साहित्य - संस्कृति

मशाल –ए –प्रेमचंद : हर्ष और उत्साह से लबरेज एक नए प्रगतिशील मेले की शुरुआत

राम नरेश राम

नई दिल्ली, 8 अगस्त। अपनी सांस्कृतिक प्रैक्टिस को जमीनी स्तर पर ले जाने की मंशा से जन संस्कृति मंच की दिल्ली –एनसीआर इकाई ने एक बड़ी चुनौती के रूप में प्रेमचंद की जयन्ती को मशाल –ए –प्रेमचंद के रूप में मनाने का फ़ैसला लिया. इस प्रयोग के लिए जसम ने ग़ाज़ियाबाद के वसुंधरा के सेक्टर 9 में स्थित जनसत्ता अपार्टमेंट को चुना गया क्योंकि यह अपार्टमेंट बिना किसी शर्त पर अपनी जगह और अन्य सुविधाएँ मुफ्त में उपलब्ध करवाने के लिए राज़ी हो गया. एक बार जगह पक्की हो जाने पर हमने आस पड़ोस में अपना अभियान शुरू किया. अभियान का मुख्य मकसद सेन्ट्रल दिल्ली के सांस्कृतिक अड्डों के समानान्तर रिहायशी इलाकों में आम लोगों के बीच सांस्कृतिक प्रेक्टिस की शुरुआत करना था. इसके लिए हमने अलग –अलग हाउसिंग सोसाइटी, स्कूलों और दूसरे रिहायशी इलाकों में रहने वाले बच्चों को प्रेमचंद की चुनी हुई कहानियाँ सुनाकर उन्हें चित्र बनाने के लिए प्रेरित करना था. फिर इन चित्रों की बड़ी प्रदर्शनी 31 जुलाई के प्रोग्राम में जनसत्ता अपार्टमेंट में होनी तय थी.

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बच्चों द्वारा बनाए गए चित्र

मेले की तैयारी
जसम की टीम और उसके शुभेच्छुओं की मदद से कहानी सुनाने का सिलसिला 15 दिन में पूरा हुआ जिस दौरान 9 जगहों के 500 बच्चों को ईदगाह, बड़े भाई साहब, पूस की रात और दो बैलों की कथा सुनाई गई. ये जगहें थीं – रामप्रस्थ, ग़ाज़ियाबाद में दीप मेमोरियल पब्लिक स्कूल, अर्थला, ग़ाज़ियाबाद में अर्थला बाल विद्यालय, वसुंधरा में जनसत्ता अपार्टमेंट, नॉएडा एक्सटेंशन में गौर सिटी, इंदिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद में ज्ञान खंड और वैभव खंड, वसुंधरा सेक्टर 9 में राम कृष्ण इंस्टिट्यूट, वसुंधरा सेक्टर 9 में सहयोग अपार्टमेंट और राजेंद्र नगर, साहिबाबाद. कहानी पाठ के लिए संजय मट्टू और पूर्णिमा अरुण जैसे प्रशिक्षित कलाकार उपलब्ध थे तो सुनीता, पंकज श्रीवास्तव, संजय जोशी, योगेन्द्र आहूजा, आरती उपाध्याय और रश्मि भारद्वाज ने पहली बार अपने कलाकार को परखा और बच्चों के साथ खूब आनंद किया. इस प्रयोग के फलस्वरूप न सिर्फ 500 बच्चों को प्रेमचंद के जीवन सत्य से परिचय हुआ बल्कि उनके साथ ही उनके मां – पिता भी प्रेमचंद साहित्य की तरफ आकर्षित हुए. इस कसरत के कारण तकरीबन 250 सुन्दर चित्र भी मिले जिन्हें 31 जुलाई को एक बड़ी चित्र प्रदर्शनी की तरह प्रस्तुत किया गया.

