थे बाश्शा भाई .

                बाश्शा भाई बस्ती जिले की  डुमरियागंज तहसील  में हल्लौर के निवासी थे . अब डुमरियागंज तहसील नवसृजित  नौगढ़ जिले में आ गयी है . पुरानी ज़मींदारी वाला सम्मानित खानदान था . घर के बुजुर्ग पुरानी रिवायत में रचे बसे थे. धमाका किया बाश्शा भाई ने अपनी  ‘ अभागा ‘ कहानी से . दो महिलाओं के आपसी संबंधों पर आधारित  इस कहानी की धमक उनके गाँव तक पहुंची और घर ही नहीं गाँव व आसपास के लोग भी नाराज़ हो गए . बाद में वर्गसंघर्ष और श्रमचेतना पर आधारित कहानियों से बाश्शा भाई ने कथा साहित्य में अपनी पहचान बनाई . नयी कहानी का दौर था और सारिका, नयी कहानियां ,साप्ताहिक हिन्दुस्तान , कहानी ,हंस आदि में उनकी कुल मिलाकर करीब सौ कहानियां प्रकाशित हुईं. उनके तीन कहानी संग्रह दस दस वर्ष के अंतराल पर आए.वर्ष 1986 में ‘टूटता हुआ भय’ ,1996 में ‘पीड़ा गनेसिया की’ और 2006में ‘चार मेहराबों वाली दालान’ प्रकाशित हुए . वर्ष 2006 में ही उनका प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैं मोहाजिर नहीं हूँ’ आया जो ज़मीनी बंटवारे से रातों रात बने दो देशों के उनलोगों की त्रासदी पर आधारित है जिनके दिलों को नहीं बांटा जा सका.वे जहां हैं वहाँ उन्हें अपनाया नहीं जा सका और जहां से उजड़े वहाँ से टूटे भी नहीं .बाश्शा भाई ने मुमताज़ शीरीं के उपन्यास का ‘ मेघ मल्हार ‘ शीर्षक से हिंदी में अनुवाद भी किया.

    बाश्शा भाई की पत्नी के साथ उनके सात बेटे और एक बिटिया का भरा पूरा परिवार है ,गोरखपुर में जाफरा बाज़ार सब्जीमंडी वाले किराए के मकान से निकल कर करीब पंद्रह साल पहले वे  बख्तियार मोहल्ले के भरपुरवा टोले में अपने  निजी मकान में शिफ्ट हुए. उन्होंने कभी भी अपने साहित्यकार को परिवार पर नहीं हावी होने दिया , परिवार में सबका पूरी तरह ख्याल रखते थे, बच्चों की पढ़ाई लिखाई , रहन सहन और उन्हें स्थापित करने के लिए हमेशा सोचते रहते थे . बच्चों को अंग्रेजी पढने के लिए प्रोत्साहित करते थे .वर्ष 1995 में पूर्वोत्तर रेलवे के सीनियर टी आई ए पद से रिटायर हुए. अर्धसत्य,अर्थ ,गमन उमरावजान , शतरंज के खिलाड़ी जैसी फ़िल्में उनकी पसंदीदा थीं, सत्यजित रे निर्देशक और शबाना आज़मी कलाकार के रूप में उनकी पहली पसंद थी .

अपने ज़मींदार परिवार से होने पर उन्हें रश्क नहीं था बल्कि अपनी अलग सोच के बरक्स उन्होंने कहा –

         “ मेरे माज़ी को अँधेरे में दबा रहने दो , मेरा माज़ी मेरी ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं.”

                                          सलाम ‘बाश्शा भाई’

ravi rai

( लेखक रवि राय कथाकार हैं. हाल में उनका कथा संग्रह ‘ बजरंग अली ‘ प्रकाशित हुआ है )

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