साहित्य - संस्कृति

गहरा राजनीतिक उपन्यास है ‘ आहत नाद ’

गोरखपुर। जन संस्कृति मंच की गोरखपुर इकाई द्वारा 30 अप्रैल की शाम गोरखपुर जर्नलिस्ट्स प्रेस क्लब में वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन के उपन्यास ‘आहत नाद ’ पर बातचीत का कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम का प्रारम्भ उपन्यास ‘आहत नाद ’ के लोकार्पण से हुआ।
कार्यक्रम में नहीं पहुंच पाए कथा आलोचक सुधीर सुमन की उपन्यास पर टिप्पणी को मनोज कुमार सिंह ने पढ़ा। इस टिप्पणी में सुधीर सुमन ने कहा कि ‘आहत नाद ’  को पढ़ते हुए मुझे मन्नू भंडारी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘ महाभोज ’ की बरबस याद आती है। स्वतंत्रता के बाद जो राजनीति हमें मिली वह धोखे, उत्पीड़न और पाखंड पर आधारित थी। मदन मोहन का यह उपन्यास इसी तथ्य को आधार बनाता है। यही कारण है कि यह उपन्यास जितना आज का लगता है उससे कहीं अधिक पहले का लगता है । विशेषकर 70-80 और नब्बे के दशक का जब दलित और खेत मजदूर चुनावी राजनीति में अपनी संगठित दावेदारी पेश करने लगे थे। जहरीली शराब से मौत की घटना के जरिए मौजूदा राजनीति, पुलिस-प्रशासन,मीडिया आदि को आइना दिखाने की कोशिश उपन्यासकार ने की है।
सुधीर सुमन ने कहा कि उपन्यास में वाक्य प्रायः छोटे छोटे हैं, सम्प्रेषणीय है परंतु एक समस्या है जो बहुत सारे कथाकारो की समस्या है कि सारे पात्र एक तरह की भाषा बोलते हैं। पात्रों की भाषा और संवाद के लहजे में बहुत फर्क नहीं है। सब कुछ के बावजूद यह उपन्यास पाठकों को बेचैन नहीं करता।
वरिष्ठ कवि देवेन्द्र आर्य ने कहा कि आहत नाद एक अलग तरह का उपन्यास है। मुझे इस उपन्यास ने उनके पहले उपन्यास ‘ जहां एक जंगल था ‘ से ज्यादा प्रभावित किया है। इस उपन्यास का नायक कोई चरित्र नहीं बल्कि गांव है। छोटे-छोटे संवाद सांकेतिक और मारक हैं। उपन्यास बहुत विस्तार में जाने के बजाय इशारों में अधिक अपनी बात कहता है। उन्होंने कहा कि इस उपन्यास पर और अधिक चर्चा होनी चाहिए। इस उपन्यास को पूर्वांचल के पिछले दो दशक के समय का ऐतिहासिक दस्तावेज और इतिहास के रूप में जाना जाएगा।
जेबी महाजन डिग्री कॉलेज के प्राचार्य प्रो मधुप कुमार ने कहा कि उपन्यास में क्लासिकीय कसाव अन्तर्निहित है। यह क्लासिकीय कसाव उपन्यास को कमजोर नहीं करता है। इसमें धीमी गति का लय है। यह विमर्शात्मक उपन्यास नहीं है। यह गहरा राजनीतिक उपन्यास है जिसमें कुछ विमर्श अपने आप चले आते हैं। विमर्श का हस्तक्षेप कई बार उपन्यास को क्षतिग्रस्त करता है।
महाराजगंज से आए कथाकार कृष्ण मोहन अग्रवाल ने ‘ आहत नाद ‘ को राजनीतिक उपन्यास कहे जाने पर सहमति जतायी और कहा कि यह उपन्यास समाज के भीतर की सूक्ष्म हलचल को पकड़ने में सक्षम है।
कवि प्रमोद कुमार ने उपन्यास में संकेतों से काम नहीं चलता है। अपनी भाषा में पात्रों के आपसी संवाद से चरित्र ज्यादा खुलते हैं। उपन्यास में भाषा का जो अर्थ झंकृत होता उसका इस उपन्यास में अभाव है। मदन मोहन इस उपन्यास में अपने पात्रों के साथ जीये हैं। गांव किस तरह अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ेंगे इसका संकेत उपन्यास देता है।
गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर राजेश मल्ल ने मदन मोहन की पुरानी कहानियों की चर्चा से अपनी बात शुरू की और कहा कि इन कहानियों से छात्र जीवन में परिचय हुआ था। उन्होंने कहा कि ‘आहत नाद ‘ गांव का नहीं बल्कि अंचल का राजनीतिक उपन्यास है। उन्होंने उपन्यास में छात्र राजनीति और जहरीली शराब के प्रसंग में अधिक गहराई की कमी की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि उपन्यास सूचनाओं से भरा हुआ है, कठिन दौर का आख्यान है लेकिन इसमें जीवन कम है। कई सारे सवालों को और ज्यादा आगे व गहराई में ले जाने की जरूरत थी। तब उपन्यासकार की बेचैनी पाठकों की भी बेचैनी बन जाती।
कार्यक्रम में उपस्थित वरिष्ठ रंगकर्मी राजाराम चौधरी सहित कई छात्र-छात्राओं-राजू मौर्य, पवन कुमार, जितेन्द्र प्रजापति, रोहित यादव, रूचि मौर्य ने उपन्यास के नाम सहित रचना प्रक्रिया, उपन्यास के पात्रों के बारे में सवाल पूछे।
इन सवालों पर बात रखते हुए उपन्यासकार मदन मोहन ने कहा कि उनके गांव में जहरीली शराब से एक युवा दलित की मौत ने उन्हें बुरी तरह आहत किया था। इस घटना से उपजी बेचैनी से ‘आहत नाद ‘ उपन्यास पैदा हुआ। उनकी कोशिश रहती है कि जो सचाई दिख रही है उसकी परतें उधेड़ी जाय और गहरे अंधेरे के उन कोनों को भी पाठकों को दिखाया जाय जहां वाह पहुँच नहीं पाता। उनका काफी समय गांव में कमजोर, दलित वर्ग के लोगों की जीवन को नजदीक से देखते हुए बीता है। नौकरी के दौरान भी उनका वास्ता समाज के हाशिये के लोगों की जिंदगी से पड़ा। उनकी कई कहानियों के प्लाट इसी जीवनानुभव से बने। मेरा मानना है कि राजनीति को समझे बिना साहित्य संभव नहीं है।
अध्यक्षता कर रहे गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो जर्नादन ने कहा कि हमारे समय में लोकतांत्रिक संस्थाएं काम नहीं कर रही है। लोकतांत्रिक संस्थाओं के निष्क्रिय हो जाने से लोकतंत्र का केचल ढांचा रहता है लेकिन लोकतंत्र खत्म हो जाता है।  सदविवेक सद्विवेक और आत्मा की प्रेरणा से ही बदलाव संभव हो पाता है। उन्होंने कहा कि मदन मोहन के ‘आहत नाद ‘ में दो पात्र चंदा और दीपक ऐसे ही बदलाव के लिए आगे बढ़ते हैं। चंदा और दीपक अपने परिजनों, जाति-बिरादरी वालों के विरूद्ध जाते हैं। उनके अंदर बदलाव खुद के सद्विवेक से उत्पन्न होता है और उनका संघर्ष दूसरों के अंदर भी बदलाव लाने को प्रेरित करता है।
उन्होंने कहा कि तारतम्यता में यह रचना कहानी जैसी सघनता से समन्वित है, जिसके चलते पढ़ने का जुड़ाव हमेशा पीछे पड़ा रहा। पाठक को बाँधे रखने की रचनात्मक कुशलता अच्छी है। उपन्यास का कथ्य सामयिक परिदृश्य के लिए नई दिशा के द्वार खटखटाने वाला है।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर रामनरेश राम ने कहा कि ‘ आहत नाद ‘ उपन्यास समकालीन राजनीति के वर्चस्ववादी स्वरूप को उद्घाटित करता है। यह उपन्यास इस बात को भी सिद्ध करता है कि भारतीय राजनीति में दलित हमेशा शिकार की तरह रहे हैं। वर्चस्व की हिंदूवादी राजनीति के खिलाफ एक नया सामाजिक समीकरण बनता हुआ भी दिखता है, यह आस्वस्तिकारक भी है।
धन्यवाद ज्ञापन मनोज कुमार सिंह ने किया।
कार्यक्रम में कथाकार लाल बहादुर, अमित कुमार, फिल्मकार प्रदीप सुविज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता दिनेश शाही, फतेह बहादुर सिंह, नितेन अग्रवाल, आनंद पांडेय, अजय सिंह, जाय प्रकाश नायक, जाय प्रकाश मल्ल, देवेन्द्र मिश्र,  प्रदीप कुमार, सतविन्दर कौर, सुनीता अबाबील, अमजद अली, मनीष चौबे, देशबंधु, बैजनाथ, अंकित कुमार गौतम, रामकृष्ण चौधरी आदि उपस्थित थे।

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