अपने ही देश में ‘ प्रवासी ’ कहलाने को विवश मजदूरों की कहानी

कृपाशंकर

कोविड-19 महामारी ने अपने देश में गरीबों, मजदूरों के साथ होने आले अन्याय, उपेक्षा को उघाड़ कर सबके सामने रख दिया है. विश्व के दूसरे देशों में भी उस तरह की दुर्दशा-आपदा मजदूरों को नहीं झेलनी पड़ी है, जैसी स्वयं अपने देश में झेल रहे हैं. किसी भी देश में उसके नागरिक भारत की तरह पुलिस, सरकारी तंत्र और सामाजिक नफरत के शिकार नहीं हुए.

अचानक बिना किसी प्लानिंग के लाकडाउन से सबसे ज्यादा मजदूर प्रभावित हुए.  मध्यमवर्ग और  उसके ऊपरी तबके के पास इस “सोशल डिस्टेंसिंग” के नाम पर शारिरिक दूरी बनाने का विकल्प था और वह सत्ता भक्ति करते हुए घरों में कैद हो गया। परन्तु इसी अभिजात्य व उच्च मध्यवर्ग ने अपने यहां कार्यरत मजदूरों को वेतन देने और आवास का किराया न माँगने के प्रधानमंत्री के आह्वान को नहीं माना।

अपने ही देश में रोजी-रोटी के लिए अपमानित होकर भी परिवार से सुदूर काम करने वाला मजदूर वर्ग  लंबी इंतजारी के बाद हजारों-हज़ार किलोमीटर पैदल, साइकिल , ठेला गाड़ी से  निकल पड़ा. अपने ही देश मे छोटे बच्चों से लेकर वृद्ध व्यक्तियों, बीमार व गर्भवती महिलाओं का पलायन जिस प्रकार हो रहा है, वैसा मानव इतिहास में विरला ही देखा गया है.

इस त्रासदी के दौर में हमने देवरिया जिले के मुसैला चौराहे पर  कुमार अजय, विश्वम्भर, राकेश सिंह, सूरज भान, विकास, राजेश, बृजेश, चतुरानन ओझा और विश्वम्भर-कुमार अजय की दुकान पर काम करने वाले श्रमिक साथियों की माद से मजदूरों के लिए राहत कार्य चलाया. उस दौरान सम्पर्क में आए इन मजदूर भाइयों में से कुछ की कहानी उनकी जुबानी सुन पाए. यहां मैं उनमें से ही कुछ की कहानी साझा करना चाहता हूँ.

23 मई, 2020 की शाम को अत्यंत दुबले पतले क्षीण काया के पिंटू मिश्रा साइकिल से लुधियाना से चले आ रहे थे. उनके थकने व पीड़ा की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. उन्हें कुर्सी पर ठीक से बैठा भी नहीं जा रहा था क्योंकि साइकिल की सीट पर बैठे-बैठे पैडल मारते रहने से उनका पिछला हिस्सा लगभग छिल गया था.  यह दशा उन सभी यात्री मजदूरों की है जो हज़ारों किलोमीटर साइकिल चलाते हुए आ रहे हैं. उन्हें हमने नहाने खाने की और रात में आराम करने की सुविधा दिया. जब पिंटू ने खाना खा लिया तो मैंने उनके बारे में बात किया.

पिंटू मिश्रा की उम्र लगभग 40 वर्ष की है. उनके पिता का नाम बरम दयाल था. उनका निवास ग्राम- अकासी, पोस्ट-गोकर, थाना-अगरेड, जिला- सासाराम, बिहार में है. पिंटू वर्तमान में मंडी गोविंदगढ़, जिला- फतेहगढ़, पंजाब से साईकल से आ रहे हैं और अपने गांव जाएंगे. इनको कुल लगभग 1250 किलोमीटर चलना है.

पिंटू बताते हैं कि वे मंडी गोविंदगढ़ में एक फैक्ट्री सूर्या फर्नेन्स प्राइवेट लिमिटेड में काम करते हैं. उसमें उन्हें 17000 रु. प्रति माह मिलता है. कंपनी में 40 मजदूर थे। जिनमें आधा कंपनी के और शेष आधे ठेकेदार के थे. लाकडाउन के बाद से कोई खर्च व राशन नहीं मिल रहा था.

