साहित्य - संस्कृति

‘ चिंतन में डॉ आंबेडकर के विस्तार हैं प्रो तुलसीराम ’

 

प्रो तुलसीराम स्मृति व्याख्यानमाला का आयोजन

गोरखपुर। गोरखपुर विश्वविद्यालय के अंबेडकर छात्रावास में 13 फरवरी को प्रख्यात चिंतक प्रोफेसर तुलसीराम की स्मृति में तुलसीराम स्मृति व्याख्यानमाला के अंतर्गत व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यानमाला में मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रोफेसर राजेश कुमार मल्ल ने कहा कि तुलसीराम हाई पावर जनरेटर की तरह थे जो बहुत दूर तक सोचते थे। योगेंद्र सिंह की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की थीसिस पर तुलसीराम जी ने बहस किया था। वह एक पब्लिक इंटेलेक्चुअल थे, जो इतिहास, वर्तमान और भविष्य तीनों के प्रति समग्रता में विचार करते थे।

प्रो. मल्ल ने कहा कि तुलसीराम जी का अंतर्राष्ट्रीय चिंतन मार्क्सवाद पर आधारित था। भारतीय समाज व्यवस्था के बारे में चिंतन करते समय वे अंबेडकर का सहारा लेते हैं। वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने मार्क्सवाद के भीतर पनपने वाली वर्ण व्यवस्था पर प्रश्न उठाया। आरंभिक दिनों में मार्क्सवादी पार्टियों ने जाति के सवाल को बहुत शिद्दत से नहीं उठाया। 1997-98 में समकालीन जनमत ने दलित साहित्य पर केंद्रित एक अंक का प्रकाशन किया। 1998 99 में गोरखपुर विश्वविद्यालय में दलित साहित्य पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया। उन्होंने कहा कि वह पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने दलित ही सर्वहारा है और सर्वहारा ही दलित है, को सूत्रबद्ध किया। यह सच्चाई है कि राहुल सांकृत्यायन के बाद हमारे पास तुलसीराम हैं जिनसे हमने बहुत कुछ रिसीव नहीं किया। यही कारण है कि हमने छोटी-छोटी जगहों पर छोटे-छोटे महत्वपूर्ण काम करने वाले लोगों की पहचान नहीं की।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए जन संस्कृति मंच गोरखपुर के अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार अशोक चौधरी ने कहा कि गोरखपुर का अंबेडकर हॉस्टल वैचारिक बहसों का केंद्र रहा है। तुलसीराम जी के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि दलित आंदोलन की जो समीक्षा तुलसीराम जी ने की है उसका आधार मार्क्सवाद ही है। उनका स्पष्ट विचार था कि हमें एक लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करना है। प्रोफेसर तुलसीराम अपने चिंतन के कारण ही बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर के विस्तार जैसे लगते हैं। उन्होंने भारत के फासीवादी दौर को उसकी आहट को पहले ही पहचान लिया था। भारत के दलित आंदोलन की त्रासदी यह है कि उसने सामाजिक आंदोलन को ही खत्म कर दिया। ललई यादव की किताब सच्ची रामायण पर आधारित नाटक करने वाले दलित कलाकारों को जब गिरफ्तार किया गया तो उस समय बसपा की ही सरकार थी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वर्चस्व की विचारधारा केवल ब्राम्हण में ही नहीं पायी जाती है बल्कि वह हमारे भीतर भी है। इसको खत्म किए बिना किसी लोकतांत्रिक समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता।

सामाजिक चिंतक और लेखक डॉक्टर अलख निरंजन ने कार्यक्रम में बोलते हुए कहा कि हमें इस बात पर गर्व है कि हम तुलसीराम जी से मिल चुके हैं। उन्होंने कहा कि प्रोफेसर तुलसीराम एक ज्ञान पिपासु व्यक्ति थे ठीक उसी तरह जैसे बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर। वे सच्चे मायने में एक पब्लिक इंटेलेक्चुअल थे। ज्ञान के क्षेत्र में प्रोफ़ेसर तुलसीराम जी के साथ भेदभाव हुआ। वह जितनी तार्किकता से मार्क्सवाद पर बात करते थे उतनी ही तार्किकता के साथ अंबेडकरवाद और बौद्ध धर्म पर भी बात करते थे । आजीवक समाज पर भी उनका खासा अध्ययन था। वे मानते थे कि अगर भारत में फासीवाद की स्थापना हो जाती है तो यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना होगी और दुनिया के एक चौथाई लोग इसके शिकार हो जाएंगे।

