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दंगे के दर्द से उपजा है फारुक का नावेल ‘हिज्र’

गोरखपुर, 7 जनवरी। सैयद फारुक जमाल का उपन्यास ‘ हिज्र ‘दंगे के दर्द से उपजा है। ऊओन्यास सांप्रदायिक दंगे के दौरान एक भाई-बहन के बिछड़ जाने की कहानी के जरिये सांप्रदायिक ताकतों को बेनकाब करता है। सांप्रदायिक ताकतों को चुनौती देकर अमन का संदेश देने वाली पुस्तक ‘हिज्र’ एक जज्बात का ताना बाना हैं। रिश्तों की कशमकश हैं। जुदाई की शिद्दत हैं। विभिन्न तबकात में बंटें समाज का दर्द हैं।

सैयद फारुक जमाल महज 24 वर्ष के हैं। उनका जन्म बाबरी मस्जिद की शहादत के तीन दिन बाद यानी 9 दिसम्बर 1992 को  हुआ था। वह सियासी परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनके पिता डा. सैयद जमाल अहमद कांग्रेस की गोरखपुर कमेटी के जिलाध्यक्ष हैं।

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फारुक जामिया मिलिया इस्लामियां में अंग्रेजी आनर्स के द्वितीय वर्ष के छात्र हैं। बचपन से ही कविता, शार्ट कहानियां, अभिनय से दिल लगाया। कविताएं और कहानियां कई मैगजीन में छपी। ‘ हिज्र ‘ के बाद वह दूसरे नॉवेल पर भी काम कर रहे हैं। कुछ वक्त बाद इसे भी मंजरेआम पर लाने की ख्वाहिश हैं।

फारुक ने बताया कि ‘ हिज्र ‘ पर किताब लिखने के लिए इस दौर ने मजबूर किया। यह शब्द मुझे खींचता रहा और मैं इसमें डूबता चला गया। यह मेरा दूसरा नॉवेल होते-होते यह मेरा पहला नॉवेल बन गया। मैंने इस विषय पर काफी स्टडी की, फिल्में देखी। उसके बाद लिखना शुरु किया। मैंने किसी दंगे से प्रेरित हुए बिना तसव्वुर के आधार अपने महसूसात को कलम से कागज पर सजाया। सिर्फ इसलिए कि इंसान को इंसान बनाया जायें। यहां इंसान तो बहुत है लेकिन इंसानियत गुम हैं। मेरी लेखनी इंसानियत का अगर एहसास भी करा दें तो मेरा लिखा सफल हैं।

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