सत्ता के खिलाफ परमानेंट आवाज थे मारकंडेय प्रसाद सिंह

आलोक शुक्ल 

मास्साब आप भी चले जाएंगे, ये कभी सोचा नहीं था। सोचा तो किसी के लिए नहीं था पर लोग गए ही। लेकिन आपका इस तरह धीरे से चले जाना भीतर तक जख्म कर गया है।
मास्साब यानी मारकंडेय प्रसाद सिंह। पूरा शहर मास्साब के नाम से ही जानता पहचानता था। बहुमुखी प्रतिभा वाले जिंदगी में बेहद सक्रिय इन्सान रहे मास्साब।
शिक्षक, पत्रकार, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और सबसे बढ़कर आन्दोलकारी तबियत के नौजवान थे। हाँ, करीब सत्तर की उमर में भी नौजवान ही थे। शहर में कहीं कोई घटना हुई, किसी के पीड़ा में होने की खबर मिली, मास्साब वहां सबसे पहले पहुंचने वालों में होते। जिले का कोई आंदोलन, धरना प्रदर्शन इनके बिना अधूरा होता था। सत्ता के खिलाफ वे परमानेंट आवाज थे। शहर में कई आंदोलन तो अकेले मास्साब ने ही शुरू किये कराये।
अभी वे बसपा के नगर अध्यक्ष थे। इसके पहले बरसों कांग्रेस में साथ रहे। हम और मास्साब जिला कमेटी में सात आठ साल साथ रहे। वे माध्यमिक शिक्षक संघ के दो बार जिलाध्यक्ष रहे। वर्ष  2012 में शहर से विधानसभा का चुनाव लड़े। बहुत पहले जनता दल में भी रहे।  शोषण अन्याय पीड़ित के सवाल पर दलीय परिधि कभी स्वीकार नहीं की। पार्टी के भीतर हो या बाहर, कहीं भी किसी के साथ अन्याय होता देखते तो सामने आ जाते। मोर्चा संभाल लेते। अन्यायी कौन है, कितना ताकतवर है, अपना है या पराया, इसकी परवाह नहीं करते। हालांकि इसी नाते कई बार राजनीतिक नुकसान भी उठाया पर पीछे हटना कभी नहीं स्वीकारा।
मास्साब अभी एक सांध्य अखबार निकालने की योजना पर काम कर रहे थे। इसके लिए करीब महीने भर पहले मेरे ऑफिस आये और विस्तार से चर्चा की। योजना पर काम आगे बढ़ता कि कोविड-19 का दूसरा बेहद खतरनाक दौर आ गया और सब कुछ छिन्न-भिन्न कर गया।
मास्साब का जाना एक व्यक्ति का जाना नहीं है, आन्दोलन की एक पूरी परंपरा का जाना है। जोर जुलुम अन्याय, शोषण पीड़ा के खिलाफ मुखर आवाज का शांत हो जाना है। ये शहर आपको भूल न सकेगा। जब जब कोई मजलूम सताया जाएगा, जब भी कोई अन्यायी शासक सत्ता के मद में चूर होकर जुलुम के रथ पर सवार होगा, जब भी कोई प्रशासनिक अफसर ताकत के नशे में डंडा भांजने की जुर्रत करेगा, तब तब ये शहर आपको याद करेगा। शिद्दत से याद करेगा मास्साब।
भावभीनी श्रद्धांजलि।
(लेखक आलोक शुक्ल वरिष्ठ पत्रकार हैं )