दर्शनशास्त्र के अध्यापक और चिंतक डॉक्टर हितेश सिंह ने कार्यक्रम में बोलते हुए कहा कि भारत में मार्क्सवाद अंबेडकर के रास्ते ही आ सकता है। जन संस्कृति मंच द्वारा यह आयोजन इस बात के लिए आश्वस्त करता है। उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति को पूर्ण नहीं मान लेना चाहिए । हमें नए विमर्शों को अवसर देना चाहिए। किसी भी संघर्ष में पहली लड़ाई भाषा के स्तर पर लड़ी जाती है। दुनिया के किसी भी समाज में कोई वंचित नहीं होता बल्कि उसे वंचित किया जाता है। ऐसे में दलित मुक्ति का अर्थ है उस व्यवस्था से मुक्ति जो हमें वंचित बनाती है। ब्राह्मण धर्म का आधार परलोकवाद है और इस दर्शन से हमारा क्रोध स्थगित हो जाता है। एक चेतना संपन्न व्यक्ति के लिए धर्म की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है ऐसे में जब हमारा संविधान समता स्वतंत्रता और बंधुत्व की प्रस्तावना देता है तो यह किसी भी धर्म से ऊपर की चीज है, लेकिन जब तक समाज में सांस्कृतिक जड़ता है एक वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती रहेगी।

उन्होंने कहा कि राजनीतिक शक्ति सांस्कृतिक बदलाव की प्रक्रिया को तेज कर देती है। इस दौर में इसके कई उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। मनुस्मृति पर आधारित न्यायालय की स्थापना की जा रही है। बाबा साहब ने जरूर यह कहा था कि हर पीढ़ी को नए संविधान की आवश्यकता पड़ेगी लेकिन वर्चस्ववादी लोग इसका अलग पाठ अलग ढंग से करते हैं और संविधान के भारतीयकरण के नाम पर उसका ब्राह्मणीकरण करने की कोशिश करते हैं।


डॉक्टर विश्वंभर प्रजापति ने कहा कि प्रोफेसर तुलसीराम अपनी बात बहुत शांति पूर्वक लेकिन तार्किक ढंग से कहते थे। वह आरंभिक दौर में सीपीआई से जुड़े हुए थे और नक्सलवादी आंदोलन से भी प्रभावित थे। समाज में व्याप्त गैर बराबरी पर व्यंग्यात्मक लहजे में टिप्पणियां करते थे। तुलसीराम जी मानते थे कि ब्राह्मण धर्म लोक हित में नहीं है। उनका नैरेशन करने का तरीका ज्यादा ह्यूमर वाला था । गौतम बुद्ध ने दुख के विनाश, डॉक्टर अंबेडकर ने जाति के विनाश  और कार्ल मार्क्स ने निजी संपत्ति के विनाश की बात की थी । इन चीजों से प्रोफेसर तुलसीराम काफी प्रभावित थे।

विजयश्री मल्ल ने कहा कि मैंने दोनों आत्मकथाएं पढ़ी हैं। इन आत्मकथाओं से यह पता चलता है कि भारत में दो तरह की परंपराएं रही हैं। साधारण जन की परंपरा जिस पर बाद में ब्राह्मणवादी संस्कृति प्रभावी हो गई। अभी भी लोक त्योहारों का तेजी से ब्राह्मणीकरण हो रहा है। लेकिन बौद्ध धर्म में पाखंड नहीं है, ऊंच-नीच की भावना नहीं है भेदभाव नहीं हैं। यह मध्यम मार्ग का धम्म है। यह हमें बेहतर मार्ग पर ले जाता है। मणिकर्णिका पढ़ने पर हमें पता चलता है कि मार्क्सवादी विचारधारा में भी एक जाति विशेष का वर्चस्व था।

शोध छात्र संतोष कुमार ने बोलते हुए कहा कि जसम के माध्यम से ऐसे व्यक्ति को याद किया जा रहा है जिनका दलित साहित्य में बड़ा योगदान है । उनका अंग्रेजी में लेखन विशद है। अगर वह हिंदी में प्रकाशित होता है तो यह महत्वपूर्ण काम होगा। उनके विदेश की यात्राओं का अनुभव आना बाकी था।

पद्मिनी ने कार्यक्रम के आरंभ में बोलते हुए कहा कि सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का सामना करते हुए प्रोफेसर तुलसीराम जेएनयू पहुंचे थे। समाज में अभी भी अंधविश्वास व्याप्त है। मेरे गांव में भी एक मुर्दहिया थी जहां जाने नहीं दिया जाता था, यह मान्यता थी कि वहां जाने पर बीमार हो जाऊंगी। तुलसीराम जी को पढ़कर यह जाना कि किताबें समाज को जानने का अच्छा माध्यम है।
कार्यक्रम में धमेंद्र ने भी सवालों के माध्ययम से अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज की।

