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सिक्कों के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान में उनके ढालने तक का इतिहास दिखा रही है प्रदर्शनी

गोरखपुर. राजकीय बौद्ध संग्रहालय, गोरखपुर (संस्कृति विभाग, उ0प्र0) द्वारा 23 जनवरी को  ‘सिक्कों पर आधारित छायाचित्र प्रदर्शनी प्रारंभ किया जो 31 जनवरी तक चलेगा.

प्रदर्शनी का शुभारम्भ पूर्वोत्तर रेलवे के मुख्य संरक्षा अधिकारी  बी0आर0 विप्लवी  (आई आर एस एस ई) ने किया.

इस मौके पर श्री विप्लवी ने कहा कि राजकीय बौद्ध संग्रहालय में सिक्कों की प्रदर्शनी उत्कृष्ट कोटि की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विरासत से परिचित करा रही है। प्राचीन इतिहास के स्रोत के रूप में सिक्कों का अपना महत्वपूर्ण स्थान रहा है। सिक्कों की कहानी का प्रारम्भ मुनष्य के एक स्थान पर समूहों में बसने के साथ तब प्रारम्भ हुआ, जब विभिन्न वस्तुओं का आदान-प्रदान करना उनके जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता बन गई। धीरे-धीरे यही आवश्यकता विनिमय के रूप में एक व्यवस्थित रूप ले लिया। समय के साथ-साथ वस्तुओं के लेन-देन हेतु एक वस्तु को विनिमय का माध्यम स्वीकार किया गया। सिक्कों के विकास के प्रथम चरण की शुरूआत भी यहीं से मानी जाती है। विभिन्न काल में प्रचलन में लाये गये ऐतिहासिक सिक्कों के छायाचित्रों का प्रदर्शन बड़ा ही रोचक ढंग से किया गया है, जो जनसामान्य के लिए आकर्षण का केन्द्र है।

206 ईसा पूर्व से लेकर 300 ई0 तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से सिक्कों की सहायता से प्राप्त होता है। सिक्के एक ओर जहाॅं राजाओं के वंशवृक्ष, उनके महान कार्य, शासन काल तथा उनके राजनीतिक एवं धार्मिक विचार पर प्रकाश डालते हैं, वहीं दूसरी ओर राजा की व्यक्तिगत अभिरूचि, सम्पन्नता एवं राज्य की सीमाओं को भी निर्धारित करने में सहायक होते हैं।

संग्रहालय के उप निदेशक डाॅ0 मनोज कुमार गौतम ने कहा कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ों में प्राप्त विशाल भण्डारों के अवशेष इस ओर संकेत करते हैं कि ईसा पूर्व के तीसरी सहस्राब्दी तक विनिमय के माध्यम के रूप में अनाज का उपयोग होता रहा होगा। आगे चलकर वैदिक काल में गायों को विनिमय का माध्यम माना गया। इसकी पुष्टि ऋग्वेद की ऋचाओं से होता है। उत्तर वैदिक साहित्य में तो दक्षिणा के रूप में ऋत्विकों को गायें दिये जाने के अनेक उल्लेख हैं । पाणिनी के अष्टाध्यायी से ज्ञात होता है कि वैदिकोत्तर काल में भी गायें विनिमय की माध्यम थीं। कालान्तर में जब यह महसूस हुआ कि छोटी वस्तुओं के क्रय में गाय का उपयोग नहीं किया जा सकता था, तब विनिमय के माध्यम के विकल्प के रूप में ‘निष्क‘ का प्रयोग प्रारम्भ हुआ, जो कदाचित हार की तरह का कोई आभूषण था।

