(गोरखपुर के जिलाधिकारी रहे आईएएस अधिकारी डॉ हरिओम ने गोरखपुर पर लिखी कविता ‘ ये जो शहर है गोरखपुर ‘ को फ़ेसबुक पर साझा किया है जिसे बहुत पसंद किया जा रहा है। कविता को साझा करते हुए उन्होने टिप्पणी भी लिखी है। हम यहाँ उनकी कविता और टिप्पणी दोनों प्रस्तुत कर रहे हैं । सं.)
एक ख़त गोरखपुर के नाम
गोरखपुर और यहाँ के लोग मेरे लिए कितने अज़ीज़ हैं यह बताने की ज़रूरत नहीं. पिछले दस सालों में मुझे उनकी कितनी मुहब्बत और इज्ज़त मिली है इसका एक छोटा अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि मेरे फेसबुक एकाउंट्स में कुल १०००० हज़ार में से तकरीबन ७००० मित्र गोरखपुर या उसके आसपास के जिलों से हैं. शायद एकाध हज़ार ऐसे भी हैं जिन्हें फेसबुक की लिस्ट में जगह न हो पाने के कारण अभी भी मैं शामिल नहीं कर सका हूँ. मेरे दिल में गोरखपुर की बेशुमार यादें हैं- कुछ कड़वी और बहुत मीठी, कोमल, सुन्दर. बड़े दिनों से सोच रहा था कि एक ऐसे समय में जहां फायदे-नुक्सान के हिसाब से अलग बड़ी मुश्किल से कोई रिश्ता बनता है, ऐसे में वह क्या चीज़ है जो इतना लम्बा वक्फ़ा गुजरने के बाद भी मुझे इस शहर और यहाँ के लोगों से ऐसे जोड़े है जैसे मैं दरअसल वहीँ का होऊं. कितनी बातें, कितनी यादें, कितने बुलावे और मेरी तरफ से ना आ पाने के कितने बहाने….कहना-बताना मुश्किल है.(हालांकि २००९ में फ़िराक सम्मान लेने के लिए मैं वहां गया था एक दफ़ा)…आज मैं अपने उसी अज़ीज़ शहर गोरखपुर के लिए एक कविता यहाँ दे रहा हूँ…मेरे गीतों और ग़ज़लों पर दिल खोल कर तारीफ लुटाने वाले इस शहर से मैं किस हद तक जुड़ा हूँ उसका ठीक अनुमान मुझे नहीं है लेकिन हो सकता है कि यह कविता गोरखपुर के लिए मेरे जज़्बात को कुछ हद तक बयान कर सके….इसी उम्मीद के साथ यह कविता मैं यहाँ दे रहा हूँ जिसे मैंने वहां रहते हुए ही जुलाई और अक्टूबर २००६ के दरम्यान आदतन अपने कामकाज से वक़्त बचा-चुरा कर लिखा था, और जो बाद में मेरी किताब ‘कपास के अगले मौसम में’ का हिस्सा बनी….कविता थोड़ी लम्बी ज़रूर है लेकिन गोरखपुर से हमारे रिश्ते का बयान करने के लिहाज़ से बहुत ही मुख़्तसर है…
ये जो शहर है गोरखपुर
१)
ये जो शहर था बिस्मिल का
यह वह शहर तो नहीं
जिसके सिरहाने बजा था कोई बिगुल
और चौक कर उठा था इतिहास
यह वो ज़मीं तो नहीं
जिसकी मिट्टी अपनी सूखी त्वचा पर मल
कभी खेत-मजदूरों ने ठोकी थी ताल
और आकाश की छाती से उतर
भागे थे फ़िरंग
ये धुआंती हवा
नहीं देती पता उस अमोघ वन का
जिसने किसी राजा की आँखों में
छोड़ा था आज़ादी का हरा स्वप्न
और जिसने बसाई थी
जुगनुओं की एक राजधानी सुन्दर
इस शहर के सीवान में
अब कैसे ढूँढें वह वृक्ष
जिसके नीचे सदियों बैठे रहे गोरख
