प्रकृति नहीं पूंजी की चिंता कर रही है सरकार

चक्रपाणि ओझा

रविवार की सुबह उत्तराखंड के लोगों के लिए भारी तबाही का मंजर लेकर आई। उत्तराखंड के जोशी मठ क्षेत्र में अचानक ग्लेशियर टूटने से अलकनंदा तथा धौलीगंगा नदियों में हिमस्खलन से बाढ़ आ गई, जिसमें अंतिम सूचना मिलने तक लगभग 150 लोगों के लापता होने की आशंका व्यक्त की जा रही है, राहत और बचाव कार्य के लिए राज्य और केंद्र की टीमें लगातार सक्रिय हैं,अनेक फंसे हुए लोगों को बचाया भी गया है, ऐसी खबरें आ रही हैं,बचाव और राहत कार्य जारी है। अचानक हुए इस जल प्रलय से ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह बह गया है जो कि एक निजी कंपनी का प्रोजेक्ट था।

उत्तराखंड में ऐसी प्राकृतिक आपदा पहली बार नहीं आई है। वर्ष 2013 में केदारनाथ में जो जल प्रलय हुआ था। उसके बाद भी अनेक छोटी-छोटी घटनाएं तो होती ही रही हैं, लेकिन 7 फरवरी रविवार की सुबह ग्लेशियर फटने के बाद जो जल प्रवाह नदियों में तेज हुआ उसने न सिर्फ उत्तराखंड वासियों को बल्कि हर संवेदनशील भारतवासी को 2013 का मंजर याद दिला दिया। सबकी नजरें उत्तराखंड के नदियों के किनारे रहने वाले लोगों की तरफ थीं।

अचानक हुई इस प्राकृतिक घटना ने एक बार फिर हमें उन सवालों पर विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है, जिन सवालों को हमारे शासकों ने छोड़ दिया है। वर्ष 2013 की तबाही के बाद भी हमारे शासक वर्ग ने प्रकृति के रौद्र रूप से कोई सबक नहीं लिया और प्राकृतिक संसाधनों की बेलगाम उपेक्षा, बाजार और निजी कंपनियों के मुनाफे की हवस को पूरा करने के लिए विकास का नाम देकर प्रकृति के दोहन का सिलसिला जारी रहा है। नदियों को बांधकर, पहाड़ों को अंधाधुंध विस्फोट कर तोड़ना,बड़े पैमाने पर जंगलों को काटना, यह सब कुछ विकास के नाम पर इस पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा किया जा रहा है। जिन पर्वतों,वृक्षों और नदियों की हमारी भारतीय संस्कृति में पूजा की जाती है,उनकी रक्षा के संकल्प लिए जाते हैं वहीं खुद को भारतीय संस्कृति का झंडा बरदार कहलाने वाली सरकारें भी प्रकृति प्रदत्त संसाधनों की बेलगाम लूट करने में अपनी नीतियों के जरिए सक्रिय हैं।

विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के साथ पूरी निर्दयता ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। जानकारी के मुताबिक ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट एक निजी कंपनी का प्रोजेक्ट है। जब प्राइवेट कंपनियां अपने प्रोजेक्ट प्राकृतिक रूप से समृद्ध इलाकों में लगाएंगी तो वे हमारे पर्यावरण व हमारे प्राकृतिक संसाधनों के प्रति आखिर क्यों संवेदनशील होंगी ? उन्हें अपना मुनाफा कमाना होता है ना कि प्रकृति का संरक्षण करना। ऐसी कंपनियां अपना प्रोजेक्ट लगाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के साथ पूरी संवेदनहीनता का प्रदर्शन करती हैं। उन्हें हमारे पर्यावरण का कोई ध्यान नहीं रहता। इसका जिम्मेदार असल में वे नहीं हैं जो हमारे पहाड़ों, नदियों, वनों को क्षतिग्रस्त कर रहे हैं। असल जिम्मेदार वे लोग हैं जो इन कंपनियों के लिए नीतियां बनाते हैं,जो जनता के विकास के नाम पर ऐसे प्रोजेक्ट को संचालित करते हैं,जिनसे हमारा प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो जाते हैं। हमारे विशालकाय पहाड़ जख्मी हो जाते हैं,नदियों का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है और बड़े पैमाने पर वृक्षों की कटाई हो जाती है। इसके बाद हमारी पृथ्वी का औसत तापमान 14 डिग्री सेंटीग्रेड से बढ़ने लगता है और इसका दुष्परिणाम आम लोगों को चमोली जैसे हादसों के रूप में भोगना पड़ता है,अपनी जान गंवानी पड़ती है।

हर हादसे के बाद सरकारें राहत और बचाव कार्य में लग जाती हैं, सुरक्षाबलों की टीमें सक्रिय कर दी जाती हैं और फिर मुआवजे की घोषणा होती है तथा अगली आपदा होने तक प्रकृति के इस रौद्र रूप को सरकारें शायद भूल जाती हैं।