उन्होंने आगे बताया कि यूपी के मजदूर पहले ही भागे. बिहार के मजदूरों को आने नहीं दिया जा रहा क्योंकि पंजाब में खेती के काम मे भी बिहार के मजदूर ही काम करते हैं. इसलिए वहां के बड़े किसान और राज्य सरकार उन्हें वापस नहीं जाने देना चाहती. उनके खाने और रहने की व्यवस्था भी वे नहीं करते और वापस गांव भी नहीं जाने देना चाहते. इसलिए उन्होंने पुलिस को लगा दिया है. पुलिस बहुत मारती है. इधर-उधर भगाती है. कैसे भी बिहार की तरफ जाने वाले मजदूरों को घेर कर वापस कर देती है. बचते-बचाते वापस आना पड़ रहा है. अभी भी हजारों मजदूर वहां फंसे हैं जो घर वापस आना चाहते हैं.

पिंटू सिर्फ पांचवीं तक पढ़ाई किये हैं. यह पूछने पर की पढ़ाई क्यों छोड़े तो बताते हैं कि मजबूरी थी. पिंटू के पिता बरम दयाल मिश्रा मंडी गोविंदगढ़ गए थे. वहां वे ओसियम रबर फैक्ट्री में काम करते थे. इसके अलावे दूसरे की सब्जी की दुकान पर भी काम करते थे. इस प्रकार कमाकर धीरे-धीरे वे वहां मकान भी बना लिए थे.

पिंटू ने बताया कि गांव में पिताजी के हिस्से लगभग 2 एकड़ जमीन है. हम 4 भाई हैं. दूसरे नम्बर का भाई डिस्टर्ब है. उसकी न शादी हुई न वह घर रहता है. इधर-उधर भागता रहता है. तीसरे नम्बर का मैं हूँ. चौथे नम्बर का भाई घर पर मां के साथ रहता है. उसकी अभी शादी नहीं हुई है. वह 31-32वर्ष का है. वह 10वीं तक पढा है. सबसे बड़ा भाई ही थोड़ा पढ़ पाया था. बीए तक. वे अभी मंडी गोविंदगढ़ में ही अपने परिवार के साथ रहते हैं.

पिंटू ने बताया कि सब कुछ ठीक चल रहा था. परन्तु अचानक उनके पिता की फैक्ट्री बन्द हो गयी और वे बेरोजगार हो गए. उसी समय पंजाब में लड़ाई भी तेज थी और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दंगे का भी माहौल था. जान जाने का भी डर था. हम सभी भाई बहुत छोटे थे. इसलिए पिताजी वहां का घर बेचकर वापस गांव में आ गए. गांव में खेती से जीना भी मुश्किल हो रहा था. इसलिए मैं पढ़ाई छोड़कर एक मोटर मेकैनिक के यहां काम करने लगा. बाद में शादी हुआ तो फिर बड़े भाई के पास मंडी गोविंदगढ़ जाकर एक फैक्ट्री में काम करने लगा. वहां 2000 रु. प्रतिमाह किराए पर एक रूम है. दस रु. प्रति यूनिट बिजली का चार्ज अलग से है. उनकी पत्नी बीमारी के कारण मर गयी. पिंटू की शादी 2011 में हुई थी. अभी उनके 8साल और 5 साल के दो बच्चे जिन्हें वे बड़े भाई के पास छोड़कर आ रहे हैं.

 

पिंटू बता रहे हैं कि पंजाब में अमरिंदर सरकार लोगों को आने देना नहीं चाहती. पर उनके खाने व रहने की व्यवस्था भी नहीं करती. बहुत बड़ा मुसीबत हम लोगों पर आ गया है. गांव में गुजारा नहीं हो पाएगा. हम कहां जाएं समझ नहीं आता.

पिंटू की तरह साइकिल से आने वाले बहुत मजदूर मिले. उनमें मधेपुरा बिहार के 13 बच्चे भी मिले जो बहुत कम उम्र से दिल्ली में लिपिस्टिक बनाने की कंपनी में काम करते हैं. 12 साल से 25 साल के बीच सबकी उम्र है. उनमें से कोई पढा लिखा नहीं. मात्र अक्षर पहचानने का थोड़ा अनुभव है. वे किसी तरह लाकडाउन में 2 महीना काटे. फिर घर से 5-5 हजार रुपये मंगाकर 4500 हजार रुपये प्रति साइकिल खरीदकर आ रहे हैं. ये सभी दलित भूमिहीन परिवार से हैं. इनका कहना था कि यदि उन्हें खाने को मिलता तो वे नहीं आते. उन्हें किसी भी सरकार ने राशन नहीं दिया. मध्यवर्ग को सौंदर्य प्रसाधन उपलब्ध कराने वाले इन बच्चे-नौजवानों का जीवन कितना कठिन है, इसका अहसास शायद मध्य वर्ग को हो .

