स्मृति

वह किसी से भी भिड़ सकता था, बिल्कुल बैखौफ और हिम्मतवाला !

प्रो अनिल राय

वह किसी को भी दुःखी और नाराज़ कर सकता था। सही आदमी को भी , गलत को भी। दोस्त को भी , दुश्मन को भी। ज़िंदगी का उसका अपना एक अलहदा ही फलसफा था। आप समझा करें अपने को सही और निर्दोष। !  पर, उसके अपने तर्क थे और अपने फ़ैसले। उसकी नज़र में आप गलत तो गलत !

वह बेहद भावुक और संवेदनशील था , पर तेज़ धार वाली बहसों के किसी अदृश्य – से चाकू से तुरन्त, बिना वक्त गंवाए चीरा लगा देने के लिए हरदम तैयार !   इन निर्मम बौद्धिक आदतों ने उसे कई बार अकेला भी बना दिया था। कई बार भावुक क्षणों की गिरफ्त में इस सचाई को बहुत शिद्दत से उसे महसूसते हुए भी पाया जाता था!

वह कविता कर सकता था, गीत – गज़ल  सुना सकता था,  संगीत की अपनी गहरी दिलचस्पियों से आपको रिझा सकता था , अपनी संवेदनशीलता और समझ के पैनेपन से आपको चौंका सकता था , पर किसी अगले ही पल  आस – पास की जिंदगी और माहौल में, अपनी नज़र में  कुछ अनुचित- सा दिख जाने वाले के लिए एक बिल्कुल ख़राब और अप्रत्याशित लहज़े का इस्तेमाल कर अपने  सर्वथा भलेमानुष होने का मिथ तोड़ सकता था !

उसने अपनी असहमति और नाराज़गी भरे हमले के लिए कई बार वह अपने कुछ निकट के दोस्तों  को चुनता था। मैंने अनुभव किया था कि उसकी असहमतियां नितांत व्यक्तिगत भी हो सकती थीं। निराधार। इस तरह बेवजह वह कई लोगों को दुःखी करता रहता।  उसकी इन अप्रिय आदतों  पर प्रायः मेरी  बहस भी होती रहती थी। कई बार बातचीत के बीच में ही फोन काट देने के प्रसंग भी घटित हुए। संवादहीनता भी बनी। वह दूसरे लोगों के मामलों में इस तरह मेरे टपक पड़ने की आदत पर मेरी  शिकायतें भी करता रहता। पर,  किसी नाराज़ दोस्त को मना लेने की उसकी अपनी ही कुछ निराली अदाएं थीं । कुछ ही दिन बाद व्हाट्सएप पर कोई अर्थपूर्ण काव्यात्मक संदेश , नदी किनारे का कोई मनोरम चित्र, कोई मार्मिक गीत या कोई ग़ज़ल ! ये इसके हथियार थे। वह इनका मारक इस्तेमाल करता और भावुक बना देता !

वह धर्मेन्द्र श्रीवास्तव था। एयर फोर्स से सेवानिवृत्ति के बाद बेसिक शिक्षा में अध्यापक। अंग्रेजी और हिन्दी में अच्छी गति। साहित्य, समाजविज्ञान और समकालीन वैश्विक परिघटनाओं के अध्ययन और व्याख्या में खूब आवाजाही। बिल्कुल अद्यतन।

गोरखपुर की गोष्ठियों में पहली बार उससे कब मुलाकात हुई थी , याद नहीं । पर , जबसे मेरी यादों से उसका रिश्ता जुड़ा , वह  कभी साधारण नज़र नहीं आया। प्रेमचन्द जयंती के आयोजनों के सिलसिले में एक दशक पहले संस्थान और जन – संस्कृति – मंच के आमंत्रण पर उसे कविता पढ़ते देखना – सुनना मेरे लिए एक अलग तरह का नया और ताज़ा अनुभव था। आयोजक मनोज कुमार सिंह से चर्चा करते हुए मैंने कहा था कि मैं इसे आपकी निजी खोज के रूप में भी बराबर याद करता रहूंगा!

अफ़सोस रहेगा कि हम सब उस बार की तरह उसे कभी सार्वजनिक नहीं सुन सके ।

धर्मेन्द्र के ऐसे चले जाने के अपार दुःख के बीच एक दुःख यह भी रहेगा कि उसके सामने बिल्कुल निःशब्द बने रहकर उसकी बेशुमार शिकायतों को सिर्फ सुनते जाने का मौका अब कभी नहीं मिल सकेगा ।

ओह , दुःखद !  सादर नमन धर्मेन्द्र !!

( प्रो अनिल राय गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं। हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं )

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