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प्रेमचंद ने अपने समय और इतिहास के बड़े प्रश्नों से मुठभेड़ की : प्रो अनिल राय

प्रेमचंद जयंती पर पत्रिका ‘ कर्मभूमि ‘ का लोकार्पण और संगोष्ठी हुई
गोरखपुर। प्रेमचंद साहित्य संस्थान ने  प्रेमचंद जयंती पर प्रेमचंद पार्क में ‘ प्रेमचंद और हमारा समय ‘ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया। इस मौके पर संस्थान द्वारा प्रकाशित अर्धवार्षिक पत्रिका कर्मभूमि के आठवें व नवें अंक का लोकार्पण किया गया।
संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कथाकार प्रो रामदेव शुक्ल ने कहा कि प्रेमचंद ने 1925 से 1935 तक ‘ रंगभूमि ’ और ‘ गोदान ’ लिखते हुए किसान संकट के यर्थाथ की रचना की और और आगे की स्थिति की कल्पना की, वह आज देखी जा रही है। खेतीबारी से किसी तरह का वास्ता न रखने वाले पूंजीपति आज किसान की पूरी उपज का मालिक बन बैठे हैं और उसका कारोबार कर मुनाफा पीट रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद को समझने के लिए अपने का देखने के साथ-साथ समय को पहचानना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद हर पीढ़ी के लिए पसंदीदा रचनाकार रहे हैं। वह इसलिए है क्योंकि उन्होंने वह लिखा जिसे लिखे बिना वह रह नहीं सकते। जब ऐसी रचना सामने आती है तो लोग उसे पढ़ने के लिए मजबूर होते हैं और ये रचनाएं पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को प्रभावित करती हैं।
गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो अनिल कुमार राय ने कहा कि हर लेखक की पहचान कुछ बड़े मानदंडों से होती है जिसमें यह देखा जाता है कि लेखक ने अपने समय और इतिहास के बड़े प्रश्नों से मुठभेड़ की कि नहीं। प्रेमचंद ऐसे लेखक हैं जिन्होंने अपने समय के जनता के दो सबसे बड़े शत्रुओं सामंतवाद और साम्राज्यवाद को ठीक से देखा, उनके अंतर्विरोधों पहचान की और उसका जवाब दिया। प्रेमचंद ने अपने विचारों, साहित्य व जीवन से भौतिक-आर्थिक छल-छद्म की दुनिया से सघर्ष किया।
उन्होंने कहा कि आज हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिसमें मनुष्य के सामने बहुत बड़ी दुश्वारियां हैं और जिसका सामना करने मंे वह लहूलुहान हो रहा है। हम लोगों की आस्था, विश्वास, साहित्य व विचार के केन्द्रों पर हमला हो रहा है। इसका मुकाबला करने के लिए जनता के लोगों को अपने नायकों को लेकर आगे बढ़ना होगा।
कफन कहानी को लेकर उठी बहस में हस्तक्षेप करते हुए उन्होंने कहा कि इस कहानी को विडम्बना की कहानी के साथ-साथ मानवीय त्र्रासदी और अमानवीकरण के बतौर भी व्याख्या की गई है। उन्होंने ‘ कफन ’ कहानी को अयर्थाथवादी शिल्प में रचे जाने वाली यर्थाथवादी कहानी के बतौर मूल्यांकन करने पर जोर देते हुए कहा कि बस्तु-रूप के बीच द्वंदात्मक एकता और अविभाज्य सम्बन्ध के रिश्ते को समझना होगा नहीं तो भीतरी अर्थ को समझने में दिक्कत होगी।
गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर रामनरेश ने कहा कि प्रेमचंद हमारे साहित्यिक विरासत के ऐसे प्रतीक हैं जिन पर बात किए बिना हम सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या पर विचार नहीं कर सकते। प्रेमचंद अपने समय में सांस्कृतिक-साहित्यिक अभिव्यक्ति के जरिए दुहरी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। आज हमारे सामने उस अर्थ में दुहरी आजादी की लडाई नहीं है लेकिन आंतरिक उपनिवेश कायम है। उन्होंने ‘ कफन ‘ कहानी सहित प्रेमचंद की दूसरी कहानियों को लेकर को लेकर अस्मिताओं की तरफ से आने वाले सवालो को को धैर्य व विवेक के साथ स्वीकार करने की बात कहते हुए कहा कि ऐसा कर हम प्रेमचंद की विरासत के साथ सही न्याय कर सकते हैं।
प्रो असीम सत्यदेव ने ‘ सोजे वतन ’ के जब्ती का जिक्र करते हुए कहा कि आज आजाद मुल्क में में भी किसानों, मजदूरों के लिए आवाज उठाने पर पहरे बढ़ते जा रहे हैं। जिस तरह प्रेमचंद ने अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरे उठाए, हमें उनसे प्रेरणा लेनी होगी।
संगोष्ठी में आए लोगों का स्वागत करते हुए प्रेमचंद साहित्य संस्थान के सचिव प्रो राजेश मल्ल ने कहा कि प्रेमचंद भारत के किसानों के सबसे शानदार लेखक हैं। वे अपने समय की सबसे बेलौस आवाज हैं, इसलिए प्रेमचंद को याद करना, उनके चिंता का देखना और समझना बहुत जरूरी है।
संगोष्ठी का संचालन संस्थान के पूर्व सचिव मनोज कुमार सिंह ने किया। इस मौके पर राजाराम चौधरी, राजेश सिंह, आनंद पांडेय, राजेश साहनी, रामकिशोर वर्मा, सुजीत श्रीवास्तव, श्रवण कुमार, बैजनाथ मिश्र, रिषभ सिंह सहित दर्जनों लोग उपस्थित थे।

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