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संगम के ‘हाशिये’ पर किन्नर अखाड़ा

इना गोयल

 

लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी लाल पट्टे की हरी साड़ी में एक देवी की तरह बैठी थीं. दर्शन करने वालों की भीड़ धक्का-मुक्की करते हुए उसके सुनहरे कपड़े  वाले टेंट के अन्दर आने की कोशिश कर रही थी, उन्होंने फ़्लर्ट करने के अंदाज में बोला: “मैं आशीर्वाद देती हूँ लव-लैटर नहीं, सभी खुश रहिये और खुद से प्यार कीजिये.”

भीड़ में हंसी की लहर दौर गयी, फिर शांत होकर धैर्यपूर्वक अपनी बारी आने का इन्तजार करने लगी. दुनिया के सबसे बड़े मेले कुम्भ मेले के इस तीर्थ में कुछ लोग त्रिपाठी से व्यवसाय में हुए नुकसान और बेरोजगारी से लेकर अधिकाँश चीजों पर सलाह लेने आये थे. कुछ लोगों ने उसके पैरों में झुककर पैसे, भोजन और गहने चढ़ाए.  कुछ सिर्फ सेल्फी लेना चाहते थे.

उन्होंने सबकी बात को बहुत ध्यान और उत्साह के साथ सुनने के साथ उन्हें आशा बंधाई और ज्यादा चिंता न करने के लिए कहा. जब वह किसी को आशीर्वाद देती तो एक रुपये के सिक्के को अपने दांतों से काटकर कुछ चावल के दानों के साथ उन्हें दे देती. भारत में एक हिजड़े (थर्ड जेंडर समुदाय से एक व्यक्ति) द्वारा सिक्के को काटकर चावल के दाने के साथ किसी को देना शुभ माना जाता है.

त्रिपाठी हिन्दू हिजड़ा पुरोहिती के मठ ‘किन्नर अखाड़े’ की बड़ी  पुरोहिती और आचार्य महामंडलेश्वर हैं। वह कहती  हैं, “हिजड़े, समाज में अपनी खोई हुई स्थिति को धर्म के माध्यम से वापस हासिल कर रहे हैं.” त्रिपाठी की वजह से उन्हें नयी भूमिका मिली है, जिसने एक टीवी रियल्टी शो के माध्यम से शोहरत हासिल की और अपने जानकार पीआर और सोशल मीडिया टीम के माध्यम से अनुयायियों को आकर्षित किया है.

2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में जब भारत के थर्ड जेंडर को मान्यता दी, इसके ठीक बाद, त्रिपाठी ने हिन्दू धर्म को अपनाया और हिजड़ों के पहले हिन्दू मठ व्यवस्था किन्नर अखाड़ा की शुरुआत की. त्रिपाठी के लिए इस फैसले का मतलब है कि वह अब अपने को एक भारतीय कह सकती है क्योंकि उसके देश ने थर्ड जेंडर पहचान को एक बार फिर मान्यता दिया है.

मैंने दस साल हिजड़ों के साथ एक मानवविज्ञानी और सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में काम किया है, इसलिए बहुत नजदीक से उनके संघर्षों और सफलताओं को देखा है. मैंने उनकी गुप्त भाषा सीखी और एक गुरु के द्वारा अनुष्ठानिक पद्ध्यति के तहत मुझे “मानद हिजड़ा” की उपाधि देकर अपनाया गया. मैं अपना डॉक्टरेट शोध इस गतिशील समुदाय पर कर रही हूँ, पाठ्य-पुस्तकों में जिस लिंग और यौनिकता की अवहेलना की गई है उसकी खोजबीन में लगी हूँ, और यह समझने की कोशिश करती हूँ कि हिजड़ा उपसंस्कृति, मिटाने के कई प्रयासों के बावजूद, कैसे बची है.

हिजड़ा समुदाय के सम्मान के लिए संघर्ष में, जनवरी 2019 एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ. पहली बार, कुम्भ मेले के आयोजन में किन्नर अखाड़ा पूरी तरह से शामिल हुआ और ‘शाही पवित्र स्नान’ का हिस्सा बना. त्रिपाठी, और उसके हिजड़ा अनुयायियों ने गंगा, यमुना और (ऐतिहासिक) सरस्वती नदियों के पवित्र संगम में स्नान किया, इस कर्मकांड में पारम्परिक रूप से हिन्दू पुजारी, जो मुख्य रूप से पुरुष होते हैं और ब्राहमण, अथवा उच्च जाति के लोग ही हिस्सा लेते रहे हैं. किन्नर अखाड़े को पवित्र शाही स्नान की तमाम विरोध के साथ अनुमति तो मिली, लेकिन मेला क्षेत्र में जगह वहां मिली जिस हाशिये पर किन्नर अखाड़े के ठीक सामने एक दलित अखाड़ा अपनी मान्यता के लिए पूरे मेले के दौरान उपवास पर बैठा रहा और किसी अज्ञात के इतंजार में मेले के अंत तक गिरे हुए तम्बुओं के ढेर में तब्दील हो गया. दो समुदायों के अपमान और संघर्ष के इतिहास का यह भव्य और सुन्दर हाशिया एक दूसरे के पास होते हुए भी बहुत दूर जान पड़ता था.

