देवेन्द्र आर्य की कविता : पैदल इंडिया

डूबती सड़कें समंदर पांवों का

उफ़ !

सड़क है या कि धारावी नदी का बांध टूटा

बह रहा सैलाब पांवों का

 

मुंह प जाबा

पांव-पैदल सर प गठरी

जो किसी ने साल भर में तो किसी ने उम्र आधी

बेच करके है कमाई

लग गए हैं चोर गठरी में अदृश्य

 

जैसे पीछा कर रही हों आग की लपटें

चल रहे   बस चल रहे    बस चल रहे

क्या रे गांधी क्या सिखा कर मर गया तू !

ये बेचारे आज तक लड़ते रहे   चलते रहे

लड़ते रहे अंग्रेजों की औलादों से

 

आया था कोई बुद्ध

दु:ख है दुःख का कारण है बताते

नहीं निकला आज तक दु:ख का निवारण रे तथागत !

 

सुना कोई शंकराचार्य चला पैदल

समंदर से हिमालय तक

तीर्थ निर्मित कर गया था चहु दिशा में

उम्र भी क्या थी तुम्हारी ही समझ लो

निवासी से होते होते तुम प्रवासी

मर-मराते जंगलों में आदिवासी

कह गया था    देश सारा एक है

एक हैं सब देशवासी

झूठा निकला

 

कितने तो हैं विंध्य पर्वत बीच में अनलंघे

शिवालिक श्रृंखलाएं बांटतीं हमको

यह सड़क सैलाब साबित कर रहा है

देश टुकड़े हो चुका है

हाइवे   पगड़ंडियों में

 

एक शहरी आंकड़ों का देश

एक उजड़े गांव का परदेश

एक के हाथों में डंडा

दूसरे के हाथ में केवल चिरौरी — बाऊ जी घर जाने दो

कुछ नहीं बस पांव रखने की जगह दे दो सड़क पर

चले जाएंगे हम अपने देश

ज़िंदगी तो भूख से पिस ही गई पर

कम से कम कंघे तो मिल जाएंगे अपने चार

घंट बंध जाएगा अपने गांव पीपल पर

 

स्वर्ग के रस्ते से भटकी

यह पसर कर बह रही है हाइवे पर मनुज-वैतरणी

जाने कितनों को डुबोएगी

 

जाने कितनी प्यासी हैं सड़कें

पसीना पी रही हैं

जाने कितनी भूखी हैं सड़कें

चाटती रहती हैं छाले पांवों के

 

यह सड़क है या उदासी का समंदर

या कि पैदल इंडिया

पांच ट्रिलियन वाला पैदल इंडिया

डबल इंजन वाला पैदल इंडिया

 

उफ़ ! ज़रा पहचानो इनको

हां यही तो हैं गए थे कुम्भ धक्कमपेल एक दिन

जब बसों की ट्रेन की लम्बी कतारें चल रही थीं बिना हाहाकार

साधारण किराए पर

पुण्य की सींकड़ बंधे ये पांव जयकारा लगाते

मां गंगा ने बुलाया था इन्हें

अपने कंठों में बसाए ताल-पोखर बह चले थे तीरे गंगा

भक्त तबके

अबके जो नामित हुए हैं श्रम-प्रवासी

 

हां यही तो थे चढ़े गुम्बद पर ले के छीनी सरिया

हां इन्हीं में से जले थे गोधरा में कई सारे

हां यही थे अपने चूल्हे में पकाई राम मंदिर ईंटें लेकर सरयू तीरे

 

हां यही थे ढोते कांवर

हर की पौडी से उठाए गंगाजल

पांव-पैदल अपने पिपराइच के मंदिर

भोले की नगरी से बाबाधाम जाते

तब फुहेरा फूलों का बरसा था इन पर हवा-रथ से

कर रहे थे वर्दी वाले लोक सेवक पांव-पट्टी

 

हर शहर भंडारा शिव का था सियासी

भोले भंडारी का डीजे

उस समय क्या थी ग़ज़ब इम्यूनिटी इस देश की

श्रवण-क्षमता दस गुनी

 

हां यही तो थे चढ़ाने आए खिचड़ी

रात से लगती कतारों में खड़े

अपनी डेहरी में बचाए अन्न बाबा गोरखनाथ को झर-झर चढ़ाते

किसने इनको भेजा था न्यौता ?

 

आज बोलो किसने इनको भेजा है न्यौता ?

कि सबके सब चल पड़े हैं गांव-घर अपने

कि जैसे गांव अगुवानी में बैठा है इन्हीं के

आएं और रोटी में हिस्सा बांट लें !