स्पष्ट है कि गायों के साथ-साथ ‘ निष्क ’ नामक आभूषण भी वैदिक काल में सम्पत्ति का प्रतीक था। आगे चलकर गाय और निष्क के बाद विनिमय माध्यम के रूप में सुवर्ण का प्रयोग आरम्भ हुआ, जिसे निश्चित भार या वजन में तौलने के लिए कृष्णल (एक प्रकार का बीज) प्रयोग में लाया गया। परवर्ती साहित्य में कृष्णल को रक्तिका या गुंजा कहा गया है, जो आज रत्ती के नाम से प्रसिद्ध है। शतपथ ब्राह्मण और आपस्तम्ब, मानव, कात्यायन आदि श्रोत सूत्रों में हिरण्य (धन) के प्रसंग में मान शब्द ( शाब्दिक अर्थ- इकाई ) संयुक्त 10, 12, 24, 30, 40, 70 आदि संख्याएं देखने को मिलती हैं। शतमान (100 मान) का उल्लेख तो स्पष्ट रूप से गोल आकार के धातु पिण्ड के रूप में प्राप्त होता है। धातु पिण्डों के माध्यम से विनिमय करने की प्रथा व्यवस्थित हो जाने पर भी उनके सही वजन एवं धातु के शुद्धता की प्रामाणिकता एक समस्या बनी हुई थी। इसके निराकरण के लिए भारत तथा कुछ अन्य देशों के प्रबुद्ध लोगों ने सोचा कि ठीक वजन औन धातु की शुद्धता के प्रमाणस्वरूप विनिमय के साधन के रूप में प्रयोग होने वाले धातु पिण्डों पर किसी उत्तरदायी अधिकारी का चिन्ह अंकित किया जाय। इस प्रकार सिक्कों का जन्म हुआ।

संग्रहालय द्वारा आयोजित छायाचित्र प्रदर्शनी में सिक्कों के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान में उनके ढालने की प्रक्रिया को छायाचित्रों के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया गया है। भारत के प्राचीनतम सिक्के, जिन्हें आहत सिक्का के नाम से जाना जाता है, के बनाने तथा उनपर चिन्ह अंकित करने की विधि को छायाचित्रों के माध्यम से दिखाया गया है। तत्पश्चात् जनपदों के सिक्के, भारतीय यवन सिक्के एवं सातवाहनों के सिक्कों के छायाचित्र प्रदर्शित किये गये हैं। प्रदर्शनी में कुषाण एवं गुप्त राजाओं के सोने, चांदी एवं तांबे के सिक्कों के अतिरिक्त मध्यकालीन सिक्कों के छायाचित्र भी आकर्षण के केन्द्र हैं। इसके अतिरिक्त प्रदर्शनी में आधुनिक सिक्कों की श्रृंखला में आना, नया पैसा के साथ-साथ मेडल, आदि के भी छायाचित्र रोचक ढंग से प्रदर्शित किये गये हैं।

इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि श्री भीम सिंह, पूर्वोत्तर रेलवे गोरखपुर सहित सर्वश्री डाॅ0 जितेन्द्र कुमार, मोहन कुमार, राजेश जायसवाल, डाॅ0 चन्द्रशेखर, हरीकृष्ण मिश्र, शिवनाथ यादव, सतीश तिवारी, हरीश तिवारी, विकास यादव, मनोज सिंह, राहुल शाही, रम्भा सिंह, श्रेया शाही, प्रेमशीला मिश्रा, गरिमा सिंह आदि उपस्थित थे.

प्रदर्शनी में विभिन्न प्रकार के सिक्कों के छायाचित्रों का प्रदर्शन किया गया है –
शासक के छवि (चेहरे) वाले सिक्के

भारत में ग्रीक जाति के कुछ शासक, जिन्हें हम बैक्ट्रियन ग्रीक और इण्डो ग्रीक नाम से जानते हैं, पहले शासक थे, जिन्होंने अपने सिक्कों पर शासक की छवि (चेहरे) का उपयोग किया। इनसे प्रभावित होकर बाद में कई और वंश के शासकों ने भी अपनी-अपनी छवि वाले सिक्के बनवाये। ऐसे ही सिक्कों के कुछ उदाहरण यहाॅं पर प्रदर्शित किये गये हैं –
बैक्ट्रियन- ग्रीक- दिमित्र (ल0 200-190 ई0पू0) चांदी, टेट्राद्रम।
सातवाहन- वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी (ल0 प्रथम-द्वितीय शताब्दी) चांदी, द्रम।
पश्चिमी क्षत्रप (क्षहरात वंश)-नहपान (प्रथम शताब्दी) चांदी, द्रम।
मुगल- जहाॅंगीर (1605-1627) स्वर्ण मुहर।

