विचार

सिनेमा के ज़रिये राजनीति

दिव्यल भूषण गुप्ता

आज हम ऐसी दुनिया में हैं जिसमें डिजिटल माध्यम जैसे कि टीवी ,  सिनेमा, सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इन्ही जैसी चीज़ें हमें हमेशा घेरे रहती है. स्मार्ट मोबाइल ने इस घेरेबंदी को और बढाया है. सिनेमा, एक समय समाज में चलने वाली गतिविधियों को हमारे सामने प्रस्तुत करने का खास जरिया था ,  लेकिन वह आज लोगों को चुनिंदा चीज़ों  के प्रति प्रेरित करना का काम कर रहा है . अगर हम गौर से देखें तो भाजपा के सत्ता में आने के बाद  ऐसी फिल्में हमे दिखाई  देती हैं  जिनका उद्देश्य  भाजपा के राजनीतिक विचारों की वकालत करना हैं और जनता के बीच इन विचारों के लिए स्वीकार्यता पैदा करना है.

दक्षिण भारत में फिल्मों और राजनीति का रिश्ता बहुत पुराना  है. दक्षिण भारत में फिल्मों ने राजनीति को  बहुत  गहरे तक प्रभावित  किया है.  एम जी रामचंद्रन  , एम करुणानिधि , जयललिता , एन टी रामाराव  , रजनीकांत , कमल हासन जैसे  लोग सिनेमा और राजनीति के रिश्ते के प्रमाण हैं. राजनीति पर  फिल्मों के प्रभाव को  भाजपा भी अपने हित में इस्तेमाल करना चाहती.  उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में सिनेमा और टीवी के कई नाम चीन चहेरों को अपनी पार्टी में शामिल किया और उन्हें टिकट दिया.  हेमा मालिनी ,  किरण खेर , स्मृति ईरानी , परेश रावल  , मनोज तिवारी  भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ें. अभी मौसमी चटर्जी भाजपा में शामिल हुई हैं. मीडिया से  टेलीग्राफ के संपादक रहे एमजी अकबर , जागरण के सीएमडी महेंद्र मोहन , सुभाष गोयल जैसे लोगों को राज्यसभा में न सिर्फ भेजा बल्कि एक को मंत्री भी बनाया.

संघ परिवार ने फिल्मकारों और कलाकारों के बीच घुसपैठ बना कर सिनेमा के जरिए अपनी विचारधरा के पक्ष में माहौल बनाने की योजना बनाई. इसी प्रयासों के तहत 2014 के बाद हमे ऐसी फिल्मों की  शृंखला दिखाई देती है , जो संघ और भाजपा के विचारों के  लिए परोक्ष रूप से कार्य करते दिखाई देती हैं . अगर हम  गौर से देखे तो भाजपा ने छदम राष्ट्रवाद के मुद्दे को  जनता के बीच जोरशोर से उठाया है. इसकी लिस्ट में  भाजपा के कुछ पसंदीदा मुद्दे भी  हैं , जो  वह  बार-बार उठती रहती है जैसे कश्मीर का मुद्दा , सोशल साइंस इंस्टिट्यूट का मुद्दा या प्रोटेक्टर्स का मुद्दा हो.| इन सारे मुद्दों को उठने के पीछे उसका उद्देश्य सिर्फ एक हैं – देश की सेना और  पुलिस का महिमामंडन करना.

2014 से अब तक देखना हम शुरू करें तो ऐसी दर्जनों फ़िल्में हैं  जिन्हें सिर्फ छदम राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया है . उदहारण के लिए 2015 में आयी ‘ एयरलिफ्ट ‘ को ही लें. यह फिल्म 1990  के दशक  में भारतीय  विदेश मंत्रालय और भारतीय  सरकारी विमान सेवा एयर इंडिया के संयुक्त बचाव कार्य पर आधारित  थी. इस कार्य  को ख़ासतौर पर कुवैत में फसे भारतीयों को बचने  के लिए चलाया गया था , जब इराक ने कुवैत पर हमला कर दिया था .

 इसी श्रृंखला में दूसरी फिल्म ‘ परमाणु : द स्टोरी ऑफ़ पोखरण है’ . यह फिल्म भारत में हुए प्रथम परमाणु बम के सफल परिक्षण  पर आधारित है. यह परिक्षण 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की  सरकार गिरने से कुछ ही पहले किया गया  था. यह फिल्म भाजपा सरकार की वकालत करते नज़र आ रही है. सेना जिसके अमूल्य योगदान से यह परिक्षण हो पाए , उससे  दूर – दूर तक सिर्फ सरकार की परछाई के अंतर्गत रखा गया है .

‘  उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक ‘  2016 में सेना के उरी  बेस पर हुए हमले का सेना की तरफ से दिए गए जवाब देने पर आधारित है . यह फिल्म एक तरह से हमारे देश के सर्वोच्च  न्यायालय पर व्यंग्य करती प्रतीत हो रही है.

इसके अलावा कुछ अन्य फिल्में और हैं , जो इसी मुद्दे पर बनायीं गयी है. इनमें बेबी (2015) , फैंटम (2015 ) , रुस्तम (2016 ) , कमांडो 2 (2017) , ग़ाज़ी अटैक (2017) , राज़ी (2018 ), ठाकरे (2019 )  आदि हैं.  इन सारी फिल्मों में जो सामान चीज़ देखने को मिलती हैं ,वह यह है कि ये सभी फ़िल्में भाजपा की विचारधारा को बढ़वा देती हैं और साथ ही सेना को एक बचावकारी माध्यम के रूप में इस्तेमाल करती नज़र आती  हैं.  इन सबके माध्यम से ही देश की एक बहुत बड़ी जनसंख्या को सरकार अपनी असफलताओं को छुपाने में सफल हो जाती है . इन असफलताओं  में मुख्य हैं , नोटबंदी का विफलता , शिक्षा का निजीकरण, किसान आत्महत्या आदि . जब भी यह सारे मुद्दे संसद या कही और भी उठाये जाते हैं ,  सरकार इनसे बचने के लिए के दूसरे अप्रासंगिक मुद्दे उठती है. जिनमे धर्म का मुद्दा , सोशल साइंस इंस्टिट्यूट में चलने वाली राष्ट्रयविरोधी गतिविधियाँ चलने का मुद्दा या देश से लूटा हुआ पैसा वापस लाने के मुद्दे को हवा दे कर ऊपर उल्लेख किये गये मुद्दों को दबा दिया जाता है.

इसमें दूसरी रोचक चीज़ जो देखने वाली है , वह  इन सारी फिल्मों की रिलीज़ की टाइमिंग. ‘ ठाकरे ‘ या ‘ द   एक्सीडेंटल  प्राइम मिनिस्टर ‘  दोनों ही फिल्में जनअरी 2019 में रिलीज़ हो रही हैं . दोनों फ़िल्में लोक सभा चुनाव के ठीक पहले रिलीज हो रही हैं. एक तरफ वह भाजपा की विचारधारा को ‘ ठाकरे ‘ से पोषित कर रही है , तो दूसरी तरफ ‘ द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर ‘ से वह कांग्रेस पार्टी पर निशाना साध रही है.

(लेखक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, गुवाहाटी के छात्र हैं और कैम्पस पत्रिका ‘ Campus Zephyr ’ से जुड़े हैं )

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