साहित्य - संस्कृति

मनुष्य बन पाने की जद्दोजहद के साथ आत्मालोचना के भाव वाले कवि हैं राजेश मल्ल  

प्रेमचंद साहित्य संस्थान और जन संस्कृति मंच, गोरखपुर के संयुक्त तत्वावधान में 20 फरवरी को प्रेमचंद पार्क में कवि- आलोचक राजेश मल्ल  की कविताओं का पाठ और उस पर परिचर्चा का आयोजन किया गया. राजेश मल्ल का aaj जन्मदिन भी था। इस मौके पर आयोजकों और उपस्थित युवाओं ने सबसे पहले उनको गुलदस्ता भेंट कर उन्हें जन्मदिन की बधाई दी। इस अवसर पर उनकी ही कविताओं पर बना हुआ पोट्रेट भी उनको भेंट किया गया।

विश्वविद्यालय के छात्र -छात्राओं ने राजेश मल्ल की कविताओं के साथ -साथ अपनी-अपनी कविताओं का भी पाठ किया।  इसके बाद कवि राजेश मल्ल ने ‘शक और डर’ मेरे जीवन और समय का/ सबसे जरुरी शब्द है/ उन्हें शक / मेरा दिमाग काम नहीं करता ठीक से/ और वे डरते हैं / ऐसी बातें दिमाग में कहाँ से आती हैं., ‘लाशें’ और ‘आमी नदी’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया।

कार्यक्रम के आरंभ में युवा आलोचक और जसम उत्तर प्रदेश के सचिव राम नरेश राम ने प्रस्तावना रखते हुए कहा कि  मुक्त हुए बिना मनुष्य नहीं हुआ जा सकता। मनुष्य बनने की प्रक्रिया एक तरह से मुक्त होने की ही प्रक्रिया है। इतिहास हमें बहुत कुछ देता है। कुछ को हमें ढोना पड़ता है और कुछ को छोड़ना पड़ता है। मानव ह्रदय की तलहटी में इतिहास की बहुत सारी चीजें ऐसे बैठी होती हैं कि उसमें कहीं हमारा मनुष्य खो जाता है। कविता इसी खोये हुए मनुष्य की तलाश करती है। तलाश की यह प्रक्रिया आत्म आलोचना के बिना तो शुरू भी नहीं हो सकती है फिर इसके मुकम्मल होने की बात तो दूर की है। यह सामाजिक जीवन में अपने वैयक्तिक उन्नयन का कलात्मक संघर्ष मात्र नहीं है बल्कि वैयक्तिक उन्नति को सामाजिक उन्नति की शर्त बनाकर कलात्मक संघर्ष ही कला का उद्देश्य होना चाहिए। कविता या कला का यह मानदंड ही सबसे ऊँचा और जरुरी मानदंड होना चाहिए।

उन्होंने कहा कि राजेश मल्ल जी की कविताएँ मनुष्य बन पाने की जद्दोजहद को अपनी आत्मा में शामिल किये हुए हैं। हिंदी साहित्य का अधिकांश लेखन करुणा और उच्च मानवीय संवेदना से प्रेरित है। उसमे सामाजिक आलोचना तो है लेकिन आत्मिक या जिसे हम आत्मालोचना कहते हैं, वह नहीं है।  दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के नेतृत्त में थियरी ऑफ़ रिकंसिलिएशन की बात शुरू हुई थी. अर्थात अफ्रीका के उन लोगों द्वारा इस बात के लिए सार्वजनिक पश्चाताप व्यक्त करना कि उनकी पीढ़ियों ने मनुष्यों को गुलामों की तरह ट्रीट किया। मानव इतिहास में यह एक बड़ा उदाहरण है. लेकिन भारत में इस दृष्टि का अभाव है। साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति करुणा और संवेदना तक तो जाती है लेकिन यह पश्चाताप का रूप नहीं ले पाती है।

राम नरेश राम ने कहा कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक निबंध लिखा है ‘प्रायश्चित की घड़ी’ . यह निबंध संभवतः बीस के दसक  में लिखा गया था, जब रुसी क्रांति संपन्न हो गयी थी। रूस की क्रांति के कारण होने वाले व्यापक सामाजिक परिवंर्तन की गूंज इस निबंध में दिखती है। मुक्तिबोध ऐसे कवि हुए जिनकी कविताओं में सबसे ज्यादा आत्मालोचना का भाव दिखाई देता है। आत्मालोचना का यह भाव महत्त्वपूर्ण है लेकिन इस आत्मालोचना का केन्द्रीय विषय मध्यवर्गीय मनुष्य की सांसारिक छुद्रताएं हैं इसी कारण इसके कैनवास का विस्तार नहीं हो पाता, उसके दायरे में सामाजिक यथार्थ के स्तरीकृत पहलू नहीं आ पाते। इसीलिए मूल्यवान होते हुए भी वह विस्तृत नहीं है।  इधर के दिनों में आमूल प्रतिक्रांति के दौर में साहित्त्य और कला के भीतर आत्मालोचना का भाव कम हुआ है या उस पर एक तरह से अघोषित सेंशरशिप लगी हुई है। राजेश मल्ल की कविताएँ इस सेंसरशिप को तोड़ती हैं. कवि की आत्मालोचना आस्था की हद तक है जिसमें वे कहते हैं कि – मैं स्वीकार करता हूँ कि/मैं इतना मनुष्य कभी नहीं बन पाया / की समझूं तुम्हारी साँस हमेशा क्यों घुटती रहती है..’ कवि के रूप में राजेश मल्ल जी की कविताओं का भूगोल बहुत विस्तृत है। नितांत निजी दुःख से लेकर देश और समाज के अनगिनत दुखों को वे अपनी कविता का विषय बनाते हैं. उनकी कविताओं में बुद्ध किसी दैवीय शक्ति पुरुष के रूप में नहीं बल्कि नेतृत्व करने वाले एक अधूरे योद्धा के रूप में आते हैं। उनकी कविताओं में समकालीन कवियों की प्रेरणाएं साफ साफ महसूस होती हैं।

जसम के राष्ट्रीय महासचिव मनोज सिंह ने कहा कि राजेश मल्ल जी को गोरखपुर का बौद्धिक समाज एक आलोचक के रूप में जानता था लेकिन उनके कवि व्यक्तित्व से आज रूबरू होकर ख़ुशी हो रही है. ऐसे समय में जब जनता की स्मृतियों पर सुनियोजित ढंग से हमला हो रहा हो तो राजेश मल्ल की कविताएँ जनता की स्मृतियों को सुरक्षित और संरक्षित करती दिखाई देती हैं. यह एक तरह का प्रतिरोध है. इनकी कविताएँ पढ़कर गोरख पाण्डेय और वीरेन डंगवाल की याद आती है. इनकी कविताओं में स्वीकारोक्ति का भाव है. यह मूल्यवान है। कवि और गीतकार वीरेंद्र मिश्र दीपक ने कहा कि राजेश मल्ल का व्यक्तित्व आरम्भ से ही बेधड़क व्यक्तित्व रहा है। इनकी यह बेधड़की इनकी कविताओं में भी मौजूद है। वे सघन संवेदना के कवि हैं।

कथाकार लालबहादुर ने कहा कि राजेश मल्ल का जीवन एक सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्त्ता का जीवन रहा है। उनकी वही प्रतिबद्धता और व्यवस्था की क्रूरता के खिलाफ संघर्ष की भावना उनकी कविता में भी अभिव्यक्त हुई है।

वरिष्ठ पत्रकार और जसम गोरखपुर के अध्यक्ष अशोक चौधरी ने कहा कि राजेश मल्ल की कविताओं का मैं सुधी पाठक रहा हूँ। कोरोना के दौर में लिखी कविताओं को मैंने पढ़ा था. उनकी कविताओं का मूल स्वर आत्मालोचना का है, आत्मस्वीकृति का है.

परिचर्चा की अध्यक्षता करते हुए नाटककार राजाराम चौधरी ने कहा कि राजेश मल्ल की कविताएँ छोटी-छोटी लेकिन गंभीर हैं। ठीक वैसे ही जैसे बिहारी का दोहा है-सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर , देखन में छोटन लगे बेधक सकल शरीर’. उनकी कविताएँ समकालीन कविता के परिसर में स्थापित कविताएँ हैं। वे हमारे समय के एक बेहद महत्त्वपूर्ण कवि हैं.

इस अवसर पर शोधार्थी रिंकी प्रजापति, दीपक उपाध्याय, स्वेता सिंह, नित्या त्रिपाठी, प्रखर वसुंधरा वर्मा, प्रियांशु वर्मा, ज्योति प्रजापति, रंजीत कुमार, शोधार्थी राजू मौर्य ने राजेश मल्ल की कविताओं का पाठ किया और अपनी अपनी कविताओं की भी प्रस्तुति दिया. परास्नातक की छात्रा शिखा चतुर्वेदी ने एक गजल गाकर कार्यक्रम को और समृद्ध कर दिया।

कविता पाठ और परिचर्चा में कवियित्री सुनीता अबाबील, डॉ. नर्गिस बानो, बैजनाथ मिश्र, शोधार्थी पवन कुमार, अंकित कुमार गौतम, ख़ुशी सिंह, अद्वैत सान्डिल्य, रीना चौहान, ऋषिकेश कुमार राव, प्रज्ञा मिश्रा, कार्तिकेय मिश्र, निखिलेश प्रजापति, अनंत कीर्ति आनंद  समेत बड़ी सांख्य में युवा उपस्थित थे।

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