अजीबोगरीब आकार के सिक्के

भारत में सामान्य तौर पर सिक्के गोल और चौकोर आकार के बनाये जाते थे, लेकिन इनके अलावा अलग-अलग समय पर कई रोचक और अजीबोगरीब आकार (छड़, बालों के क्लिप, तश्तरी, अष्टकोण, मिहराव, डमरू आदि आकार के सिक्के) के भी सिक्के बनाये गये जिनके उदाहरण भी इस प्रदर्शनी में जनसामान्य के अवलोकनार्थ प्रदर्शित किये गये हैं  –
– बेन्ट बार सिक्का-छड़ के आकार का चांॅदी का सिक्का (ल0 छठीं-पाॅचवीं शताब्दी ई0पू0) गांधार।
-लारिन- बालों के क्लिप के का आकार का चाॅंदी का सिक्का। आदिलशाही-अली आदिल शाह (1656-1672)।
-मिहराब के आकार का स्वर्ण सिक्का- अकबर (1556-1605)
-तश्तरी के आकार का सोने का सिक्का। बीच में पद्म (कमल) के कारण इन्हें पद्मटंका नाम से जाना जाता है। देवगिरी के यादव-भील्लमदेव पंचम।
-अष्टकोणीय सिक्के- अहोम वंश (आसाम)। रूद्रसिंह (1696-1714), चाॅंदी ( कामरूप (आसाम) क्षेत्र आठ दिशाओं वाला होने के कारण संभवतः अष्टकोणीय सिक्के बनाये गये)।
– चौकोर आकार का सिक्का। इण्डो-ग्रीक- अपलदत प्रथम (ल0 180-160 ई0पू0) चाॅंदी।
-गोल आकार का सिक्का। गुप्तवंश- चन्द्रगुप्त प्रथम तथा समुद्रगुप्त। स्वर्ण।

उक्त के अतिरिक्त ब्राह्मी, खरोष्ठी, ग्रीक, नागरी और अरबी लिपि में लेखयुक्त सिक्कों के भी छायाचित्र इस प्रदर्शनी में प्रदर्शित किये गये हैं –

– बैक्ट्रियन ग्रीक- यूथीडिम (ल0 220-200 ई0पू0) चाॅंदी, टेट्राद्रम। पृष्ठ भाग पर ग्रीक लेख।
(विदेशी मूल के राजवंश- इण्डो-ग्रीक, शक-पहलव, कुषाण शासकों ने मुख्यतया अपने सिक्कों पर लेख ग्रीक लिपि में लिखवाये)।
– कुषाण वंश-विमकदफिसस (प्रथम शताब्दी) स्वर्ण। पृष्ठ भाग पर खरोष्ठी लिपि में लेख।
(खरोष्ठी लिपि ज्यादातर भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिम भाग में लिखी जाती थी। विदेशी मूल के राजवंशों के अतिरिक्त कुछ जनतंत्रीय राज्यों के सिक्कों पर भी दूसरी शताब्दी ई0पू0-दूसरी शताब्दी के बीच खरोष्ठी लिपि में लेख लिखे गये)
– सातवाहन गौतमी पुत्र सातकर्णी (ल0 प्रथम शताब्दी ई0पू0-प्रथम शताब्दी ई0) ताॅंबा। पृष्ठ
भाग पर ब्राह्मी लिपि में लेख। ( ब्राह्मी भारत की सबसे प्रमुख लिपि थी और अधिकतर प्राचीन सिक्कों पर इसी लिपि में लेख लिखे गये। बाद में नागरी और कई अन्य लिपियाॅं ब्राह्मी से ही निकली)।
– सूरीवंश- शेरशाह सूरी (1538-1545 ई0) चाॅंदी रूपया। अरबी लिपि में लेख।
(13वीं शती में दिल्ली सल्तनत के शासन की स्थापना के साथ, अरबी लिपि सिक्कों पर लेख के लिए सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने लगी। यह स्थिति करीब 19वीं शती के मध्य तक रहा। तत्पश्चात ब्रिटिश शासकों ने सिक्कों पर रोमन लिपि में लेख लिखना प्रारम्भ कर दिया)।
– चंदेल। मदन वर्मन (1123-1163 ई0) स्वर्ण सिक्का। पृष्ठ भाग पर नागरी लिपि में लेख।
(दसवीं-ग्यारहवीं शती तक, ब्राह्मी लिपि नागरी लिपि में बदल चुकी थी और उत्तर तथा दक्षिण भारत के कई राजवंशों ने अपने सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में लेख लिखवाये)।
देवी-देवताओं के अंकनयुक्त भारतीय सिक्कों के छायाचित्र भी प्रदर्शित किये गये हैं। भारत में सिक्कों पर प्रारम्भ से ही धार्मिक चिन्हों/प्रतीकों तथा उसके कुछ समय पश्चात देवी-देवताओं का अंकन होना प्रारम्भ हुआ। इनसे सिक्के जारी करने वाले शासकों के धार्मिक विश्वास और धार्मिक इतिहास के बारे में कई अन्य महत्वपूर्ण जानकारियाॅं मिलती हैं ।