कार्यक्रम के आरंभ में बीज वक्तव्य देते हुए रामनरेश राम ने कहा कि दलित आंदोलन की बहुत सारी आवाजें हैं। जिस तरह भारत एक बहुसांस्कृतिक देश है उसी तरह से दलित आंदोलन में भी एक खास तरह की विविधता दिखाई देती है। उसका एक पाठ प्रोफेसर तुलसीराम के चिंतन में भी दिखाई देता है। कई बार टकराहट भी दिखाई देती है। कई बार नया विकल्प बनाते हुए दिखते हैं। वे नए विमर्श को जन्म देने वाले चिंतक थे। दलित आंदोलन के परिष्कार की भी बात करते थे। एक समग्र चिंतक के रूप में पूरे दलित आंदोलन और भारतीय समाज का अध्ययन करते थे। बौद्ध धर्म पर उन्होंने अधिक चिंतन किया। भारत में दलित मुक्ति के प्रसंग को लेकर तरह तरह से लोग चिंतनशील रहे हैं। डॉ बाबासाहेब आंबेडकर भी अपने जमाने में इसको लेकर के चिंतन किया। भारत में जो वंचित समुदाय है, दलित है, पिछड़ा है और जो गैर दलित और गैर पिछड़ा भी है अगर वह किसी न किसी रूप में गुलाम है, वंचित है तो उसकी मुक्ति का तो जो सांस्कृतिक पक्ष होगा वह क्या होगा ?

उन्होंने कहा कि भारत में लोगों के सांस्कृतिक पक्ष को परिभाषित करने का, भारत ही नहीं पूरी दुनिया में संस्कृति को परिभाषित करने का प्रचलित तरीका धर्म रहा है। बाबा साहब ने भी इस पर चिंतन किया और मैं समझता हूं कि आधुनिक भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित करने का काम बाबा साहब ने किया था। बाबा साहब ने एक तरह से बौद्ध धर्म को पुनर्जीवन दिया, मुक्ति के दर्शन के रूप में, धर्म के रूप में, एक मार्ग के रूप में फिर से परिभाषित किया। इसका गहरा असर भारतीय समाज के मुक्ति के बारे में चिंतन करने वालों पर पड़ा।  बौद्ध धर्म एक माध्यम हो सकता है परिवर्तन का, बदलाव का। तो उसमें एक प्रोफेसर तुलसीराम भी थे। वह मानते थे कि भारत में अगर कोई सांस्कृतिक परिवर्तन होना है, सामाजिक परिवर्तन होना है तो उसके लिए बौद्ध धर्म एक जरूरी सांस्कृतिक माध्यम है। उसके बगैर उसके सांस्कृतिक खालीपन को भरना सामाजिक परिवर्तन के लिए संभव नहीं है। क्योंकि सामाजिक परिवर्तन और धर्म की संरचना दोनों में टकराहट पहले से ही महसूस की जाती रही है। जिस धार्मिक संरचना को लेकर , हिंदू धर्म को लेकर के, यह व्याख्या होती रही है कि विषमता ही हिंदू धर्म की आत्मा है, भेदभाव हिंदू धर्म की आत्मा है तो उसके विकल्प के रूप में क्या होगा? तो जाहिर सी बात है के भारत के इतिहास के तमाम चरणों में बौद्ध धर्म को लेकर चिंतन होता रहा है। भारत में अगर कोई परिवर्तन होता है तो बौद्ध धर्म उसकी धुरी बन सकता है, एक माध्यम बन सकता है।

डॉ रामनरेश ने कहा कि प्रो तुलसीराम समग्रता में विचार करते थे। दलित राजनीति और दलित साहित्य को परिभाषित करते हुए वे किसी हदबंदी की तरफ नहीं बढ़ते थे। उन्होंने कहा कि जातिवाद के खिलाफ, धार्मिक संकीर्णता के खिलाफ, सांप्रदायिकता के खिलाफ जो लोग भी साहित्य लिख रहे हैं, जो लोग भी एक बेहतर समाज के निर्माण की बात कर रहे हैं वे सभी लोग एक तरह से दलित साहित्य लिख रहे हैं। उनके यहां चिंतन के ढेरों आयाम हैं जिससे हमारी टकराहट भी हो सकती है, जिनको हम खारिज भी कर सकते हैं, जिसको लेकर हम आगे भी बढ़ सकते हैं। प्रो तुलसीराम बहुत लोकतांत्रिक थे अपने चिंतन में और अपनी जीवन शैली में भी तो हम भी उन पर बात करते हुए उस लोकतांत्रिक भावना का पालन क्यों नहीं कर सकते हैं।

कार्यक्रम का संचालकन हिंदी विभाग के शोध छात्र पवन कुमार ने किया और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. रवींद्र प्रताप सिंह ने किया। इस आयोजन में डॉ. सुनीता कुमारी, जलेस के जयप्रकाश मल्ल, अन्नत कीर्ति आनंद, रिंकी प्रजापति, अंकित, सुधीराम, आनंद पांडेय,पद्मिनी मल्ल, विजय कुमार भारती, मयंक आजाद, हरी लाल गौतम, अभिषेक कुमार, मनीष कुमार, कुलदीप कुमार, संतोष कुमार समेत छात्रावास के अंतःवासी शामिल हुए।

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