साहित्य - संस्कृति

सत्ता की प्रशस्ति कविता नहीं हो सकती -अशोक चौधरी

देवरिया (उप्र)। ‘ सत्ता की प्रशस्ति कविता नहीं हो सकती है। कविता सत्ता की प्रतिपक्ष होती है,अगर कविता मनुष्य की पीड़ा के साथ नहीं खड़ी होती है, उसे मैं कविता नहीं मानता हूँ। ‘

यह बातें जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय पार्षद अशोक चौधरी ने 10 दिसम्बर को जनसंस्कृति मंच एवं नागरी प्रचारिणी सभा के संयुक्त तत्वावधान में कवि डा.आर.अचल पुलस्तेय के काव्य संग्रह “लोकतंत्र और नदी” पर आयोजित परिचर्चा में मुख्य वक्ता के रुप में कही। श्री चौधरी ने कहा कि पुलस्तेय की कवितायें शोषक तत्वो को उजागर करती हैं,इसके निराकरण की प्रयास करती प्रतीत होती हैं। लोकतंत्र और नदी काव्य संग्रह में कवि ने लोकतंत्र और नदी के खतरे के प्रति अगाह करते हुए बचाने का आह्वान करता है। यही इस पुस्तक सार्थकता है।

कवि उद्धभव मिश्र ने कहा कि “लोक तंत्र और नदी” में अचल पुलस्तेय ने अपने समय और समाज की पथरीली जमीन पर कविता के फूल उगाये हैं, जहाँ तितलियों के रंग और भौरों की गुंजार है तो काँटो की भरमार भी है। यही कारण है कि कवि पुलस्तेय के कविता संसार मे सरपट दौड़ा नहीं जा सकता। सामाजिक विसंगतियों से उपजी पीड़ा काँटे के मानिंद चुभती है। सत्ताईस कविताओं के इस संकलन में कवि का ऐसा जनपक्षधर स्वरूप सामने आता है जो अभिव्यक्ति के हर खतरे उठाते हुये परिवर्तन के लिए जद्दोजहद करता है। संकलन की पहली कविता ‘ लोकतंत्र और नदी ‘ हमारे लोकतंत्र को सही अर्थों में लोकतांत्रिक होने पर सवाल खड़ा करती है तो सावधान भी करती है। इस काव्य संग्रह के रचनाकार परम्पराओं से लड़ने के बजाय उसकी चीरफाड़ करता दिखता है।

इस क्रम में नागरी प्रचारिणी सभा के पूर्व मंत्री इन्द्रकुमार दीक्षित ने कहा कि पुलस्तेय की एक कविता सौ कविताओं का भाव प्रस्तुत करते हुए सोचने पर विवश करती है। प्रो दिवाकर प्रसाद तिवारी ने अपना विचार रखते हुए कहा कि पुलस्तेय अपने रचनाकार के दायित्वों बखूबी निर्वहन किया है।

परिचर्चा का संचालन करते हुए कवि सरोज पान्डेय ने कहा कि शोषित पीड़ित जन की मुक्ति के लिये कवि के अंतर्मन की छटपटाहट विचारों के ताने बाने में आधुनिकता वाद का अनुभव कराती है तो संकलन की कुछ कविताएं इस मिथ को तोड़ कर साबित करती हैं कि पुलस्तेय के कविता की फसल उत्तर आधुनिकता के जमीन पर लहरा रही है।
उदारीकरण , वैश्वीकरण और निजीकरण के माध्यम से एक ऐसे समाज का सपना दिखाया गया जहाँ पूँजी वाद केसमक्ष दुनियाँ ने सर झुका लिया । पूँजी की सुनहली तलवार के सामने आम आदमी ने खुद अपनी गरदन रख दिया है ।ऐसी तलवार से कटने का मजा कुछ और ही है ।बड़ी मोहकता से सर उतार कर स्वर्ग पहुंचा देंने के इस खेल के बहुत भीतर तक जाकर कविता अँधेर को चीर कर अदृश्य को दृश्यमान करते हुए ऊपर वाले को चुनौती देती है।

परिचर्चा में नागरी प्रचारिणी सभा के मंत्री डा.अनिल कुमार दीक्षित,अध्य़क्ष आचार्य पमेश्वर जोशी ने भी अपना विचार व्यक्त किया।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र कवि गोष्ठी मे पार्वती देवी,श्याम बिहारी दूबे,लालता प्रसाद,इन्द्रकुमार दीक्षित, नित्यानन्द आनन्द, प्रेम कुमार शाह,रमेश तिवारी,विकास तिवारी,दयाशंकर कुशवाहा आदि ने काव्य पाठ किया। इस अवसर पर सतीश चन्द्र भाष्कर,विजय शंकर यादव,रविन्द्रनाथ तिवारी, शशिकान्त मिश्र,अनिल कुमार त्रिपाठी, गोपाल कृष्ण सिंह, दिनेशकुमार त्रिपाठी, रमाकान्त गौड़,हृदयनारायण जायसवाल, डा.सौरभ श्रीवास्तव जी.करण, ओमप्रकाश चौबे, प्रणय कुमार श्रीवास्तव,आनन्द आर्य,नन्दलाल गौड़,अजय कुमार, मितुलपाठक,आदि उपस्थित रहे।

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