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कल दुनिया के लब पर होगी, आज जो नज़्म सुनाता हूं …. एम कोठियवी राही 

मोहम्मद फर्रूख़ जमाल 

आया हमारे देस में एक ख़ुश-नवा फ़क़ीर ।
आया और अपनी धुन में ग़ज़लख़्वां गुज़र गया ।।
थी चंद ही निगाहें जो उस तक पहुंच सकीं ।
पर उसका गीत सबके दिलों में उतर गया ।।
गोरखपुर की उर्दू अदबी तारीख़ बहुत पुरानी ना सही,  लेकिन मज़बूत ज़रूर है।
मजनू गोरखपुरी, मुंशी प्रेमचंद, फिराक़ गोरखपुरी, मेहंदी अफादी और इन जैसी उर्दू की बहुत सी बा-कमाल हस्तियों के इस शहर गोरखपुर में शेर ओ शायरी अदबी महफिलों और मुशायरा का चर्चा हमेशा आम रहा है ।
गोरखपुर की इस अदबी फिज़ा को जिन लोगों ने अपने ख़ून ए जिगर से जिंदा रखा और आने वाली नस्लों तक मुन्तक़िल (हस्तांतरित) किया है। उनमें एक बड़ा नाम शायर, अफसाना निगार और सहाफी जनाब एम.कोठियावी राही का है।
एम.कोठियावी राही का शुमार उर्दू अदब के मशहूर तरक़्क़ी पसंद शायरों और अदीबों में होता है। राही के पुरखे ईरान से हिजरत (अपना देश छोड़कर दूसरे देश में बसना  ) करके हिंदुस्तान आए और दिल्ली में कुछ समय के लिए ठहरे। इसके बाद दिल्ली से आज़मगढ़ का रुख़ किया और यहां कोठिया नामी जगह पर आबाद हो गए।उनके वालिद सैयद अब्दुल हमीद एक अल्लाह वाले बुज़ुर्ग थे और आसपास के इलाक़े में उनकी दीनी और इलमी शोहरत का चर्चा आम था। राही की वालिदा भी एक अल्लाह वाली ख़ातून थीं। राही अपनी वालिदा से बेपनाह अक़ीदत और मोहब्बत रखते थे। वालिदैन ने उनका का नाम मोहम्मद रखा।
एम कोठियावी राही, शायर और अदीब होने के साथ-साथ एक क़लंनदराना सिफत नेक इंसान थे। सन् 1953-54 का समय था, जब एम.कोठियावी राही, गोरखपुर की अदबी फिज़ा पर नमूदार (प्रकट) हुऐ। यह वो ज़माना था जब गोरखपुर की अदबी फिज़ा पर हिंदी गोरखपुरी, रंग बहादुर लाल जिगर , फ़िराक़ गोरखपुरी, नूर गोरखपुरी, ईश्वरी प्रसाद गोहर,मास्टर निसारूल्लाह निसार, ओबेदुल्ला महशर, अब्दुर्रउफ तमीमी , आरिफ तमीमी और उमर क़ुरैशी जैसी बा-वक़ार शख्सियतों से गोरखपुर की अदबी दुनिया, जीती जागती , फ्आल और सरगर्म थी।
एम.कोठीयावी राही ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था “मुझे अच्छी तरह याद नहीं आता कि लिखना कब शुरू किया,अलबत्ता यह कह सकता हूं कि जब से होश संभाला है लिख रहा हूं और कह रहा हूं “। राही का शऊर इस क़दर पुख़्ता था कि वह फरमाते हैं “मेरी शुरू से यह कोशिश रही कि मेरा रास्ता सबसे जुदा, सबसे अलग और मुख़्तलिफ हो। इसके सबब तख़लीक़ के माहौल में अजनबियत भी मिलेगी। मगर यह अजनबियत मुझे अज़ीज़ है। अदब को खानों में बांटने वाले चाहे मुझे नजरअंदाज ही क्यों ना कर दें।
राही तरक़्क़ी पसंद जरूर थे लेकिन मुनकिर नहीं थे। उन्होंने जब अपना क़लम उठाया तो ग़ज़ल, नज़्म ,अफसाने खाक़े और रेडियाई ड्रामे हर सिन्फ में अपनी ख़ल्लाक़ी का जौहर बिखेरा।
चंद अशआर देखिए ….
मंज़ूर था सवारी ए सुल्तां गुज़ारना
सारे फ़क़ीर राह से हटवा दिए गए ।।
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किसी बहाने ज़रा देर को मैं खुश हो लूं
फरेब ही अगर देना तो सुनहरा देना।।
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तेरे ख़्याल से जब दिल बहने लगता है
इक-इक करके हर एक ख़्वाब जलने लगता है ।।
एक ग़ज़ल के कुछ शेर मुलाहिज़ा हों ….
ला के तहरीर में प्याम तेरा
सख़्त नादिम हूं लिख के नाम तेरा ।।
 
