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“ सुनीता की कविताएं सभ्यता की रौशनी में अगोचर कर दिए गए लोगों को कविता में दृश्यमान करती हैं ”

गोरखपुर। “ सुनीता अबाबील कि कविताएं कर्तृत्व से वंचित किए गए लोगों और सभ्यता की रौशनी में अगोचर कर दिए गए लोगों को कविता में दृश्यमान करने का उपक्रम हैं। इसलिए ये कवितायेँ छोटी-छोटी काव्य कथाएं हैं। “

यह बातें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो प्रणय कृष्ण ने कही। प्रो प्रणय कृष्ण गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में कवयित्री सुनीता अबाबील की कविता संग्रह ‘ पाँच मर्दों वाली औरत’ के लोकार्पण और परिचर्चा कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में बोल रहे थे। यह आयोजन गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा साहित्य संवाद शृंखला के तहत किया गया था।

उन्होंने कहा कि कर्तृत्व के वंचित किए जाने का मतलब यह नहीं कि इन पात्रों की कोई गतिविधि नहीं, बल्कि महज यह कि वे वही कुछ करने को बाध्य हैं जो कथित सभ्य समाज ने उनके लिए निर्धारित किया है। उनकी क्रियाएं उनकी इच्छा से नहीं, दूसरों की इच्छा से संचालित हैं। इसीलिए ये किरदार लोगों से भरी हुई दुनिया में निविड़ अलगाव और परायापन झेलती हैं। स्त्री, दलित और श्रमजीवी गरीबों के स्वत्व से वंचित होने की कवितायेँ अनेक हैं। लेकिन सुनीता की कवितायेँ ऐसे चरित्रों की वंचना-कथा कहती हैं जो एक साथ तीनों हैं। ये तिहरा आत्मनिर्वासन जो इन कविताओं में व्यक्त हुआ है, अनेक तरह की भावदशाओं को समेटे हुए है, जिनकी केंद्रीय संवेदना दंश की है।

प्रो प्रणय कृष्ण ने कहा कि इस संग्रह को अलग-अलग कारणों से स्त्री या पुरुष दोनों के लिए पढ़ना एक लोमहर्षक अनुभव से गुज़रना है। स्त्री के लिए क्योंकि वह उस सर्वव्यापी हिंसा से आइडेंटिफाई करेगी और छपे हुए शब्दों में उसके घाव हरे हो जाएंगे, पुरुष के लिए क्योंकि उसे और उसकी दुनिया की आँख में उंगली डालकर वह सब कुछ दिखाया गया है, जिस पर उसने सभ्यता का आवरण  डाल रखा है। इन कविताओं में कवयित्री ने अपने सीधे लहजे में धर्मसत्ता, पितृसत्ता , राजसत्ता, पूँजी की सत्ता और जातिसत्ता के स्त्री-विरोधी गठजोड़ को उजागर करने के साथ शब्दों की दुनिया में स्त्री का एक प्रतिसंसार रचने की कोशिश भी की है।

उन्होंने कहा कि इको फेमिनिस्म की बातें बहुत सुनी हैं, लेकिन हमारी भाषा में उस विचार की कविताओं की हमें तलाश रहती है। ये संग्रह अद्भुत देशज तरीके से इस तलाश को कहीं पहुंचाता है। करूंगा. एक है ”कुछ पेड़” और दूसरी है ” टिहरी शहर” उद्धृत करते हुए  उन्होंने कहा कि अद्भुत बात है कि पेड़ सबकी ज़िन्दगी में रहे, लेकिन एक स्त्री की की ज़िन्दगी में वे अलग तरह से रहे जिसके चलते स्त्रियों के जीवन में उनके काटे जाने से पैदा अभाव विलक्षण है, जिसकी क्षतिपूर्ति असंभव है।

प्रो प्रणय कृष्ण ने कहा कि इस संग्रह की एक बड़ी विशेषता है जिजीविषा। भीषण दुखों के बावजूद सम्मान के साथ जीने की इच्छा और उसके लिए संघर्ष और अथक आशावाद इन कविताओं में भरपूर है. कई जगह ये आशावाद फंतासी में फूटता है. अबाबील शीर्षक कविता में ‘अबाबील’ ने खेलना छोड़ा है, लेकिन उड़ना सीख लिया है. ‘ इंतज़ार में है लड़कियां ‘ कविता में कवयित्री ने एक फंतासी रचने की कोशिश की है, जो कभी सच होगी।

कवयित्री रूपम मिश्र ने कहा कि सुनीता अबाबील की कविताएँ मुझे दुःख यातना की एक अनचीन्ही दुनिया में लाकर छोड़ती हैं जो अनदेखा होते हुए भी मुझे बहुत चीन्हा-जाना लगता है क्योंकि हम सब स्त्रियों की निर्मिति एक है। जब परतें खुलती हैं तो किसी पुरुष के लिए भले कुछ अनजाना मिले, हमारे लिए सब जाना समझा होता है। हमारी हमजातों के दुःख का रंग लगभग एक जैसा होता है। उन्होंने कहा कि भूख, दमन, और ग़ैरबराबरी का दुःख तो हम सभी जनों का एक दुःख है ही और हम स्त्रियों को साथ में एक अन्य दुःख मिला देह का, जिसकी त्रासदी स्त्री जीवन भर ढोती रहती है। अन्यायी व मतलब परस्त लोगों की बनायी दुनिया में हम अपनी देह को अभिशाप की तरह ढोते हैं।