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कहानी पाठ में बच्चों ने खूब रुचि दिखाई

31 जुलाई को जनसत्ता अपार्टमेंट एक विशाल मेले में तब्दील हो इसके लिए एक सुचिंतित अभियान की योजना बनाई गयी. 500 पोस्टर, 3000 पर्चे और 500 निमंत्रण पत्रों की मदद से दिल्ली यूनिवर्सिटी के उत्तरी परिसर के कालेजों, वसुंधरा के बाज़ार और साप्ताहिक सब्जी बाजार में 15 दिन तक प्रचार किया गया. साथ ही साथ फेसबुक और ईमेल से भी प्रचार किया गया. सबसे ज्यादा सघन और प्रभावशाली प्रचार सब्जी मंडी में पर्चे बांटते हुआ. 2 घंटे में 2 लोगों ने तकरीबन 200 लोगों से संपर्क किया. यह आश्चर्यजनक था कि 80 फीसदी लोगों की दिलचस्पी प्रेमचंद में थी. कुछ ने तो यह तक कहा कि हम आज जो कुछ हैं वह प्रेमचंद की वजह से ही है.

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घरेलू स्पेस को सांस्कृतिक स्पेस में बदलना
31 जुलाई की अल्लसुबह से ही जनसत्ता अपार्टमेंट एक नए सांस्कृतिक मेले की तरह सजने लगा. इसके प्रवेश के दो किनारों पर लोहे के पोल गाड़कर दो फ्लेक्स लगाए गए जिसमे बहुत बड़े फॉण्ट में मशाल –ए – प्रेमचंद लिखा हुआ था. इसी के साथ प्रेमचंद का धीर गंभीर पोर्ट्रेट हर आते –जाते का ध्यान खींच रहा था. जन संस्कृति मंच से सम्बद्ध जन कलाकार समूह के कलाकारों ने प्रेमचंद की सारगर्भित टिप्पणियों को आधार बनाकर 8 विशाल चित्र बनाये. जब ये चित्र जनसत्ता अपार्टमेंट के विभिन्न ब्लाकों के फ्लैटों की बालकनी से लटककर खुले स्पेस में दिखे तो एक प्रेमचंदीय आभा पूरे अपार्टमेंट में व्याप्त हुई . यह व्याप्ति तब और भी चमकदार हुई जब बच्चों के बनाये 250 चित्रों से बी ब्लाक की पूरी पार्किंग प्रेमचंद के साहित्य की रोशनी को अलग –अलग सुन्दर भावों में अभिव्यक्त कर रही थी. इस चित्र गैलरी से गुजरना खुशी के एक अलग अनुभव से गुजरने जैसा था. इस भाव को बरक़रार रखने में घुमंतू पुस्तक मेला, लेखक मंच प्रकाशन और विजय शर्मा के बुक स्टालों ने भी मदद करी जहाँ सजाई गई तकरीबन 500 किताबें ज्ञान का मजा लूटने का खुला आमंत्रण दे रही थीं.
जनसत्ता अपार्टमेंट के बहुमंजलीय ए और बी ब्लाकों के बीच पसरे पड़े 30 फ़ीट चौड़े और 80 फ़ीट लम्बे खुले स्पेस को मंच में बदला गया. 120 वर्ग फ़ीट के विशाल फ्लेक्स को बैकड्राप की तरह इस्तेमाल किया गया जिसमे प्रेमचंद का धीर गंभीर पोर्ट्रेट और अभियान का नाम मशाल –ए – प्रेमचंद पूरी आभा के साथ दमक रहा था . जब ठीक 5 बजे संगवारी की टीम ने गोरख पाण्डेय के गीत से प्रोग्राम शुरू किया तो न सिर्फ आयोजकों को बल्कि वसुंधरा के दर्शकों को भी यह समझ में आने लगा कि हमारे रिहायशी स्पेस भी बहुत कम रुपये खर्च कर कलात्मक सांस्कृतिक स्पेस में बदले जा सकते हैं .