हम कहानी सुना के चल देंगे
तज़्किरा होगा सुब्ह-शाम तेरा ।।
 
अब जब उठता है मेरे दिल में दर्द
याद आता है इंतक़ाम तेरा ।।
 
 बंद है आज तक ज़ुबां मेरी
और खंजर है बे न्मयाम तेरा ।।
 
होंगे आकाश पर क़दम राही
फूल चूमेंगे जब कलाम तेरा ।।
किताबी चेहरा,  रोशन आंखें, सफेद बाल,  सर पर रुमाल बांधे हुए, सफेद कुर्ता पजामा पहने, बगल में अखबारों का बंडल दबाए , एक हाथ में झोला जिसमें चाय की केतली और कुछ सामान, दूसरे हाथ में सिगरेट। तेज़ तेज़ क़दमों से दफ्तर इश्तराक की तरफ बढ़ते हुए राही साहब रोज़ ही नज़र आते थे ।
गोरखपुर शहर के मोहल्ला काज़ीपुर ख़ुर्द में जनाब शौकत अली ख़ान के मकान के बाहरी कमरे में, राही साहब का दफ्तर ए इश्तराक था। यह सिर्फ एक अखबार का दफ्तर नहीं था बल्कि शहर के और शहर से बाहर के आने वाली अदबी शख़्सियतों  के लिए अदब का मरकज़ था। जहां लोग हर रोज़ इकट्ठा होते और अदब पर गुफ्तगू होती। इसी दफ्तर ए इश्तराक में बैठकर कितने शायर, अदीब और अफसाना निगार हो गए , और कितनों ने इसी जगह बैठकर अपनी पूरी पी.एच.डी मुकम्मल कर ली।
एम कोठियावी राही तमाम उम्र जिंदगी की आज़माइशों से दो-चार, रहे लेकिन क्या मजाल थी कि मौज ए बलाख़ेज़ उनकी शख़्सित में तराश ख़राश पैदा कर सके। कभी किसी ने उनके चेहरे पर तशवीश और ना ख़ुशगवारी के जज़्बात नहीं देखे ।उन्हें अपने अल्लाह पर कामिल यक़ीन था।
 फरमाते हैं-
यह और बात है हर काम पर है मेहरूमी
यह और बात है दुनिया तेरी है ला-हासिल
यह और बात है यह जिंदगी है ला-हासिल
के तीरगी है अटल रोशनी है ला-हासिल ।।
 
हज़ार शुक्र तेरा ए ख़ुदा ए कौनो मकां
के इस वजूद ए अलम का भी तू ही ख़ालिक़ है
तेरे जहां की नज़र से गिरा हुआ हूं मगर
यह कम नहीं है कि फिर भी तेरी नज़र में हूं
कोई उठा नहीं सकता कि रह गुज़र में हूं ।।
एम कोठियावी राही एक नेकदिल और मोहब्बत करने वाले इंसान थे। लिहाज़ा अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने भी उन्हें बहुत आज़माइश में नहीं डाला। सिर्फ एक हफ्ते की मामूली सी अलालत में , जो ना होना था वह सब हो गया। जब उनसे मुलाक़ात करने उनकी क़्याम गाह पर गया ….. तो उन्होंने यह शेर उन्होंने पढ़ा था ।
चंद नफस की बात और है
मेहमान हूं कुछ लम्हों का
कल दुनिया के लब पर होगी
आज जो नज़्म सुनाता हूं ।।
सच भी यही है, राही साहब सुना रहे थे और दुनिया बड़े ग़ौर से सुन रही थी।… लेकिन फिर यूं हुआ कि ” हमें सो गए दास्तां कहते कहते ” । 
मौत सबसे बड़ी हक़ीक़त है। 21 सितंबर सन् 2005 (बुधवार) को जब मौत ने उन्हें आवाज़ दी, तो वह हम सब से यूं जुदा हो गए जैसे दिये से लव जुदा हो जाती है। राही अपनी धुन में मस्त गुनगुनाते हुए उस रस्ते पर चल पड़े, जहां से लौटकर कोई वापस नहीं आता है। बक़ौल राही साहब ……..
 
मौत के साए में सुख मिल जाएगा
जिंदगी राही से जब कतरायगी
गाहे गाहे हमसे मिल लेना ज़रूर
जिंदगी वर्ना बहुत घबराएगी ।
( लेखक मोहम्मद फर्रूख़ जमाल  युवा लेखक, संस्कृति कर्मी  और आकाशवाणी गोरखपुर में कार्यक्रम प्रस्तोता हैं ।  संपर्क – नई कॉलोनी चिल्मापुर , गोरखपुर, मोबाइल : 9336351019, farrukhjamal456@gmail.com )