और रचते रहे
अज्ञान और पाखंड के नाश का अघोर पंथ
अब नहीं दिखती चिटखी मीनारों वाली ईदगाह में
वो नन्हीं चहक
जहां साहित्य के किसी मुंशी ने
हामिद के हाथों में सौपा था
दादी का चिमटा
अब जबकि
किसी शहर से छीन ली गई हो उसकी विरासत
परम्परा के पहिये को मोड़
उलट दी गई हो उसकी गति
कैसे मिल सकेंगे फिर हमें
राहत, देवेन्द्र नाथ
धरीक्षण, मोती और फ़िराक
नदियों की गोद में खेलता एक शहर
जिसके माथे पर मचलती रहे
उमगते चाँद की ठंडक
और जो तब भी बूढ़ा होने से पहले हो जाए बंजर
एक शहर, लोग कहते हैं-
जिसका अक्स कभी
झील में झमकते परीलोक-सा लगता था
२)
एक शहर जिसके सुर्ख चेहरे पर
चढ़ा हो पीला लेप
जिसके जिस्म से गुज़रते हों
उन्माद के ज्वार अक्सर
जहां आदिम मुद्दों पर चलती हों बहसें
दिन-रात
ठेकों-पट्टों और लाइसेंसों की बिसात पर
नाचती हो सियासत
एक शहर जहां
गाय-भैस, सूअर और कुत्ते से
कहीं ज्यादा आसानी से
मरता हो आदमी
एक शहर जहां पलते हों
विराट राष्ट्र के सैन्य स्वप्न
और ‘टाउन से अनुपस्थित हो गाउन’
ये वह शहर तो नहीं
जिसके बारे में
‘उजली हंसी के छोर पर’ बैठ
आधी सदी से सोच रहे हों परमानंद
या जहां कामरेड जीता कौर ने
रामगढ़ ताल के किनारे
माथे पर साफा बाँध
छोटी जोत वाले किसानों
और बुझी आखों वाली स्त्रियों के मन में
जगाया था संघर्ष और जीत का जज़्बा
३)
पर यकीनन
ये वह शहर है
जहां से आरम्भ होगा
हमारी सदी का शास्त्रार्थ
जिसमें भाग लेंगे
नीमर, गजोधर, रुकमा और भरोस
और कछारों के वे किसान
जिनके खेतों में उगती रही है भूख
वे जुलाहे जिन्होंने चरखों की खराद पर
काटी हैं अपनी उंगलियाँ
वे मज़दूर जो ठन्डे पड़ गए
कारखानों की चिमनियों से लिपट
पुश्तों से कर रहे अपनी बारी का इंतज़ार
इस शस्त्रार्थ में
उतरेंगीं वे लड़कियां भी
जो दादी-नानी के ज़माने से
जवान होने कि ललक में
हो जाती हैं बूढ़ी
और पूछेंगी अपने जीवन का पहला प्रश्न
और खुद ही देंगी उसका जवाब
हमारी सदी के इस अद्भुत विमर्श को
सुनेंगे योग-भोग के पुरोधा
पण्डे और पुरोहित
मौलवी और उलेमा
हाकिम-हुक्काम
सेठ-साहूकार
मंत्री और ठेकेदार
इस शास्त्रार्थ में नहीं होंगे वे विषय
जिन्हें पाषाण काल से पढ़ाते आ रहे हैं
‘परम-पूज्य’ गुरुवर
और न ही होंगे वे मसाइल
जिनके समाधान में
मालामाल होते रहे हैं
मुन्सफ़ और वकील
हमारी सभ्यता के इस उत्तर-आधुनिक समय में
पूछे जायेंगे संस्कृति के आदिम प्रश्न –
कि पंचों के राज में भूख से क्यों मरता है बिकाऊ?
कि मछुआरों के खेल में कैसे सूख जाते हैं ताल?
कि इतने भाषणों के बावजूद दरअसल क्यों मर जाती है भाषा?
कि इस शहर में प्रेम करना आखिर क्यूँ है इतना मुश्किल?
या फिर शायद सिर्फ यही
कि ये जो शहर है गोरखपुर
ये वह शहर क्यूँ नहीं ?