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संजय मट्टू और समन हबीब की प्रस्तुति  ‘ढाई आखर प्रेम का ’

मेले का दिन
कार्यक्रम की शुरुआत संजय मट्टू और समन हबीब द्वारा प्रस्तुत ‘ढाई आखर प्रेम ’ का’ से हुई जिसमे उन्होंने प्रेमचंद के ख़तों के जरिये उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचय करवाया. आधे घंटे की इस प्रस्तुति ने दर्शकों को प्रेमचंद के बारे में सोचने के लिए मजबूर किया और सही तरह से उन्हें जानने समझने के लिए प्रेरित भी.
ख़तों की प्रस्तुति के बाद आशुतोष कुमार के कुशल संचालन में ‘प्रेमचंद के सपनों का भारत’ विषय पर एक परिचर्चा हुई. परिचर्चा में कँवल भारती ने प्रेमचंद के पत्रों और लेखों के हवाले से कहा कि ‘प्रेमचंद सही मायने में अंतर्राष्ट्रीयतावाद में विश्वास करते थे. वे हिन्दू पुनरुत्थान की संस्कृति के आलोचक थे. प्रेमचंद ने प्रसाद के उस साहित्य की आलोचना किया जिसमे हिन्दू पुनरुत्थान की वकालत थी. कुछ दलित चिन्तक प्रेमचंद को सामंत का मुंशी कहते हैं लेकिन मैं कहता हूँ कि प्रेमचंद सही मायने में लोकतंत्र के मुंशी हैं. वे परिवार से लेकर समाज तक में लोकतंत्र चाहते थे.’ मिरांडा हॉउस दिल्ली विश्वविद्यालय की एसोसिएट प्रोफ़ेसर रजनी दिसोदिया ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री विषय को केंद्र में रखते हुए कहा कि ‘प्रेमचंद का जब सृजनात्मक साहित्य पढ़ते हैं तब कई पात्रों के कथनों से ऐसा लगता है कि उनकी दृष्टि स्त्री के प्रति परम्परावादी है लेकिन जब हम उनके निबंधों और अन्य साहित्य को पढ़ते हैं तो प्रेमचंद एक क्रांतिकारी लगते हैं.’ इस सवाल पर संचालक आशुतोष कुमार ने सुझाया कि ‘सृजनात्मक साहित्य खासकर कहानी और उपन्यास में पात्रों के कथनों से लेखक के विचार को चिन्हित कर पाना मुश्किल है इसीलिए लेखक के विचार को जानने के लिए शायद यह पद्धति उपयुक्त नहीं है. आलोचक और अनुवादक गोपाल प्रधान ने प्रेमचंद के साहित्य में जमीन के प्रश्न विषय को केंद्र करके कहा कि ‘प्रेमचंद के साहित्य में औपनिवेशिक शासन व्यवस्था द्वारा की जा रही बदलावकारी नीतियों की आलोचना मिलती है. रंगभूमि उपन्यास का नायक सूरदास दरअसल जमीन के ही सवालों से  संघर्ष करता हुआ दिखता है. प्रेमचंद ने जिस फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी थी उसका नाम भी कहीं- कहीं मजदूर मिलता है कहीं -कहीं मिल मिलता है. यह अनायास ही नहीं था कि इस फिल्म को बैन कर दिया गया और अब उसका कोई रिकार्ड नहीं मिलता है.’ युवा कवि और आलोचक मृत्युंजय ने प्रेमचंद की उन कहानियों के हवाले से चर्चा को आगे बढाया जो बच्चों के जीवन पर हैं. उन्होंने गुल्ली डंडा , बड़े भाई साहब आदि का जिक्र करते हुए कहा कि ‘प्रेमचंद की ये कहानियां बच्चों के लिए नहीं बल्कि बच्चों पर लिखी गयी कहानियाँ हैं. ये बच्चों  के लिए लिखी गयी कहानियां मानी गयीं, लेकिन इन कहानियों में गहरे निहितार्थ हैं. उन्होंने कहा कि जिन बच्चों ने प्रेमचंद की कहानियों को सुनकर चित्र बनाया है वे चित्र प्रेमचंद की व्याख्याएं हैं.’
परिचर्चा के खत्म होने और नाटक के लिए स्टेज की तैयारी के लिए मिले वक्त का अच्छा इस्तेमाल पूरे आयोजन का संचालन कर रहे पंकज श्रीवास्तव ने किया. उन्होंने उपस्थित दर्शक समूह के सामने एक बार पूरे विस्तार के साथ मशाल- ए – प्रेमचंद की अवधारणा को समझाया और उन्हें प्रेरित किया कि क्यों प्रेमचंद को आज के समय में बार –बार पढ़ने और गुनने की जरुरत है.

