पी एन भाई : मजबूत इरादों वाला ट्रेड यूनियन लीडर

वेद प्रकाश 

पी एन भैया यानि कि पी एन श्रीवास्तव, जिनको पिछले दिनों कोविड काल ने अपने गाल में समाहित कर लिया । यूॅ तो बहुत लोग इस महामारी के शिकार हुए लेकिन कुछ लोग अपनी छाप यूॅ ही धरती पर बिखेर जाते हैं, और लेखक मन लिखने को बेचैन हो जाता है।

हमारी मुलाकात पी एन भैया से मिर्जापुर से आने के तुरंत बाद शायद वह 1989 का वर्ष रहा होगा । मैं यूॅ तो प्रशासनिक कार्यालय में था लेकिन कभी कदा अपना भुगतान लेने मुख्य शाखा आना ही होता था । इसी बीच पी एन भैया से भेंट हो जाती और कभी न भूलने वाली कुछ बातें या उनकी कुछ आकृतियाॅ या उनके कुछ दैनिक कार्य यूॅ ही स्मृति के हिस्सा हो जाते थे। जब वे मिलते थे तब एक नये रूप में एक नये तरीके से लेकिन, सहजता एवं सरलता तथा अथाह चुप्पी सबके लिए एक समान होती थी। उनके पास किसी के लिए कुछ या किसी के लिए कुछ नहीं होता था । सबको एक बराबर और सबके साथ एक जैसी मुस्कान देते थे ।

अभी तक मैं ट्रेड यूनियन में कुछ नहीं था, लेकिन, मेरे मन में ट्रेड यूनियन को ले कर तमाम तरह के सवाल उभरते थे । लेकिन, कुल मिला कर ट्रेड यूनियन का जो मतलब मैं तब समझ पाया था वह ये कि लोगों को सुगमतापूर्वक कार्य करने का वातावरण एवं लोगों के साथ अन्याय का हर हाल में प्रतिरोध। आज भी लगता है, जो मैं तब समझता था वह आज भी उचित ही है । लेकिन, वह दौर समझौतों से अलग होता था, संबंधों पर पूरी तरह आश्रित था। नेता जी जो कह देते थे, वह पत्थर की लकीर हो जाती थी। प्रबंधन नेता जी की बातों को तरजीह देते थे। तो पी एन भाई हमारे ऐसे ही कुल मिला कर एक नेता होते थे और आगे चल कर लखनऊ मण्डल के उपाध्यक्ष हुए।

लोग बदल गए लेकिन पी एन भाई अंत तक नहीं बदले । कुछ सैद्धान्तिक बातें अपने अंदर सजोये रहते थे, जिन्हें जाहिर करना उनके वसूलों के खिलाफ था लेकिन जब प्रबंधन के समक्ष होते तो अपने वसूलों पर टिके रहना उनका पहला कर्तव्य हो जाता था ।

यूॅ तो हम लोग भारतीय स्टेट बैंक से जुड़े थे । लिहाजा, बैंकिंग कल्चर अन्य जगहों की अपेक्षा भिन्न थी । ज्यादे विवरण में न जा कर सिर्फ यह कह देना कि समय का पर्याप्त ध्यान देना प्रमुख होता था तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । इसी तरह बैंक के लोगों का जीवन बॅध जाता था, और कहीं भी कोई बैंक का कर्मचारी होता तो समय उसके लिए प्रमुख हो जाता था। लेकिन, अनहोनी एवं अजनबियत या कुछ खासपन जरूर कहीं न कहीं या लगभग सभी जगह कमोबेश होती है ।

भारतीय स्टेट बैंक इससे अछूता नहीं था, लेकिन, फिर भी पी एन भाई इससे घबराते कभी नहीं दिखे। उन्होने अपने समय का डट कर और शांतिपूर्वक मुकाबला किया। जब बात से समाधान नहीं निकला तो आंदोलन एवं संघर्ष का रास्ता भी चुनने से नहीं चूके ।

यदि हम अपने समय से पी एन भाई के समय की तुलना करें तो हम पाते हैं कि हमारा समय संपन्न होते हुए भी बहुत कमजोर एवं निरीह है। लोगों से कहते रहिए अपनी बात लोग आपकी बात सुनते ही नहीं। आपको अपनी बात को समझौतों तक लाने के लिए आपको ही पीछे हटना पड़ता है, और बलि कर्मचारी की चढ़ती है। अजीब स्थिति होती जा रही है । ट्रेड यूनियन से जुडे़ लोग भली-भाॅति जानते हैं कि रिस्क लेने का समय नहीं रहा, इसी लिए जैसा चल रहा है, वैसा चलने देने में या धारा के साथ बहने में ही श्रेयस्कर समझते हैं । कर्मचारी भले अपने स्तर से कोई काम करवा ले, तो ठीक, यदि यूनियन से जुड़े लोग पैरवी में गये तो निश्चित है कि उसका काम बाधित होगा । कितनी विडंबना है कि रहनुमाई मुश्किल दौर में है और रहनुमा ड्राइंगरूम में व्यस्त है ।

पी एन भाई का भरोसा कर्मचारी होते थे, कर्मचारियों से जुड़ी समस्याएं होती थी। संघर्ष का रास्ता और प्रतिरोध की कड़ी हमेशा बनी रही। पी एन भाई हमेशा कर्मचारियों के बीच ही उनकी समस्याओं को ले कर डूबते-उतराते मिलते। पी एन भाई के पास आश्वासन तो था लेकिन समाधान का भी रास्ता वे रखते थे। जो लेाग मजबूत इरादों में एवं दृढ विश्वास वाले होते हैं, उन्हें प्रकृति भी छूट नहीं देती। जो लेाग अपने लोगों से जुड़े रहे, वे अलग-थलग हो ही नहीं सकते। प्राकृतिक सीमाएं सबकों बांधती रहती हैं । पी एन भाई भी इससे अछूते नहीं रहे।

महामारी का काल सबके सिर पर मॅडरा रहा है, जो बच जाते हैं वे अपने को भाग्यशाली समझते हैं लेकिन, मेरा व्यक्तिगत रूप् से तो यह मानना है कि जिनका जीवन दूसरों की मदद में आहूत हो गया, उनका जीवन ज्यादे महत्वपूर्ण है। आदमी के जीवित रहने का मकसद होना चाहिए । वह मकसद यह कि एक जीवन दूसरे के जीवन के लिए समर्पित हो । यह जीवन का अंतिम लक्ष्य होता है । महान लोक यहीं पर सामान्य लोगों से अलग हो जाते हैं और जीवन भर उनका पड़ोसी उन्हे समझ नहीं पाता है । उसके सिद्धांत, सिद्धांत हो जाते हैं, किसी को जीवन देने के लिए ।

पी एन श्रीवास्तव अर्थात पी एन भाई अर्थात पी एन भैया हमारी स्मृतियों में धरोहर हो चुके हैं । जो लोग दूसरे के लिए जीवित रहते हैं, उन्हीं का जीवन अनंतकाल तक जीवन बना रहता है । जीवित रहने का इससे बड़ा सिद्धांत दुनिया में नहीं है । मैं आज सिर्फ यह कह सकता हूॅ:-

एक दरिया है यहाॅ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजूओं को देख पतवारें न देख

 

 

( लेखक स्टेट  बैंक आफ इण्डिया स्टाफ एसोसिएशन , गोरखपुर के क्षेत्रीय सचिव हैं। वे जनवादी लेखक संघ से भी जुड़े हुए हैं )