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यूपी जनादेश : प्रचंड जनादेश , चुनौती भी प्रचंड

मनोज कुमार सिंह 
गोरखपुर , 18 मार्च। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम आ गए हैं। भारतीय जनता पार्टी ने अभूतपूर्व जीत हासिल की है और उसने अपने सहयोगी दलों के साथ प्रदेश की 403 में से 325 सीटे जीत ली है। चुनाव परिणाम ऐसा है जिससे सभी सदमे में हैं। जीतने वाले भी और हारने वाले भी। जीतने वाले हैरान हैं कि उन्हें इतनी सीटें कैसे मिल गई जिसका अंदाजा न उनको था न एग्जिट पोल करने वालों को। हारने वाले इस बात से सदमे में हैं कि उनकी इतनी बुरी गत कैसे हो गई। इसलिए ईवीएम टेम्परिंग का मामला उठ रहा है और इसे हवा में भले उड़ा दिया जाए लेकिन बीजेपी के विरोध में मत देने वाले मतदाताओं के बड़े हिस्से में ‘ कुछ गड़बड़ी हुई है ’ का विश्वास पुख्ता हो रहा है।
उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम भले अप्रत्याशित हों लेकिन चुनाव खत्म होने के बाद से यह सभी मानने लगे थे कि बीजेपी के बहुमत के करीब तक पहुंच गई है। चरण दर चरण उसका ग्राफ बढ़ता ही जा रहा था। हैरानी सिर्फ उसकी प्रचंड जीत पर है।
बीजेपी ने एक तरह से वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव का प्रदर्शन फिर से दोहराया है। लोकसभा चुनाव में उसने उत्तर प्रदेश में 42 फीसदी वोट हासिल किए थे और 2017 के विधानसभा चुनाव में उसने 39.7 मत प्रतिशत हासिल किया है। उसे 312 सीट मिली है जबकि उसके सहयोगी दलों अपना दल सोनेलाल को नौ, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को 4 सीटें मिली हैं।
बसपा को 19, सपा को 47, कांग्रेस को 7, राष्टीय लोकदल और नई नवेली निषाद पार्टी को एक-एक सीट मिली है। तीन सीटें निर्दलीयों ने जीती है।
उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास में कांग्रेस का अब तक का सबसे बुरा प्रदर्शन दर्ज हुआ है। वह सिर्फ 6.2 फीसदी वोट मिले हैं। समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद न सिर्फ उनकी सीटों की संख्या एक चैथाई हो गई बल्कि वोट प्रतिशत भी न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई।
दो दशक से ज्यादा समय से यूपी की राजनीति में छायी बसपा और सपा सीटों की संख्या के हिसाब से अपने चुनावी राजनीति के शुरूआती दौर में पहुंच गई हैं। वोटों का शेयर थोड़ा दिलासा दे रहा है। सपा को 21.8 और बसपा को 22.2 फीसदी मत हासिल हुए हैं।
यूपी में भाजपा इतने प्रचंड बहुमत से कैसे जीती और प्रमुख विपक्षी दलों की हालत इतनी पतली कैसे हुई, इसका विश्लेषण मोटे तौर पर यह किया जा रहा है कि भाजपा ने सम्पूर्ण सर्वण जनाधार के साथ गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव एससी वोट को अपने साथ जोड़ लिया। यही नहीं बीजेपी के साथ-साथ कुछ राजनीतिक विश्लेषक भी यह दावा कर रहे हैं कि तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं को जबर्दस्त समर्थन बीजेपी को मिला है। यह भी कहा जा रहा है और माना जा रहा है कि नोटबंदी के फैसले ने मोदी में गरीबों की आस्था बढ़ा दी है और उन्होंने अमीरों के प्रति वर्ग घृणा की भावना से संचालित होकर बीजेपी को वोट दिया है। इस व्याख्या का सूत्रीकरण मंडल-कमंडल और कार्ल मार्क्स के मिक्सचर में किया जा रहा है। इसके साथ ही यह दावा किया गया जा रहा है कि यूपी में जाति-धर्म की राजनीति का अंत हो गया है और उसके जगह विकास की राजनीति ने जगह ले ली है।
