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बाल कल्याण समिति के सदस्यों और अध्यक्षों को एक वर्ष से मानदेय ही नहीं दे रही सरकार

गोरखपुर. देवरिया के बालिका गृह कांड से बाल कल्याण समिति (सीडल्यूसी) की कार्यप्रणाली भी चर्चा में है. देवरिया की सीडल्यूसी पर भी सवाल उठ रहे हैं कि उसने अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभायी.  इससे इतर सीडल्यूसी में कार्य करने वाले सदस्यों व अध्यक्ष की अपनी पीड़ा और समस्याएं हैं जिसे कोई नहीं सुन रहा. यूपी के अधिकतर जिले के बाल कल्याण समिति के सदस्यों व अध्यक्षों को पिछले एक वर्ष से मानदेय ही नहीं मिला है और वे बिना मानदेय के कार्य कर रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में हर जिले में बाल कल्याण समिति का गठन दिसम्बर 2016 में हुआ था. कई महीने तक चली चयन प्रक्रिया के बाद बाल कल्याण समितियों के अध्यक्ष व सदस्यों का चयन हुआ. प्रत्येक जिले में दिसम्बर 2016 में बाल कल्याण समितियों का गठन हो गया और उन्होंने अपना कार्य शुरू कर दिया.
बाल कल्याण समिति का गठन तीन वर्ष के लिए होता है. वर्ष 2016 के पहले 2010 में बाल कल्याण समितियों का गठन हुआ था. तीन वर्ष का कार्यकाल पूरा होने के बावजूद नई समितियों का गठन नहीं हुआ. इस कारण पुरानी समतियां ही कार्य करती रहीं.

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार हर जिले में सीडब्ल्यूसी का गठन होना चाहिए. प्रत्येक सीडब्ल्यूसी में एक अध्यक्ष और चार सदस्य होने चाहिए. बोर्ड के कम से कम एक सदस्य को महिला होना चाहिए. सीडब्ल्यूसी को मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट के समान शक्तियां प्राप्त हैं.

समिति  के अध्यक्ष और सदस्यों को बाल कल्याण के मुद्दों पर अच्छी समझ होनी चाहिए. सीडब्ल्यूसी का काम बच्चों के अधिकार व सुरक्षा को सुनिश्चित करना है.  यदि 18 वर्ष से कम उम्र का कोई भी बालक या बालिका अपने घर या परिवार से बाहर पाया जाता/जाती है तो पुलिस अधिकारी, सरकारी कर्मचारी, सामाजिक कार्यकर्ता या नागरिक उन्हें समिति के सामने प्रस्तुत करते हैं. समिति आम तौर पर बच्चों के उनके घर भेजती है. घर और परिवार का पता चलने तक बालक /बालिका को
सरकार या सरकार द्वारा अनुदानित शेल्टर होम में भेजा जाता है. सीडब्ल्यूसी बच्चे के बारे में निर्णय लेने के पहले उसके बारे में पूर्ण जानकारी करती है और उसकी समस्या को समझती है. वह बालक बालिका की काउसिलिंग भी करती है.

सीडब्ल्यूसी का उद्देश्य बच्चे के सर्वोत्तम हित को निर्धारित करना है और बच्चे को अपने मूल माता-पिता या दत्तक माता-पिता, पालक देखभाल या संस्थान में सुरक्षित घर और पर्यावरण उपलब्ध कराना है. सीडब्ल्यूसी को बाल श्रम के मामले में भी कार्रवाई की शक्त्यिां प्राप्त हैं.

इतने महत्वपूर्ण दायित्व संभालने वाले बाल कल्याण समितियों के सदस्यों और अध्यक्षों को एक वर्ष से मानदेय न मिलना सरकार का इनके प्रति अगंभीर रवैये को दर्शाता है. बाल कल्याण समितियों के सदस्यों व अध्यक्षों को दिसम्बर 2016 में कार्यभार संभालने के बाद जुलाई-अगस्त 2017 तक मानदेय मिला है लेकिन उसके बाद उन्हें मानदेय नहीं मिल रहा है.

देवरिया की बाल कल्याण समिति के सदस्यों और अध्यक्ष को एक महीने से मानदेय नहीं मिला है. यहां पर बोर्ड में अध्यक्ष के अलावा चार सदस्य हैं जिसमें तीन महिलाएं हैं.  महराजगंज जिले में भी अध्यक्ष व सदस्यों को एक वर्ष से मानदेय नहीं मिला है. यहां पर अप्रैल 2018 का एक महीने मानदेय मिला है. शेष अभी बकाया है. कुशीनगर जिले में भी मानदेय नहीं मिला है. यहां समिति के दो सदस्यों के पद भी रिक्त हैं. यही हाल हर जिले का है.

समिति के अध्यक्ष व सदस्यों को महीने में 20 कार्य दिवस का मानदेय दिया जाता है. प्रत्येक कार्य दिवस का 1500 रूपया निर्धारित है. इस तरह हर सदस्य का महीने में 30 हजार रूपए मानदेय बनता है.
सरकार ने समिति के सदस्यों को अब 365 दिन 24 घंटे कार्य करने का आदेश दिया है. इसलिए छुट्टियों के दिन भी समिति का एक सदस्य ड्यटी पर रहता है. बोर्ड के सभी सदस्य रोस्टरवार ड्यूटी करते हैं और यह ड्यूटी चार्ट जिले के सभी थानों, जीआरपी, आरपीएफ व सहित सभी एजेंसियों को उपलब्ध कराया जाता है ताकि कोई भी बच्चा यदि कहीं मिलता है तो उसे समिति के सामने प्रस्तुत किया जाय.

सरकार ने समिति के सदस्यों, अध्यक्षों पर कार्यभार बढ़ाया है लेकिन समय से मानदेय देने के साथ-साथ उनकी सुविधाओं का कोई ख्याल नहीं रखा है. अधिकतर जिलों में बाल कल्याण समितियां बेहद कम सुविधाओं वाले दफ़्तर में कार्य करती है. कार्यालय के रखरखाव व संचालन के लिए कोई फंड उन्हें नहीं मिलता है. यही नहीं बच्चों के घर वालों की खोज, जांच, व दौरे के लिए उन्हें कोई यात्रा भत्ता तक नही मिलता है. उन्हें इसके लिए अपने जेब से खर्च करना होता है.

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