साहित्य - संस्कृति

जफर गोरखपुरी : उर्दू गजल में एक हल्की ठण्डी ताजा हवा

अशफ़ाक़ अहमद

गोरखपुर, 1 अगस्त । जफर गोरखपुरी का ताल्लुक उसी सरजमीन से है जहां से फिराक और मजनू जैसी शख्सियत ने जन्म लिया। जिस मिट्टी की सोंधी-सोधी खूश्बूओं का एहसास हमें प्रेमचन्द के अफसानों से मिलता है, वही एहसास जफर की शायरी में भी मिलते हैं। उन्होने गांव की मासूमियत, शहर की जिन्दगी की हकीकत को जुबान देकर उर्दू शायरी को एक नयी पहचान अता की।

जफर गोरखपुरी का जन्म 5 मई 1935 को ग्राम बेदौली बाबू तहसील बांसगांव, गोरखपुर में हुआ था। नौ वर्ष की उम्र में उनके मां-बाप उन्हें मुम्बई लेकर आये तब से वह यहीं के होकर रह गये। यहां वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। यूं तो उन्होंने 17 साल की उम्र यानि 1952 में ही शेर कहना शुरू कर दिया. जफर की ये खुशनसीबी भी है कि उन्होंने उस दौर के मशहूर शायरों फिराक, जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी तथा मेज़ाज लखनऊ जैसों से अपने कलाम की दाद वसूल की.  22 साल की उम्र में जब उन्होंने फिराक साहब के सामने एक मुशायरे में गज़ल पढ़ी –

मयकदा सबका है, सब हैं प्यासे यहां

मय बराबर बटे, चारसू दोस्तों।

चंद लोगों की खातिर जो मखसूस हो,

तोड़ दो ऐसे जाम-ओ सुबु दोस्तों।।

सारी महफिल वाह वाही से गूँज उठी और उसी वक्त फिराक साहब ने ये एलान कर दिया कि ये नौजवान आगे चलकर एक बड़ा शायर बनेगा। उसे वक्त जफर की शायरी में शोले बरस रहे थे, फिराक साहब ने उनकी शायरी की तारीफ की साथ ही उसके साथ उन्हें तरक्की पसन्दों के परम्परागत अन्दाज से बाहर निकलने की हिदायत भी दी। उन्होंने समझाया कि आज का युग विज्ञान दर्शन और तकनीकि युग है। शिक्षितों के युग में कबीर नहीं पैदा हो सकते इसलिए वाहवाही से बाहर निकलो फिराक साहब की नसीहत का बहुत गहरा असर उन पर पड़ा वे संजीदिगी से शायरी में जुट गये। उर्दू के पद्मश्री डा0शम्सुर्रहमान फारूकी ने लिखा है कि जफर गोरखपुरी की ही बदौलत उर्दू गजल में पिछली कई दहाइयों से एक हल्की ठण्डी ताजा हवा बह रही है।

जफर की शायरी शहर और गांव के दरम्यान बस जाने वाले ऐसे नौजवान की शायरी है जो आर्थिक तंगी से घबराकर रोजगार की तलाश में बीवी बच्चों की खुशहाली के लिए परदेश की खाक छानता है। वतन से दूर महानगरों की भागदौड़ जिन्दगी, जात-पात के झगड़ों, टुकड़ों में बंटे हुए इंसान, कारखानों और मशीनों का बोझ दुनिया इंसानी कदरों की गिरावट इन सब अजाब में उलझ कर उसे अपने गांव की सुकून भरी जिन्दगी खेत, खलिहान, पेड़ पौधे अपनी मासूमियत के साथ आकर्षित करते हैं।

सालिम था अपने गांव की कच्ची सड़क पे मैं।

टुकड़ों में किसने बांट दिया मुम्बई से पूछ।।

पक्की सड़क, भरे बाजार, चमकती गलिया।

दोस्त सब कुछ है मगर चैन कहां बस्ती में।।

मैं जफर ता जिन्दगी परदेस में बिकता रहा।

अपनी घर वाली को इक कंगन दिलाने के लिए।।

ये लोग कैसे अचानक अमीर बन बैठे।

ये सब थे मेरे साथ भीख मांगने वाले।।

जुदाई पी गयी बीवी के रूखसारों की शादाबी।

खुशहाली लेकर जब तलक मैं समुन्दर पार से आता।।

जफर ने परम्परागत अन्दाज में शायरी नहीं की और न ही किसी बड़े शायर की भाषा शैली को अपनाया। उन्होंने फन के वसूलों से कभी समझौता नहीं किया यही वजह है कि जब एक गीतकार के रूप में फिल्मी गानों के साथ रूपहले परदे पर नजर आये तो वहां भी वह नयी सोच और बुलन्द आवाज की बदौलत  पहचान अलग बनायी। हांलाकि जफर ने बहुत ज्यादा फिल्मी गीत नहीं लिखे लेकिन कम लिखने के बावजूद उन्होंने जो गीत भी लिखे वह सुनने वाले को एक नयी ताजगी की अनोखी मिसाल का एहसास करा जाते हैं।

माजी के दरीचों से अगर देंखे तो फिल्म बाजीगर का गीत ‘ किताबे बहुत से पढ़ी होगी तुमने ‘ , जान तेरे नाम का गीत ‘ जब कालेज बंद हो जायेगा ‘, नूरे इलाही फिल्म की कव्वाली ‘ बड़ा लुत्फ था जब हम कुंवारे थे हम तुम ‘ आज भी उतने की प्रसिद्ध है जितने उस जमाने में थे।

जफर गोरखपुरी के पौत्र नूर आलम और उनके मित्र राशिद इकबाल ने बताया कि जफर की गुजिस्ता 50 वर्ष में कई काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। जो क्रमशः ‘ तीश 1962, बादिये संग 1975, आर पार का मन्जर 1997, हल्की ठण्डी ताजा हवा 2009, उनकी उपलब्धियों की बदौलत महाराष्ट्र उर्दू अकादमी ने उन्हें राज्य पुरस्कार 1993 तथा इम्तेयाजे मीर अवार्ड लखनऊ तथा युवा चेतना गोरखपुर की जानिब फिराक सम्मान 1996 से नवाजा जा चुका है। इसके अतिरिक्त उन्होंने 1997 में अमेरिका की यात्रा भी की और अन्तर्राष्ट्रीय मुशायरों में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया.

उनके निधन पर साहित्यकारों. शायरों ने गहरा शोक व्यक्त किया है. शायर कलीम कैसर ने कहा कि जफर गोरखपुरी को शायरी विरासत में मिली। अदबी दुनिया में उनका मुकाम कोई भी हासिल नहीं पायेगा। नौजवान शायर दिलशाद गोरखपुरी ने कहा कि यूं तो मेरी बात उनसे उनके बेटे के जरिये कई बार हुई लेकिन दिली ख्वाहिश थी उनसे मुलाकात की जो अब पूरी नहीं हो पायेगी। उन्हीं के गांव में तैनात उर्दू के शिक्षक मोहम्मद राशिद ने कहा कि जफर गोरखपुरी से मेरी बात अक्सर फोन से हुआ करती थी जब उनको मालूम हुआ कि मैं उनके गांव में पोस्टेड हूँ  और अदबी दुनिया से ताल्लुक रखनता हूँ. उनकी दिलचस्पी ऐसी हुई कि अक्सर अपने गांव की हाल चाल लेने के लिए खुद ही फोन करते थे।

 

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