एक नया छप्पर बगल में साट लें

 

हां यही तो थे

चिल्ल-पों करते कि हम भी नागरिक हैं देश के

हां इन्ही को तो बुलाना था   बसाना था

हां इन्हीं जैसे तो थे

चेहरों से नहीं पहचानता हूं गठरियों से

और इनकी बोलियों से

जैसे मां सीते को पहचाना था उनके पांवों से लखन ने

 

मगर ये सब यहां कैसे ?

ना तो कोई कुम्भ ना ही श्रावणी ना मकर संक्रांति

ये कहां टिड्डी दलों से आ गए हैं ?

आ गए हैं तो चलो पालक-पनीर बनवा रहा हूं

खाए पींए रहें क्वारंटाइन कुछ दिन

अब समय तो लगता ही है

यह कोई मत-महोत्सवथोड़े है पूरा हो दस दिन में

तिस पर इनकी एक ही रट

बस चिरौरी

आपसे हमको नहीं कोई शिकायत

नहीं मालिक अब हमें घर जाना है अपने

रक्खो अपने फंड-फाटे

हमको घर जाने दो बाबू

दिल हमारा फट गया है दूध सा

क्या करेंगे लेके हम पालक-पनीर

चार दिन की भूख के बदले

 

रो रहा था इसरो वाला

यान उसका बाल की मोटाई भर की दूरी से था राह भटका

रो रहा था एक वैज्ञानिक झार-झार

और इधर हंस रहा है डबल इंजन

चल रहा चौबीस घंटे देरी से अपनी पटरी पर ये पैदल इंडिया

ट्रेन गोरखपुर से भटकी जा लगी तट पर उड़ीसा के

बहुत मुश्किल है नियम  पालन कराना बिना मीसा के

 

रो रहीं सड़कें

हंस रहे हैं छाले पांवों के

 

हम कि जैसे वायरस हों इस शहर के !

छिन न जाए सल्तनत दिल्ली की इनकी

दिल का चोखा बना डाला है हमारे

इतने भारी हो गए दो जून अपने !

 

अभी जब अक्षत हैं अपने हांथ !

जब अभी भी फेफड़ों में इतनी ताकत है

कि अपनी आह से भसम हुइ जाए सार

पांव ही जब हैं हमारी बैलगाड़ी

 

था बहुत अभिमान श्रम पर

नरक में भी खा-कमा लेंगे चला कर हाथ अपने

और ठठा कर अपनी हड्डी

पेर कर जांगर

बहा कर सर से पांवों तक पसीना

हाथ काला करके भर देंगे उजाला घर की किस्मत में

था बड़ा अभिमान

टूटा ना गुरूर !

 

सिर्फ ताकत ही नहीं तय करती है सब कुछ

कुछ ये पृथ्वी तय करेगी

और कुछ पृथ्वी के नए मलिकार

तय करेंगे कैसा हो माहौल मौसम

कितनों को जिंदा है रखना और क्या हो न्यूनतम लागत

कितने जीते जी मरेंगे कोरनाकी मौत

बिना संसद तय करेंगे सांसद

 

कौन संसद ?

किसकी संसद ?

सिर्फ़ सिर्फ़ सड़कें !

 

सड़कें ही हैं धर्मशाला

सड़कों पर बिखरा निवाला

यह सड़क है या कि डफरिन अस्पताल

इन्हीं सड़कों पर कभी लगती थी संसद

इन्ही सड़कों ने किए पैदा हमारे रहनुमा

इन्हीं सड़कों पर हुई जचगी

कोख से सड़कों पर सीधे आ गिरे बच्चे

 

लस्त पड़ जाते हैं चउए तक मगर बज्जर की मां है

चल पड़ी फिर लड़खड़ाती खून से लतपथ

अपने आंचल में समेटे सांसों जितना गर्म

महकता प्राणों सा मांस का वह लोथड़ा

 

प्रार्थना में रत है पैदल इंडिया

पांवों पहुंचा देना मां को

थक न जाना रुक न जाना

गोद मां की भर गयी है

सड़क शुभ साइत है मां की

गांव पहुंचा देना मां को

 

गांव पहुंचेगी करेगी तेल-बुकवा और दिठौना अपने बाबू का

फिर बनेगा विश्व-गुरु

पांच ट्रिलियन वाला पैदल इंडिया

लेकर अपने पांवो का छाला ये पैदल इंडिया ।

 

( सम्पर्क-देवेंद्र आर्य, ए- 127 , आवास विकास कॉलोनी , शाहपुर ,गोरखपुर- 273006, मोबाइल : 7318323162 )