उत्तराखंड की घटना के बारे में तो पर्यावरणविदों का कहना है कि ऋषिकेश गंगा पावर प्रोजेक्ट ना बनाने का सलाह दिया गया था लेकिन उसे रोका नहीं गया जिसका दुष्परिणाम सामने है। कितना भयानक है कि पर्यावरणविद और भूगर्भ के जानकार अपने सुझाव देते हों और सरकारें उन्हें अनसुना कर कंपनियों के प्रोजेक्ट को विकास का नाम देकर संचालित करने वाली नीतियां बना देती हैं।

आज जब इस हादसे के बाद यह स्थापित करने की कोशिशें हो रही हैं कि इस व्यवस्था का कोई दोष नहीं है। यह तो प्राकृतिक हादसा है, यह कभी भी हो सकता है इसे रोका नहीं जा सकता, तब यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर हमारी तकनीकी और वैज्ञानिक क्षमताएं जो कि इतनी उन्नत हैं,हमारे पास हादसों से निपटने और इससे बचाव के अनेक तंत्र मौजूद हैं फिर भी हम ऐसे हादसों से बच नहीं पाते और इतनी बड़ी जनधन की हानि हो जाती है,यह या तो हमारी तकनीक और विज्ञान की पहुंच नहीं है या हमारी सरकारों के एजेंडे में प्रकृति,पर्यावरण और उसका संरक्षण ही नहीं है। कहा तो यह भी जा रहा है कि अगर विकास करना है तो ऐसे प्रोजेक्ट लगाने होंगे लेकिन सवाल ये है कि क्या हम ऐसे प्रोजेक्ट रूपी विकास अपनी धरती,पहाड़ों,नदियों के अस्तित्व को दांव पर लगाकर करेंगे। जिस पहाड़ को हमने बनाया नहीं है, जिस वन को हमने लगाया नहीं है और जिस नदी को हमने बहाया नहीं है उसे हम किसी निजी कंपनी के मुनाफे के लिए कैसे बर्बाद होने देंगे ?

चमोली की घटना वहां हुई है जिस गांव से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी, जहां के लोगों ने अपने वृक्षों को बचाने के लिए कितना बड़ा आंदोलन चलाया था। आज तथाकथित विकास के नाम पर उन पेड़ों,पहाड़ों को काटा जा रहा है,नदियों के प्रवाह को रोक कर प्रोजेक्ट लगाए जा रहे हैं तथा इन सब की जगह कंक्रीट और सीमेंट के जंगल खड़े हो रहे हैं यह चिंताजनक है।
आज संकट यह है कि इस व्यवस्था और इसके संचालकों के लिए पर्यावरण और उससे जुड़े मुद्दे उनके एजेंडे में हैं ही नहीं, जो कुछ भी है वो फाइलों में व मंत्रालयों में है जमीन पर पर्यावरण और उसकी क्षति पर कोई चर्चा हमारी सरकारें नहीं करती क्योंकि इससे उनकी सेहत पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है। हादसों में मरने वाले तो अक्सर आमजन व श्रमिक ही होते हैं, संयोग था कि चमोली हादसा रविवार को अवकाश के दिन हुआ अन्यथा और भारी जनहानि हो सकती थी।

स्कूलों और पाठ्यक्रमों में पर्यावरण शिक्षा की किताबें पढ़ाने वाली सरकारें अपनी प्राथमिकता आखिर इस गंभीर मुद्दे पर क्यों नहीं दिखातीं, क्यों इस देश की राजनीति में पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर बहसें नहीं होती। जाति,धर्म, मंदिर,मस्जिद,गाय,गोबर, गो मूत्र,श्मशान,कब्रिस्तान पर चुनाव लड़े जाते हैं लेकिन किसी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में क्यों नहीं होता कि वह पर्यावरण पर हो रहे हमलों और उससे उत्पन्न संकटों के समाधान के लिए काम करेंगे। क्यों इस गंभीर व चिंताजनक विषय पर सभी लोग मौन रहते हैं और जब प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाती है तो यह प्रकृति का दोष देते हैं और कहते हैं कि यह हादसा प्राकृतिक है । जबकि सच इसके विपरीत होता है ये हादसे प्रकृति जनित नहीं अपितु मनुष्य जनहित व व्यवस्था जनित होते हैं,जो हमारी गलत नीतियों व कार्यशैलियों के परिणाम स्वरूप होते हैं।

जोशीमठ की घटना भी प्रकृति के साथ हो रहे बुरे बर्ताव का परिणाम है ऐसे हादसों को रोकने व कम करने के लिए सरकारों को निजी कंपनियों के मुनाफे की चिंता से बाहर आकर मनुष्य की जिंदगी और पर्यावरण तथा प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा की चिंता करनी होगी। क्योंकि विकास सिर्फ कोई प्रोजेक्ट लगाना ही नहीं होता, अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचाना, अपने नागरिकों को शुद्ध जल, वायु की व्यवस्था करना भी विकास की ही श्रेणी में आता है। सरकारों को चाहिए कि वे पूंजी कि नहीं प्रकृति की चिंता करें तभी ऐसी घटनाएं वास्तव में रुकेंगी।


लेखक युवा पत्रकार हैं। संपर्क – 9919294782 ।