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महिलाओं के श्रम और राष्ट्रीय आय में योगदान का मूल्यांकन कब होगा

                                 दिनेश यादव

ईंट-भठ्ठे पर ईंट पाथते, ईंट -बालू ढोते, मनरेगा के कार्यों में महिला मजदूर जुटी दिखाई देती हैं। ये दृश्य बिल्कुल आम हैं। मैने कई बार एक अजन्मे बच्चे को भी मजदूरी करते देखा है…माँ अपने अन्दर एक और जीव लिये, सिर पर बोझ उठाती है…उसके और एक या दो बच्चे वहीं पास मे रेत के ढेर पर खेल रहे होते हैं।
एक अनुमान के मुताबिक विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई घंटे काम करती हैं, लेकिन वह केवल 10 फीसदी आय ही अर्जित करती हैं और विश्व की केवल एक फीसदी संपत्ति की ही मालकिन हैं।
महिला श्रम या श्रम में महिलाओं की भागीदारी पर बात करते समय पिछले कुछ वर्षो में तीन विशेष बातें सामनें आती है। एक तथ्य है कि महिलाओं की श्रम शक्ति में बढ़ती भागीदारी, घरेलू कामों में महिलाओं की बदलती भूमिकाएं और शादीशुदा होने पर उनकी पुनरुत्पादन की भूमिका का नौकरी और काम की जरूरतों पर प्रतिकूल असर डालता है।
जब हम महिला सशक्तिकरण की बात करतें है तब यह जरूरी है कि समाज में महिलाओं के श्रम और उसकी स्थिति का आकलन करें।
ज्यादातर औरतें 85 फीसदी किसी न किसी रूप में कृषि से जुड़ी हुई है। कृषि पर पिछले दशकों में आए संकट की वजह से कृषि से हुए परिवारों और खास तौर से ग्रामीण महिलाओं की स्थिति बुरी तरह प्रभावित हुई है। हालाकि औरतों की उत्पादक गतिविधियों में हिस्सेदारी बढ़ी है, लेकिन इन गतिविधियों को मापने के सटीक तरीके नहीं होने के कारण महिलाओं के राष्ट्रीय आय में योगदान को ठीक से समझ पाना मुश्किल है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत एकल परिवार और ‘घर’ या गृहस्थी की परिभाषा में ऐसे एक सदस्यीय परिवारों को शामिल नहीं किया गया है जिनकी मुखिया औरत हो।
घरेलू महिला कामगारों की स्थिति और भी भयानक है, क्योंकि समाज में घरेलू काम को काम माना ही नहीं जाता है, चाहे वो अपने घर पर हो या दूसरे के घर पर। श्रम विभाजन के तहत घरेलू महिला कामगारों को हेय दृष्टि से देखा जाता है जिनके लिए सामाजिक सुरक्षा का कोई उचित प्रावधान नहीं है।
घरेलू महिला कामगारों और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं के साथ हिंसा और यौन शोषण के मामलों लगातार बढ़ोतरी हो रही है। एक श्रमिक के रूप में महिला श्रमिक की पुरुष श्रमिक से अलग समस्याएं होती हैं जिनकी श्रम कानूनों में कोई चर्चा नहीं है। अगर एक महिला निर्माण कार्य में अपने पति के साथ काम करती है तो उसका वेतन भी पति को ही मिल जाता है, हो सकता है कि वो पति उन पैसों को शराब में बरबाद भी कर दे तो भी महिला कुछ नहीं कर सकती।
इसी कारण महिलाएं खुद को सशक्त नहीं बना पाती हैं। असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 में महिला श्रमिक को श्रमिक ही नहीं माना गया है जबकि असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की संख्या पुरुषों की तुलना में ज्यादा है।
इसके अलावा महिलाओं के लिए काम के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण अनेक प्रकार से मालिकों की डाट सुननी पड़ती है। जब एक परिवार पलायन करके गांव से शहर आता है तो मात्र पुरुष की मजदूरी से घर का काम नहीं चलता है इसीलिए महिलाओं को भी काम पर जाना पड़ता है जिनका पहले से उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता है। जितने भी झुककर करने वाले काम हैं उनमें पुरूषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा है।
आर्थिक और सामाजिक आजादी की लड़ाई लड़ रही महिलाएं जागरुक तो हुई हैं है,पर इनकी सुरक्षा को लेकर संकट अभी भी बरकरार है। हालाकि हाल के वर्षों में महिलाएं किसी और की परवाह किए आत्म रक्षा में खुद आगे बढ़ी है।

dinesh yadav

(शिक्षक -पत्रकार दिनेश यादव देवरिया में रहते हैं। उनसे 9455856559 पर संपर्क किया जा सकता है)

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