हिजड़ों के सामाजिक स्तरीकरण में, बधियाकरण संस्कार से गुजरने से उच्च सम्मान प्राप्त होता है. लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी, ने बताया कि वह बधियाकरण के आधार पर पदानुक्रम की निंदा नहीं करती हैं, लेकिन साथ ही स्वीकार करती हैं कि बधिया होने के लिए प्रभावशाली हिजड़ों का दबाव रहता है. उसी साल की शुरुआत में वह इस प्रक्रिया से गुजरीं, लेकिन वह इसके महत्व को कम करके कहती हैं कि उनकी आत्मा अधिक महत्वपूर्ण है बजाय इसके कि उसकी पेटीकोट के नीचे क्या है. “मैंने बिना बधियाकरण के चालीस साल जी लिए. अब मुझे लगा कि मुझे भी ऐसा होना चाहिए,” वह कहती है, “मैं जीवन के सभी पक्षों का सामना करना चाहती हूँ.”

पारम्परिक रूप से ऐसा माना जाता है कि बधियाकरण से हिजड़ों में जोड़ों को प्रजनन क्षमता प्रदान करने की शक्ति मिलती है. कई नव-विवाहित और गर्भवती औरतें लड़के के रूप में एक स्वस्थ बच्चे के लिए हिजड़ों का आशीर्वाद लेती हैं. ऐसा माना जाता है कि लिंग और अंडकोष हटाने से हिजड़े तपस्वियों की श्रेणी में आ जाते हैं, क्योंकि बधियाकरण इच्छा से मुक्ति, सुख के त्याग और दर्द के सलीब के समान है.

भारत में तेजी से बढ़ रहा दक्षिणपंथी राजनीतिक माहौल, जो अक्सर अन्य संस्कृतियों की कीमत पर हिन्दू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देता है, हिन्दू और मुस्लिम हिजड़ों के बीच खाई को बढ़ा रहा है. तनाव तब और बढ़ गया जब त्रिपाठी ने सार्वजनिक रूप से उस जगह पर राम मंदिर निर्माण का पक्ष लिया जहाँ 1992 में हिन्दुओं ने मस्जिद गिरा दिया था, जिसके फलस्वरूप दंगे भड़क गए और हजारों लोगों की जाने चली गईं. कई भारतीय जेंडर-नॉनकंफर्मिंग, ट्रांस और इंटरसेक्स व्यक्तियों ने राम-मंदिर के लिए किन्नर अखाड़ा के समर्थन का विरोध किया, उनका मानना था कि इससे हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच वैमनस्य बढ़ेगा.

ये संघर्ष किन्नर अखाड़े के सामने पैदा हुई दुविधाओं को दर्शाते हैं: हिन्दू सिद्धांतों के माध्यम से हिजड़ों की स्थिति को वैध बनाने का प्रयास करके, क्या वे गैर-हिन्दुओं को बाहर करने और उस सहिष्णुता में बाधा डालने का जोखिम उठा सकते हैं जिसे वे प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रहे हैं.

धर्म और सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी स्थिति को हिजड़ों द्वारा पुनः प्राप्त किये जाने वाले प्रयासों को लेकर भी विवाद होते हैं.

किन्नर अखाड़े द्वारा सोशल मीडिया का उपयोग किये जाने को लेकर भी मिश्रित प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं. उन्होंने कुम्भ मेले से लाइव फीड स्ट्रीमिंग करके, युट्युबर्स को विशेष वीडियो बनाने दिए जाने, इन्स्टाग्राम में रंगीन और रोमांचक कंटेंट शेयर कर और कुम्भ के दौरान भारतीय ट्विटर पर #ट्रांसजेंडर की ट्रेंडिंग प्राप्त करके लोकप्रियता हासिल की. धार्मिक पीआर टीम जिसके प्रमुख एक पत्रकार हैं की पहल से, किन्नर अखाड़े से शाही स्नान करने वाले त्रिपाठी और अन्य हिजड़ों की तस्वीरें स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों में छपी थीं.

हालाँकि, समूह की तेजी से बढ़ रही लोकप्रियता को पुराने धार्मिक मठों के लिए चुनौती के रूप में देखा जा रहा है. कुम्भ मेला के आयोजकों ने किन्नर अखाड़ा को मेले वाले स्थान पर मुख्य भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र से अलग टेंट लगाने की अनुमति दी है. कुम्भ मेला पर फील्डवर्क करने वाले एक शोधार्थी के अनुसार, पारम्परिक अखाड़ों के कुछ सदस्यों ने किन्नर अखाड़ा का पता पूछने वाले लोगों को जानबूझकर गलत रास्ता बताया, ताकि उनके दर्शकों को कम किया जा सके.

फिर भी भक्त दूर स्थित इस सुनहरे रंग के टेंट को उपदेवी से आशीर्वाद लेने और उनके साथ सेल्फी लेने के लिए ढूंढने में सफल रहे. और हिजड़ों ने अपने इस नए प्रतिनिधिक स्थान में कुछ समय के लिए ही सही खुद को सशक्त महसूस किया.

*लोगों की गोपनीयता की रक्षा के लिए, लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी और लेखक के अलावा सभी नाम छद्म नाम हैं. 

( इना गोयल एक स्वतंत्र लेखक और लाडली मीडिया फेलो (2022) हैं. इस आलेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने निजी हैं जिसका लाडली और यूएनएफपीए से कोई आवश्यक सम्बन्ध नहीं है )