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हिंदी के लेखकों को एक्टिविस्ट होना होगा : विभूति नारायण राय

 गोरखपुर लिटरेरी फेस्टिवल के उद्घाटन सत्र में बोले प्रो विश्वनाथ तिवारी, मैत्रेयी पुष्पा, प्रो के सी लाल

संवादहीनता से ही जन्म लेती है हिंसा : प्रो. विश्वनाथ तिवारी
हमारा साहित्य समाज के नाम प्रेमपत्र ही है : मैत्रेयी पुष्पा
शब्द जरूरी मगर मर्यादा भी उतनी ही जरूरी : प्रो के सी लाल

गोरखपुर. जहां संवाद खत्म होता है वहीं से हिंसा की शुरुआत होती है। शब्द मनुष्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा शक्तिशाली आविष्कारों में से एक है। शब्द के बिना यह दुनिया अंधेरी दुनिया होती। बीते वक़्त में और आज में फ़र्क़ है। बीते वक़्त में शब्दों को व्यक्त करने की आज़ादी नहीं थी और आज के समय में मनुष्य प्रबुद्ध हो गया है और मुक्त रूप में अपने भावों को व्यक्त करने हेतु शब्दों का प्रयोग कर रहा है। संवाद के माध्यम से हम अनुमोदित हिंसा पर विराम लगा सकते हैं।

उपरोक्त विचार साहित्य अकादमी, दिल्ली के पूर्व अध्यक्ष तथा वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. विश्वनाथ तिवारी ने साहित्यिक विमर्श के दो दिवसीय भव्य वैचारिक समागम ‘गोरखपुर लिटरेरी फेस्ट – शब्द संवाद’ के उद्घाटन सत्र में ‘समय, समाज और शब्द संवाद’ विषय पर व्यक्त किया। उन्होंने इस अवसर पर कहा कि साहित्यकार को कहने की कला आती है। जो अपनी अभिव्यक्ति की समस्या को सुलझा लेता है वही वास्तव में लेखक है। हर लेखक एक्टिविस्ट हो यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं। संवाद वस्तुतः शास्त्रार्थ है और यही लोकतंत्र की शक्ति है।

सत्र में विचार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार विभूति नारायण राय ने कहा कि कालजयी साहित्य के शब्द केवल समकालीन समय को ही नहीं अपितु आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरणा देता है। आज के समय में साहित्यिक-सामाजिक और वैचारिक आंदोलनों में महात्मा गांधी के शब्द उस पीढी को भी प्रेरित करते दिखते हैं जिसने उन्हें नहीं देखा। साहित्य का सृजन वस्तुतः एक्टिविज़्म की देन है। वैश्विक स्तर पर मानवतावादी विचारों और अधिकारों की शब्द यात्रा मैग्नाकार्टा से लेकर संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में साफ तौर पर देखी जा सकती है।

गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष तथा वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. के. सी. लाल ने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि संवाद, लोकतंत्र की मर्यादा का व्यावहारिक अनुशासन है। संवाद की प्रक्रिया में बोलना एक साधना है, बोलना बहुमूल्य है, बोलना खुद में एक ज़िम्मेदारी है। शब्द किसी घातक शस्त्र से अधिक संहारक होते हैं इसलिए शब्दों का प्रयोग मर्यादित और अनुशासित होना चाहिए। अधिकारों की पुरजोर वकालत और बोलने की आज़ादी में भाषायी मर्यादा का उल्लंघन न हो इसका ख्याल रखना हर प्रबुद्ध नागरिक का प्राथमिक उत्तरदायित्व है।

इस अवसर पर प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि साहियकार वे हैं जो अपनी भावों की अभिव्यक्ति को शब्दों में पिरोते हैं। प्रेमचंद के प्रसिद्ध पात्र ‘हामिद’ का उल्लेख करते हुए उन्होंने आज की पीढ़ी के बदलते स्वरूप पर चिंता व्यक्त किया। डिजिटल युग में समय के बदलावों पर विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रलेखन को पुनः प्रासंगिक बनाने की वकालत की। उन्होंने कहा कि साहित्यकारों की रचनाएं समाज के नाम प्रेमपत्र हैं। आज आवश्यकता है कि हम अपनी भावनाओं को पुरानी शैली में, शब्दों में लिखकर व्यक्त करें। भले ही वर्तमान में अभिव्यक्ति के माध्यम बदले हैं, सुविधाएं बदली।हैं पर समय तो हमपर ही निर्भर करता है। उन्होंने विनोदपूर्ण उदाहरणों को देते हुए कहा कि आज हमें परस्पर संवाद में प्रेमपत्र की परंपरा को पुनर्जीवित करना होगा क्योंकि पत्र लिखने से ही साहित्य लिखने के प्रयास की शुरुआत होती है।

सत्र में आयोजक मण्डल के डॉ. रजनीकांत श्रीवास्तव, शैवाल शंकर श्रीवास्तव, हर्षवर्धन राय तथा डॉ. संजय श्रीवास्तव ने अतिथियों को अंगवस्त्र तथा स्मृतिचिह्न देकर सम्मानित किया।उद्घाटन सत्र का संचालन सुकीर्ति अस्थाना ने किया।

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