यहाॅं पर कुछ ऐसे ही प्राचीन भारतीय सिक्कों के छायाचित्र भी प्रदर्शित किये गए हैं  जिनपर कुछ प्रमुख देवी-देवताओं का अंकन किया गया है –
– इण्डो-ग्रीक शासक अगथुक्लेय (ल0 190-180 ई0पू0) चाॅंदी।
(सिक्कों पर कृष्ण का शायद सबसे पहला चित्रण इंडो-ग्रीक शासक अगथुक्लेय के एक प्रकार के चाॅंदी के सिक्के पर लगभग दूसरी शताब्दी ई0पू0 में मिलता है। इन सिक्कों पर एक तरफ शंख और चक्र लिए कृष्ण और दूसरी तरफ हल और मूसल लिए संकर्षण बलराम दिखाये गये हैं)।
– उज्जयिनी (ल0 प्रथम शताब्दी ई0पू0-प्रथम शताब्दी ई0)। ताॅंबा।
(प्राचीन भारत के कई राज्यों/राजवंशो जैसे उज्जयिनी, यौधेय, कुषाण आदि के सिक्कों पर शिव का चित्रण मिलता है। यहाॅं लगभग प्रथम शती0 ई0पू0-प्रथम शती0 ई0 के उज्जयिनी के ताॅंबे के सिक्के पर शिव को अपने दंड और कमण्डल के साथ दिखाया गया है)।
– गुप्त शासक कुमारगुप्त (ल0 415-450ई0पू0)। स्वर्ण सिक्का।
(कार्तिकेय का चित्रण कई प्राचीन सिक्कों पर मिलता है। यहाॅं गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम के सोने के सिक्के पर मयूर पर बैठे हुए कार्तिकेय को दिखाया गया है)।
– कुषाण शासक कनिष्क प्रथम (लगभग दूसरी शताब्दी) बुद्ध के अंकनयुक्त स्वर्ण सिक्का।
(कुषाण शासक कनिष्क प्रथम के सिक्कों पर मिलने वाले कई देवी-देवताओं में एक प्रमुख देवता भगवान बुद्ध हैं, जिनके कई रूप जैसे शाक्यमुनि बुद्ध, मैत्रेय बुद्ध आदि का चित्रण मिलता है। यहाॅं कनिष्क के एक सिक्के पर बुद्ध को दिखाया गया है)।
– सातवाहन। सातकर्णी प्रथम (लगभग प्रथम शताब्दी ई0पू0) ताॅंबा।
(लक्ष्मी भी कई प्राचीन सिक्कों पर चित्रित मिलती हैं। उनका एक रूप गज लक्ष्मी या अभिषेक लक्ष्मी, भारतीय मूर्तिकला में तथा सिक्कों पर देखने को मिलता है। ऐसा ही एक उदाहरण प्रथम शताब्दी ई0पू0 के सातवाहन राजा सातकर्णी प्रथम के सिक्कों के छायाचित्र यहाॅं प्रदर्शित किये गये हैं।

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