यहां हमसे जितने श्रमिक मिले उनमें मुम्बई, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और छत्तीसगढ़ से आने वाले मजदूर भी थे. छत्तीसगढ़ से आने वालों को छोड़कर किसी ने नहीं बताया कि उन्हें एक टाइम का भी राशन मिला हो. हाँ, राशन और घर भेजने के संदर्भ में उनसे कई बार आधार कार्ड लिया गया और लाइन में लगाकर बिना वजह पुलिस से पिटवाया गया. उनका कहना है कि वे यह नहीं समझ पाते कि उन्हें किस गलती के कारण पीटा जा रहा है.

मुम्बई से आए हेमन्त ने बताया कि उसने 500 रु घूस आरपीएफ के जवान को दिया तो उसने उसे पनवेल में ट्रेन में बिठा दिया. ट्रेन में ठूस कर यात्री आ रहे हैं और ट्रेन साइकिल की रफ्तार से चल रही है. मुम्बई से 4 दिन लगा है और मात्र दो बार एक बार मध्यप्रदेश और एकबार बनारस में कुछ खाने को मिला है. महाराष्ट्र में एक जगह 4 घंटे धुप में ट्रेन खड़ी रही. वहां गांव वाले दूर दूर से पानी लेकर दिए. एक किसान ने पम्पिंग सेट से पाइप लगाकर पानी दिया. सभी यात्री उतरकर खूब हंगामा किए. दूसरी पटरी पर भी मालगाड़ी को हम लोगों ने घंटों रोका. फिर भी 4 घंटे गाड़ी वहीं खड़ी रही. बहुत कठिनाई से आ पाए हैं.

पीड़ादायक कहानियों का अंत नहीं. हमें ठेले पर पूरे परिवार को ढोते हुए आजादनगर मार्किट दिल्ली से आने वाले लोग भी मिले. साथ मे खाना बनाने के समान के साथ. उनका तो ठेला ही घर है. बच्चे, पति-पत्नी के साथ. इनके लिए सोशल डिस्टेंसिंग जातिगत भेदभाव है और शारीरिक दूरी तो सिर्फ मज़ाक.
हमारे देश की असली निर्माता यह श्रमिक आबादी आज इतनी असहाय स्थिति में ढकेल दी गयी है.

हमारे देश के राजनेता, सत्ता के चाटुकार बुद्धिजीवी, असुरक्षा बोध से ग्रसित मध्यवर्ग के बड़े हिस्से ने कोरोना के भय से अपने को घरों में कैद कर लिया। देश की सुप्रीम अदालत ने चुप्पी साध ली। कोई भी धन्नासेठ, राजनेता या साधन संपन्न इस मानव त्रासदी में सामने नहीं आया. उस समय मजदूर वर्ग ने इस परपीड़ा में आनंद लेने वाली सत्ता की ताकत के सामने झुकने और उसके आदेश को मानने से मना कर दिया। जब उनसे कहा गया कि जो जहां है वहीं रुक जाय तो इस सबसे आत्मनिर्भर वर्ग ने अपने हाथों और पैरों पर भरोसा किया.

इस अत्याधुनिक युग में जब लोग दस कदम की दूरी भी पैदल नहीं चलना पसन्द करते, वह हज़ारों किलोमीटर की दूरी अपने पैरों से नापने निकल पड़े. नन्हें पैर, बूढ़े पैर, गर्भवती महिला का पैर, बिना जूतों-चप्पलों के पैर। गर्म कोलतार पर, प्लास्टिक के बोतलों को चप्पल बनाकर चल दिए. कुछ साइकिल से, कुछ पैदल, कुछ ठेला से. उन्होंने मानव द्रोही निकम्मे शासकों को दिखा दिया कि उनके हाथ और पैर आज भी असंभव से लगने वाले कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं. यह देखकर आभास हुआ कि इस श्रमिक वर्ग ने कैसे बिना जेसीबी, क्रेंनों और आधुनिक औजारों के चीन की दीवार, मिश्र के पिरामिड, आगरे का ताजमहल जैसे अजूबों का निर्माण किया होगा. उन्होंने यह साबित कर दिया कि महामारी या कोई भी विपदा मानव को हाथ पर हाथ धरे बैठने से नहीं हल हो सकती.

(लेखक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं )