समाचार

बेटी का शव घर रख बीमार बेटे की जान बचाने भागा लेकिन वह भी न बचा

देवरिया के लार कस्बे में कुपोषण और बीमारी से गरीब मजदूर के दो बच्चों की दो घंटे के भीतर मौत
24 दिन तक बच्चों को लिए सीएचसी, जिला अस्पताल, मेडिकल कालेज दौड़ता रहा

 देवरिया जिले के लार कस्बे में एक गरीब मजदूर के दो बच्चे कुपोषण व बीमारी से दो घंटे के अंदर मर गए। गरीब मजदूर अपने बच्चों की जान बचाने के लिए 24 दिन तक लार से देवरिया और गोरखपुर सीएचसी, जिला अस्पताल और मेडिकल कालेज तक दौड़ लगाता रहा। अस्पताल उसे एक जगह से दूसरे जगह रेफर करते रहे। एक समय तो उसके सामने ऐसी स्थिति आ गई कि मरी बेटी का शव घर छोड़ बेटे की जान बचाने के लिए वह भागते हुए लार रोड रेलवे स्टेशन पहुंचा ताकि ट्रेन से बीएचयू जा सके लेकिन जब वह टिकट ले रहा था तभी बेटे की सांस हमेशा के लिए बंद हो गई।
गरीब मजदूर 28 वर्षीय पशुपति राजभर के दो बच्चों की मौत से सरकार की पोषण व स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुल गई है। बच्चों की मौत के बाद प्रशासन द्वारा उसके घर 50-50 किलो गेहूं और चावल पहुंचाया गया।
यह घटना नौ नवम्बर की है। पशुपति अपने दोनों बच्चों को दफना चुका है। अब उसके घर अफसरों, पत्रकारों और नेताओं का आना-जाना लगा है। सरकारी महकमे द्वारा कुपोषण से बच्चों की मौत से इनकार किया जा चुका है।

photo & video 113
पशुपति का घर

पशुपति ने गोरखपुर न्यूज लाइन को पूरा घटनाक्रम विस्तार से बताया जो इस प्रकार है।

“ हम तीन भाई हैं-पशुपतिनाथ, शंभूनाथ और त्रिलोकीनाथ। माता-पिता गुजर चुके हैं। तीनों भाई अलग-अलग रहते हैं। लार कस्बे के गयाधीर वार्ड में मेरा घर है। मै मजदूरी करता हूं। आठ वर्ष पहले मेरी कृष्णावती से शादी हुई। शादी के एक वर्ष बाद बेटी खुश्बू और उसके दो वर्ष बाद बेटे अजय का जन्म हुआ। इसके बाद मै मजदूरी करने गुड़गांव चला गया और वहां की अनाज मंडी में पल्लेदारी का काम करने लगा। वहां 200 से 300 रूपए कमाई होती थी। किराए पर कमरा लेकर रहता था। बाद में पत्नी और दोनों बच्चों को भी यहीं लेते आया। किसी तरह जिंदगी कट रही थी। तीन वर्ष पहले कृष्णावती कहीं चली गई और तभी से उसका पता नहीं चला। वह हमें और बच्चों को छोड़ कर चली गई। मैं तो यही कहता हूं कि वह वह गुजर (मर) गई।
गुड़गांव में हमें मजदूरी तो मिल जाती थी लेकिन खर्च भी अधिक था। बच्चों की पढाई और उनकी देख-रेख नहीं हो पा रही थी। इसलिए लार वापस लौट आया और यहीं मजदूरी करने लगा। यहां आकर दोनों बच्चें का एडमिशन प्राईमरी स्कूल में करा दिया।
लार की मंडी में ट्रक, पिकप से बोरे उतारने और लादने का काम करता था। एक बोरे की ढुलाई के तीन से चार रूपए मिलते थे। काम हर रोज नहीं मिलता था। कई बार कोई काम नहीं होता था। कई बार सुबह चार बजे ही काम पर निकलना पड़ता था। जाने के पहले बच्चों के लिए रोटी बना कर जाता था। कई बार उनके लिए भोजन तैयार नहीं कर पाता था और काम पर भागना पड़ता था। तक उन्हें कुछ पैसे दे जाता और वे दुकान पर कुछ खा लेते। शाम को लौटता तो उनके लिए भोजन का इंतजाम करता। यह सब व्यवस्था करने में बहुत मुश्किल हो रही थी।
अक्टूबर महीने में दोनों बच्चे बीमार पड़े। उन्हें बुखार हुआ। मै उन्हें 16 अक्टूबर को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र लार ले गया जहां उन्हें पीलिया बताया गया और इलाज के लिए देवरिया जिला अस्पताल ले जाने की सलाह देते हुए दवाइयां दी गईं। दवाइयों से उन्हें आराम नहीं मिला तो 3 नवम्बर को खूश्बू (7 वर्ष ) और अजय (5 वर्ष ) को लेकर देवरिया जिला अस्पताल गया। वहां उन्हें भर्ती नहीं किया गया और बीआरडी मेडिकल कालेज ले जाने को कहा गया।
मेरे पास पैसा नहीं था। कस्बे के एक साहूकार से दस रूपया सैकड़ा पर 30 हजार रूपया कर्ज लिया। सगे-सम्बन्धियों और जानने वालों से भी कुछ पैसा लिया और 3 नवम्बर को देवरिया से बस से गोरखपुर पहुंचा। मै अकेला था। शाम को बीआरडी मेडिकल कालेज पहुंचा। वहां बच्चों को वार्ड नम्बर 12 में भर्ती किया गया। एक दिन बाद उन्हें आक्सीजन वाले कमरे में ले जाया गया। नाक में नली लगी थी। दवा चल रही थी लेकिन डाॅक्टरों ने नहीं बताया कि बच्चों को क्या हुआ है। अजय और खूश्बू का पेट फूल गया था। मै अकेला उनकी देखभाल कर रहा था। आठ नवम्बर को मेरी बहन मीरा भी मेडिकल कालेज आ गई। मेडिकल कालेज में कुछ दवाइयां मिल रही थीं और कुछ बाहर के दुकानदारों से खरीदनी पड़ रही थी।
नौ नवम्बर की सुबह डाॅक्टरों ने कहा कि बच्चों की हालत खराब है। उन्हें घर ले जाओ। शाम तक मर जाएंगे। घर ले जाओ। हमने उनसे एम्बुलेंस दिलाने को कहा लेकिन सरकारी एम्बुलेंस नहीं मिली। तब भाड़े के एम्बुलेंस लेकर बच्चों को घर आया। मेडिकल कालेज से मुझे कोई कागज नहीं मिला।
घर पहुंचा तो तक डेढ बज चुके थे। घर आने के बाद दोनों की हालत और खराब हो गई। बच्चे बेहोशी की स्थिति में थे। मै उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र लार ले गया। वहां के डाॅक्टर ने कहा कि पीजीआई ले जाओ। मेरी स्थिति नहीं थी कि पीजीआई ले जा सकूं। मै बच्चों को फिर देवरिया लेकर चला कि वहां से सरकारी गाड़ी मिल जाएगी तो पीजीआई चला जाउंगा लेकिन जिला अस्पताल के गेट तक पहुंचते-पहुंचते बेटी की सांस टूट गई। उस समय शाम के छह बज रहे थे।
देवरिया जिला अस्प्ताल से बेटी का शव और बीमार बेटे को लेकर घर आया। बेटी का शव घर में रख दिया और भाइयों से उसका अंतिम संस्कार करने को कह कर आटो से बेटे अजय को लेकर लार रोड स्टेशन पहुंचा। साथ में बहन और चाचा-चाची भी थे। हम अजय को बनारस ले जाना चाहते थे। स्टेशन पहुंच कर मै टिकट कटाने लगा तभी अजय की भी सांस टूट गई। दो घंटे में दोनो बच्चे मर चुके थे। रोते-बिलखते बेटे का शव लेकर घर आया और उसी रात दोनों बच्चों को दफना दिया।
मै क्या जानता हूं कि बच्चे कैसे मरे। न डाॅक्टरों ने कुछ बताया न कोई रिपोर्ट दी। बच्चे बीमार थे और उन्हें देख मेरा दिमाग खराब था। इलाज और दौड़-धूप में 35-40 हजार रूपए खर्च हो गए। मेरे पास राशन कार्ड नहीं है। वर्ष 2011 में इंदिरा आवास मिला था। बच्चे की मौत के बाद पत्रकार आए थे। रविवार को दो अधिकारी भी आए। ”

अजय और खूश्बू को पीलिया था-डाॅ बीबी सिंह

सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, लार के प्रभारी डाॅ बीबी सिंह ने बताया कि अजय और खुश्बू को उसके पिता 16 अक्टूबर को दिखाने सीएचसी पर लाए थे। जांच में पीलिया पाया गया। पशुपति को देवरिया जिला अस्पताल जाने की सलाह दी गई थी लेकिन वह बहुत दिन बाद देवरिया जिला अस्पताल गया। तब तक दोनों की बीमारी काफी बढ़ गई थी। नौ नवम्बर की शाम दोनों बच्चों को सीएचसी लाया गया था। उस समय दोनों अनकांशस थे। चेहरे को देखकर लग रहा था कि पीलिया का स्तर 25 से 26 फीसदी रहा होगा। हमने उन्हें बीएचयू ले जाने को कहा। घर के लोग एक घंटे तक विचार-विमर्श करते रहे कि क्या करें। मैने किसी भी अखबार और मीडिया से नहीं कहा कि कुपोषण के वजह से दोंनो बच्चों की मौत हुई। बच्चों की मौत का कारण कुपोषण नहीं, पीलिया था।

Related posts