रूपम मिश्र ने कहा कि अभिधा में कही गई ये कविताएँ अभिधा विधा का सटीक और सार्थक प्रयोग हैं। इन कविताओं में दुःख और पीड़ा कहने के लिए शिल्प और व्यंजना का भार हम क्यों धोएं । हम सच सीधे कहेंगे क्योंकि हमारे लिए ये कविताएँ काव्य रस रूपी नदी नहीं है जहां आनंद से डूबा उतराया जाता है। हमारे लिए ये यातना की रहन है, अन्याय को सीधे कहने का साहस है और अस्वीकार किए जाने की सदियों से चलन की संभावना भी है।अभिधा में कही गई कविताओं के साथ ख़तरा यह रहता है कि भाव और अर्थ संप्रेषण नीरस लग सकती है लेकिन हम कह क्या रहे हैं ये इस बात पर ज़्यादा निर्भर होता है। यह भी सत्य है कि कवि के लिये चुनौतीपूर्ण रचनात्मक कसौटी, अभिधात्मक कविता ही है। उसकी अर्थवत्ता, सम्प्रेषणीयता और बिम्बात्मक विन्यास-संयोजन, व्यंजना से कई मायनों में मुश्किल और दुष्कर होती है। अभिधा में ही लिखी ये कविता मुझे अच्छी लगी।

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की सहायक आचार्य डॉ प्रियंका सोनकर ने कहा कि अबाबील एक ऐसी चिड़िया है जो तिनके और मिट्टी से मजबूत घरौंदा तैयार करती है। सुनीता ने अपनी कविताओं को उसी तरह कि मजबूती से बुना हैं। उनकी कविताओं में वंचित, हाशिये के तबके की आवाज के साथ-साथ बहुत सी आवाजे हैं।

उन्होंने कहा कि सुनीता की कविताओं को पढ़ते हुए कई प्रमुख चिंतकों और कवियों की याद आती है। उन्होंने प्रसिद्ध उपन्यासकार, कवि चिनुवा अचेबे को उद्धृत करते हुए कहा कि हिरन को अपना इतिहास लिखना पड़ेगा नहीं तो शिकारियों की शौर्य गाथायें ही पढ़ने को मिलती रहेंगी। जब उत्पीड़ित समाज का व्यक्ति अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति करता है तो उसकी प्रभावोत्पादकता एकदम अलग होती है। उन्होंने सुनीता की कविताओं में पर्यावरण चेतना को रेखांकित किया।

अध्यक्षीय संबोधन में गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो अनिल राय ने कहा कि सुनीता के पास स्पष्ट दृष्टि है। साम्राज्यवादी, पूंजीवादी निर्मितियां जिनके प्रभाव से मनुष्य की जिंदगी को बदतर बनाया जा रहा है उसके खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करने का काम लेखक को करना पड़ता है और सुनीता ने यह किया है। उन्होंने कहा कि कविता संग्रह में अनीता भारती की लिखी भूमिका को मुकम्मल आलोचना की तरह पढ़ना चाहिए। उनकी कविताओं में हमारी जिंदगी, परिवेश, वातावरण, देश और वैश्विक परिदृश्य का कोई ऐसा प्रश्न व सन्दर्भ नहीं है जिसे समेटने और लेने की कोशिश न की गई हो।  सुनीता अबाबील ऐसी कवयित्री हैं जिन्होंने अस्म्रिता विमर्श की सीमाओं का अतिक्रमण किया है। उनकी कविताओं में व्यापक सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक संघर्ष के सन्दर्भ उपस्थित हैं।

हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो दीपक त्यागी ने सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि हिन्दी विभाग वैचारिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की श्रृंखला में इस तरह के आयोजन लगातार कर रहा है। आज हम सुनीता अबाबील की पुस्तक के लोकार्पण के बहाने स्त्री प्रतिरोध की सांस्कृतिक चेतना पर संवाद कर रहे हैं। उनकी कविताओं में हमारे समय के जरूरी और महत्वपूर्ण प्रश्न मूर्त हुए हैं। धन्यवाद ज्ञापन हिन्दी विभाग के सहायक आचार्य अभिषेक शुक्ल ने किया।

कार्यक्रम का संचालन कर रहे प्रो राजेश मल्ल ने कहा कि सुनीता जाति, रंग के भेदभाव और महिलाओं के दुःख-पीड़ा को बहुत गहराई से उद्घाटित कराती हैं।

कार्यक्रम के प्रारंभ में कवयित्री सुनीता अबाबील ने अपने कविता संग्रह से तीन कविताओं का पाठ किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि महिलाओं को अभी भी पढने लिखने के स्पेस के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। पढ़ी-लिखी स्त्रियों पर व्यंग्य किया जाता है। उन्होंने कहा कि वे हर तरह की पर्देदारी के खिलाफ हैं और अपने लेखन में इसे लाने की कोशिश कर रही हैं।

इस मौक़े पर वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दूबे, समकालीन जनमत के संपादक के के पांडेय, वरिष्ठ कथाकार हेमंत कुमार, अशोक चौधरी, मनोज कुमार सिंह, आनंद पांडेय, विकास द्विवेदी , मनीष चौबे, दिनेश शाही , रवींद्र पीएस, राजेश साहनी, सुरेन्द्र मोड़  सहित बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएँ उपस्थित थे।

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