जब किसी दल को इस तरह का प्रचंड जनादेश मिले तो उसके द्वारा या उसके पक्ष में किए जा रहे तमाम दावे सही प्रतीत होते हैं और आप को विश्वास दिलाते हैं कि ऐसा ही हुआ है। यदि उपरोक्त सभी फार्मूले फिट बैठे हैं तो बीजेपी को 70 फीसदी से भी ज्यादा वोट मिलने चाहिए थे लेकिन बीजेपी के स्पष्ट विरोधी मत 50 फीसदी सपा 21.8, बसपा 22.2, कांग्रेस 6.2 हैं। जाहिर है कि बीजेपी की प्रंचड जीत के विश्लेषण में अतिरेक हैं।
पहली बात यह है कि यूपी का यह जनादेश जाति की राजनीति का अंत नहीं करता है बल्कि जाति की राजनीति के और मजबूत होने का संकेत देता है। बीजेपी ने तमाम अन्तर्विरोधों को साधते हुए एक नई सोशल इंजीनियरिंग की है जो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी और बेहतर तरीके से कामयाब हुई है। बीजेपी की इस कामयाबी में बीजेपी की सफलता से ज्यादा सपा-बसपा की राजनीतिक विफलता का योगदान है।
गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव एससी को सपा-बसपा से छटकाने का काम बीजेपी वर्ष 2002 से ही करने लगी थी। राजनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री रहते इसकी रणनीति बुनी थी लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। बाद के सभी चुनावों में भी बीजेपी गैर यादव ओबीसी मतों के लिए कुछ छोटे दलों से गठबंधन व लेन-देन का प्रयास करती रही लेकिन बीजेपी का सर्वण वर्चस्वशाली नेतृत्व इसके सफल नहीं होने दे रहा था। आरके चैधरी की राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी, संजय चैहान की जनवादी पार्टी सोशलिस्ट से गठबंधन इसके उदाहरण है। वर्ष 2012 के चुनाव में बसपा से निकाले गए बड़े कुशवाहा नेता बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा में शामिल भी इसी रणनीति के तहत किया गया था लेकिन तब योगी आदित्यनाथ सहित तमाम भाजपा नेताओं ने एनआरएचएम के दागी को शामिल करने बवाल कर दिया था और बीजेपी को अपने कदम पीछे करने पड़े थे। मोदी-शाह के आगमन के बाद बीजेपी के सामाजिक आधार को विस्तारित करने केे लिए ओबीसी-एससी को जोड़ने की मुहिम को पार्टी के अंदर व्यापक स्वीकृति मिल गई और इसका विरोध कम होता गया। वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी द्वारा खुद को पिछड़ा वर्ग का घोषित किया जाना इसी रणनीति का हिस्सा था।
बसपा और सपा ने अपने गठन के बाद यूपी में दलित और सपा ओबीसी जातियों को अपने साथ जोड़ने का खासा प्रयास किया था। दोनों के 1993 में गठबंधन बनाने और टूट जाने बाद भी उन्होंने इस ओर ध्यान हटाया नहीं बल्कि सवर्णों के कुछ हिस्सों विशेषकर क्षत्रियों और ब्राह्मणों को भी अपने से जोड़ने में कामयाबी पायी। यही कारण है कि 2007 में बसपा और 2012 में सपा ने अपने बूते सरकार बना ली लेकिन यहीं से उनकी कमजोरी शुरू होती है। बसपा में जाटव वर्चस्व कायम हो गया तो सपा में यादव। दलितों और ओबीसी की अन्य जातियों शिकायत बढ़ने लगी कि उन्हें सत्ता में पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिल रही है। आरक्षण में लाभ के बंटवारे को लेकर भी अन्तर्विरोध बढ़ने लगे। ओबीसी की डेढ़ दर्जन जातियां अपने को एससी में शामिल करने की मांग करने लगी जो कुछ जातियां ओबीसी में अलग से कोटा बनाने की। यह स्वभाविक भी था क्योंकि अस्मिता की राजनीति पहचान, प्रतिनिधित्व और सत्ता में हिस्सेदारी की ओर चरणबद्ध तरीके से बढ़ती है। इन सवालों को सपा-बसपा नेतृत्व ने पूरी तरह से उपेक्षा की। जिसका परिणाम हुआ कि एक-एक कर तमाम एसी और ओबीसी जातियां सपा-बसपा से अलग होेने लगीं और उनकी खुद की पार्टियां अस्तित्व में आने लगीं।
