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युवा कवि धर्मेन्द्र श्रीवास्तव नहीं रहे

गोरखपुर। युवा कवि धर्मेन्द्र श्रीवास्तव का आज शाम निधन हो गया। वे कुछ समय से गुर्दे की बीमारी से जूझ रहे थे और उनका इलाज गोरखपुर व दिल्ली चल रहा था। आज दोपहर बाद तबियत बिगड़ने पर उन्हें वायुसेना के अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां उन्होंने अंतिम सांस ली।

50 वर्षीय धर्मेन्द्र श्रीवास्तव अपने पीछे पत्नी और तीन बेटियों को छोड़ गए हैं।

धर्मेन्द्र श्रीवास्तव वायुसेना में सार्जेंट के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद बेसिक शिक्षा विभाग में शिक्षक हो गए थे।

कवि धर्मेन्द्र श्रीवास्तव को गोरखपुर के साहित्य जगत में तब जाना गया जब प्रेमचंद साहित्य संस्थान द्वारा 30 जुलाई 2014 को आयोजित प्रेमचंद जयंती कार्यक्रम में उन्होंने कविता पाठ किया। धर्मेन्द्र श्रीवास्तव ने ‘ हमारे वक्त का चेहरा ’, ‘ मगहर से लौटकर’, ‘ इंसान और जानवर ’, ‘ मुजरिम हाजिर हो ’, ‘ मुझे कार चाहिए पापा ’ शीर्षक कविता पढ़ी। उन्होंने दो नज्म भी तरन्नुम में सुनाए। उनकी कविता ने उपस्थित साहित्यकारों, संस्कृति कर्मियों को प्रभावित किया। इसके बाद उन्होंने कई मौकों पर कविता पाठ किया। वे ‘ गुलशन ‘ उपनाम से कविताएं लिखते थे।

मिजाज से यायावर धर्मेन्द्र श्रीवास्तव गोरखपुर के साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविाियों में सक्रिय भागीदारी करते थे और उन्हें बेलौस टिप्पणियों के लिए जाना जाता था। जन संस्कृति मंच, गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल और प्रेमचंद साहित्य संस्थान के कार्यक्रमों से उनका निरंतर जुड़ाव बना रहा। कुछ वर्षों से वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थें।

धर्मेन्द्र श्रीवास्तव का गीत-संगीत, नृत्य और फोटोग्राफी से गहरा लगाव था। वे नंदा नगर स्थित अपने आवासीय परिसर में गीत-संगीत का सालाना आयोजन करते जिसमें खुद झूम कर गाते और नृत्य करते। शिक्षण कार्य के लिए स्कूल आते-जाते वे पूरे रास्ते नदी, फूल-पौधों, पक्षियों और बच्चों, श्रमिेकों, ग्रामीणों की तस्वीर लेते। उनका फेसबुक वाल कविताओं और तस्वीरों से जीवंत था।

समसामयिक घटनाओं पर वे मुखर थे और नफरत की राजनीति के खिलाफ निर्भीकता से तीखी टिप्पणी करते।

प्रेमचंद पार्क में 30 जुलाई 2014 को कविता पाठ करते हुए धर्मेन्द्र श्रीवास्तव

अक्खड़ स्वभाव के कारण उनकी सोशल मीडिया से लेकर हर जगह भिड़ंत होती रही। उन्होंने बेसिक शिक्षा विभाग में सेलरी के लिए आधार से लिंक किए जाने के आदेश को मानने से इंकार कर दिया था। उनका कहना था कि जब आधार अनिवार्य नहीं है तो वेतन रिलीज करने के लिए आधार की अनिवार्यता क्यों की जा रही है। उन्होंने आधार भी नहीं बनवाया। इस कारण उनका वेतन रोक दिया गया। इसको लेकर वे तत्कालीन जिलाधिकारी से मिले जहां उनकी उनसे बहस हो गई। बहुत बाद में उन्होंने दोस्तों के कहने पर आधार बनवाया तब उनकी सेलरी रिलीज हुई।