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‘प्रेमचंद के सपनों का भारत’ विषय पर परिचर्चा

‘संगवारी’ द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले नाटक ‘सत्याग्रह’ की प्रस्तुति के लिए बड़ों से भी ज्यादा बच्चों में उत्सुकता थी क्योंकि परिचर्चा के दौरान खुले में हो रहे मेकअप को वे देख चुके थे और अब उनका धैर्य की सीमा खत्म हो रही थी. अपनी पूरी लकदक के साथ संगवारी की 15 सदस्यीय टीम ने जब सबसे पहले एक गाना गाया तो बच्चों के साथ बड़ों को भी मजा आना शुरू हुआ. लगभग 1 घंटे की इस प्रस्तुत्ति में प्रेमचंद के धर्म और पाखण्ड के ढोंग पर किये गए हमले को सभी दर्शकों ने गहराई से महसूस किया. फंड की कमी के कारण नाटक टीम के पास समुचित माइक्रोफोन नहीं थे इसलिए नाटक का प्रभाव बीच –बीच में कमतर हो रहा था लेकिन फिर भी दर्शकों ने पूरी एकाग्रता के साथ प्रेमचंद की कहानी ‘सत्याग्रह’ के साथ तादात्म्य बनाने के कोशिश की. सत्यजित रॉय निर्देशित फ़ीचर फ़िल्म के शुरू होते –होते 8.15 बज गए फिर भी तकरीबन 100 लोगों का समूह इसे देखने के लिए बैठा रहा. फ़िल्म का संछिप्त परिचय देते हुए आयोजन से जुड़े संजय जोशी ने लोगों को हाल में गुजरात में हुए दलित उत्पीड़न और उसके नतीजों की ठीक ही याद दिलाई. ‘सद्गति’ के स्क्रीनिंग से निकलता हुआ दलित विमर्श और अपार्टमेंट की चहारदीवारी से बमुश्किल 100 मीटर की दूरी पर निकलती कांवड़ियों के सावनी उदंड की आवाजें एक मजेदार कंट्रास्ट पैदा कर रही थीं और लोगों को इस तरह के आयोजन बार –बार किये जाने के लिए प्रेरित भी कर रही थीं.
रात 9 के आसपास जब फ़िल्म समाप्त हुई तो मंज़र एक बड़े मेले के टूटने, उससे उपजी खुशी और उदासी जैसा था. धन्यवाद देते हुए जनसत्ता अपार्टमेंट समिति के अध्यक्ष रवींद्र त्रिपाठी ने ठीक ही कहा कि ‘हमें ऐसे मेले बार –बार और हर जगह करने की जरुरत है.’ दिन भर लगभग 400 बच्चों- वयस्कों से गुलज़ार हुए जनसत्ता अपार्टमेंट में अब सिर्फ प्रेमचंद की नसीहतों से सजे लहराते हुए विशालकाय चित्र इस रास्ते पर और मजबूती से चलने की ताकीद कर रहे थे .

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