डा. सोनेलाल पटेल ने 1995 में ही कुर्मियों की पार्टी अपना दल बना ली। वर्ष 2004 में ओमप्रकाश राजभर ने राजभरों को केन्द्रित करते हुए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी बना लिया। मौर्य, शाक्य व कुशवाहा को केन्द्र में रखकर राष्टीय समानता दल, केशव देव मौर्य का महान दल और बाबू सिंह कुशवाहा का जन अधिकार मंच बना। बिंद, मल्लाह को केन्द्र में रखकर प्रगतिशील मानव समाज पार्टी बनी तो वर्ष 2016 मंे निषाद पार्टी अस्तित्व में आ गयी। संजय चैहान, ओम प्रकाश चैहान, ओम प्रकाश ठाकुर ने जनवादी पार्टी सोशलिष्ट बनायी जो बाद में दो भागों में बंट गई।
इन दलों के नेताओं ने कम समय में अपनी जातियों में पैठ बना ली और उनकी कोशिश रहती थी कि चुनाव में प्रमुख दलों से गठजोड़ करें लेकिन सपा-बसपा-कांग्रेस ने इनकी तरफ कोई तवज्जो नहीं दी। इसकी जगह वे चुनाव में इन जातियों के कुछ नेताओं को टिकट देकर संतुष्ट होते रहे कि इनके जरिए ये जातियां उनसे जुड़ी रहेंगी। ओबीसी की 17 जातियांे को एससी में शामिल करने का प्रस्ताव पारित कर सपा संतुष्ट थी कि ये सभी उनके साथ रहेंगी। ऐसा मुलायम सरकार ने भी किया था लेकिन अब बात आगे बढ़ गई थी और सिर्फ इससे काम नहीं बनने वाला था।
विधानसभा चुनाव में भाजपा ने एक तो सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल से गठजोड़ किया वहीं बसपा छोड़ कर आए आरके चैधरी, स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चैहान आदि नेताओं को न सिर्फ अपने यहां जगह दी बल्कि उन्हें चुनाव लड़वाया।
निषाद पार्टी, प्रगतिशील मानव समाज पार्टी, महान दल, जन अधिकार मंच को बीजेपी ने तवज्जो नहीं दी। ये दल और पसमांदा मुसलमानों की पार्टी पीस पार्टी किसी बड़े गठबंधन की वकालत करते रहे। पहले तो जद यू ने इनमें रूचि दिखाई लेकिन बाद में वह यूपी चुनाव से ही किनारा कर गई। पीस पार्टी के अध्यक्ष डा अयूब ने विज्ञापन देकर बिहार की तर्ज पर सपा, बसपा, कांग्रेस और छोटे दलों का महागठबंधन बनाने की अपील की लेकिन उनकी बात किसी ने नहीं सुनी। लिहाजा ये अलग-अलग लड़े और भाजपा विरोधी मतों में बिखराव हुआ। निषाद पार्टी के अलग लड़ने से ज्यादा नुकसान सपा-बसपा को हुआ और भाजपा को फायदा हुआ। इसी तरह पीस पार्टी और एमआईएमआईएम द्वारा मुस्लिम बहुल सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करने से मुसलमान मतों को विभाजन चार स्थानों पर हुआ। मुस्लिम मतों के विभाजन से भाजपा की जीत स्वभाविक थी जिसकी व्याख्या मुसलमानों द्वारा भी भाजपा को दिए जाने के बतौर की जा रही है।
इस चुनाव में ब्राह्मण और क्षत्रिय मत पूरी तरह से भाजपा की तरफ गया। भाजपा को ब्राह्मण मतों पर प्रबल विश्वास था इसलिए उसने सपा-बसपा के ब्राह्मण विधायकों के विरूद्ध ब्राह्मण उम्मीदवार दिए और अधिकतर चुनाव जीतने में सफल रहे। नोटबंदी के नुकसान से वैश्यों में बेचैनी जरूर थी लेकिन अंततः विकल्पहीनता मंे उन्होंने भाजपा को ही चुना। सवर्णों की दूसरी जातियां 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ थी और विधानसभा चुनाव में भी बनी रहीं।