आज देर शाम जैसे ही उनके निधन की खबर आयी गोरखपुर और आस-पास के साहित्यिक क्षेत्र में शोक व्याप्त हो गया। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि धर्मेन्द्र श्रीवास्तव नहीं रहे। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश महासचिव संजय श्रीवास्तव ने शोक व्यक्त करते हुए कहा कि धर्मेंद्र जी का इस तरह अचानक हमसे बिछड़ना बेहद त्रासद है। प्रलेस ने अपना एक महत्वपूर्ण युवा और सक्रिय साथी खो दिया है।  जन संस्कृति मंच के महासचिव मनोज कुमार सिंह ने कहा कि धर्मेन्द्र श्रीवास्तव का अल्प आयु में निधन हम सभी के लिए बड़ी त्रासदी है। वे बेहद जिंदादिल इंसान थे। हमने संभावना सा भरे एक कवि को खो दिया है।

धर्मेन्द्र श्रीवास्तव की कुछ कविताएं 

(1)

जिंदगी के कई नाम है…

स्पंदन
मुस्कुराहट
आहट
इंतजार
बारिश
धुंध
नींद
पत्तियों में सिमटी बूंदें
जंगलों की सांय सांय
सरसो के पीलेपन और गेहूं के हरेपन की जुगल बंदी
धान की रोपाई
आम के बौर की खुशबू
मजार की कव्वाली
नदी किनारे सुजाता वाला मंदिर
बहुत से बेवजह के डर
मौत का खौफ
छोटी छोटी मुट्ठीयों में महफूज अजीबोगरीब चीजें
वगैरह…..
वगैरह……
वगैरह…….
जिंदगी का पर्यायवाची कुछ भी नही होता
ना ही कोई ओर छोर………………

(2)

मैं स्वंय ही हूं सब कुछ अपनी खातिर
और मेरा विस्तार जगत है
मैं भी हूं विस्तार किसी का
महज शून्य मैं नही
शून्य के ऊपर जुड़कर
बना आठ हूं
नि:श्वासों का विकल पाठ हूं
मैं स्वंय ही हूं सब कुछ अपनी खातिर
और मेरा विस्तार जगत है
मैं भी हूं विस्तार किसी का

(3)

दूसरे के शब्दों को दोहरा रहे हैं लोग
दोहरा के कितना देखिए इतरा रहे हैं लोग
इनको भी समझे हम कोई फकीर औलिया
ये बात रोज आके समझा रहे हैं लोग

(4)

सबके हाथों चराग है लेकिन
किसकी आंखों में आग है लेकिन
झूठ से काम चलेगा कब तक
सच का खाना खराब है लेकिन

(5)

उजला उजला सा इक चेहरा सूरज चांद पे भारी है
मेरे जहन में ओस अटक गयीं जो गेहूं पर तारी हैं

जोते हुए खेतों की मिट्टी चमक रही है किरनों से
उनपे कुछ बगुले बैठे हैं कुछ का उड़ना जारी है

पानी में जब डुबकी लगाकर निकली टिटिहरी चाल क्या थी
बड़ी बहु की जैसे कमर में चाभी का गुच्छा भारी है

धूंध में लिपटी किरनों ने फिर से छूआ है पानी को
जलकुम्भी के दीप के लौ की मुस्कानें मनुहारी हैं

पीले सरसों के फूलों ने हरे गेहूं से चुगली की
दुल्हन के अरमानो की रंग-बिरंगी क्यारी है

बड़ा खेत फिर से ट्युलिप का आ बैठा है पंखो पर
आधे अधुरे किस्सों का इंकलाब भी जारी है

जिन पेडों के पत्ते झड़ गए ,बचे हुए है एकाध कही
उन पेड़ो की फुनगी का ताक-झांक भी जारी है

शहर का चांद फिर से तनहा है ,सोच रहा है क्या क्या फिर
भीड़ बहुत है , यही भीड़ तो तनहाई पर तारी है

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