चुनाव परिणाम आने के बाद जाति की राजनीति के अंत की घोषणा करने वाली भाजपा ने पूरा चुनाव जातीय गोलबंदी की रणनीति पर बुना था और वह जातियों की रीयूनियन करने में सफल हुई है।
भाजपा ने चुनाव में साम्प्रदायिकता का कार्ड खुल कर खेला। श्मशान, कब्रिस्तान, स्लाटर हाउस का मुद्दा उठाया गया और सरकार बनने के बाद राम मंदिर बनाने की बात कही। उसका जोर ध्रुवीकरण पर था। बसपा द्वारा 100 मुसलमानों को टिकट दिए जाने और हर सभा में मायावती द्वारा इसे प्रचारित करने से बीजेपी को ध्रुवीकरण करने में और आसानी हुई।
चुनाव परिणाम आने के बाद विकास की जीत कहने वाली भाजपा ने 2014 के उलट यह चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा ही नहीं। भाजपा के पास यूपी में विकास के लिए काम गिनाने लायक कोई उपलब्धि नहीं थी। इसके टीक उल्टे जाति की राजनीति करने वाली सपा अखिलेश यादव की अगुवाई में विकास को चुनाव का मुद्दा बनाए हुए थी।
कालेधन के खिलाफ लड़ने की बात करने वाली बीजेपी ने रैलियों, विज्ञापनों पर सबसे ज्यादा खर्च किया है। उनके दर्जनों नेता हेलीकाप्टर से उड़ते रहे और लाखों के खर्च वाली जनसभाओं को सम्बोधित करते रहे। भाजपा ने विज्ञापन देने के साथ-साथ यह सुनिश्चित किया कि दूसरों के विज्ञापन भी खास कर प्रिंट मीडिया मंे न आने पाएं। अधिकतर अखबारों के प्रमुख पृष्ठों के प्रमुख स्थान उसने पहले से ही बुक करा लिए थे। दूसरे दल और प्रत्याशी चाह कर भी विज्ञापन नहीं दे सकते थे।
चुनाव के पहले उसने बीएसपी में तोड़फोड़ की और तमाम नेताओं के अपने पाले में ले लिया तो सपा के परिवार में झगड़ा लगा दिया। अमर सिंह अब जिस तरह से राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति के लिए कार्य करने का संकल्प ले रहे हैं, उससे अब कोई शक सुबहा नहीं कि उन्होंने अपना काम पूरी तरह से किया।
यूपी में सरकार बनाने के बाद बीजेपी को जनता की आंकाक्षाओं और उसके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं की चुनौती का सामना करना पड़ेगा। ऐसे तमाम वादे किए गए हैं जिन्हें बाद में जुमला कहा जाएगा। जिन अतिपिछड़ी और दलित जातियों को उसने अपनी ओर किया है, वे लम्बे समय तक उसके साथ रहेंगी इसमंे संदेह है क्योंकि वे डेढ़ दशक से अपने मुकाम की तलाश में इधर-उधर भटक रही हैं। उनका स्वभाविक ठौर भाजपा नहीं है और मुख्यमंत्री व कैबिनेट बनते ही अन्तर्विराधों का एक नया दौर शुरू होगा। उनकी मांगों को पूरा करने के लिए आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था को पूरी तरह उलटना-पलटना पड़ेगा। जाटों को तो रो-गाकर इस बार तो मना लिया लेकिन आगे उनके साहित अति पिछड़ी व दलित जातियों की कैसे मना पाएंगे, ये देखना दिलचस्प होगा। सवर्ण जातियां भी जिस तरह टैक्टिकल हो रही हैं, उन्हें एक साथ रखना किसी भी पार्टी के लिए अब मुश्किल होगा। नोटबंदी से नीतिश कुमार के शब्दों में आत्मसंतोष अनुभव कर रहे गरीबों का धैर्य अपने खातों में धन आने के इंतजार में कब तक बना रहेगा, यह भी देखना होगा।
( यह लेख समकालीन जनमत के मार्च 2017 अंक में प्रकाशित है )

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