वामपंथी बुद्धिजीवी और साहित्यकार प्रो. सुरेंद्र प्रसाद का निधन
समस्तीपुर (बिहार), 20 मई। वामपंथी बुद्धिजीवी और साहित्यकार प्रो. सुरेंद्र प्रसाद का 16 मई को बिहार के समस्तीपुर में 82 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वह दो वर्षों से गंभीर रूप से अस्वस्थ चल रहे थे। 17 मई को महनार के पास गंगा घाट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ। भाकपा(माले) के पोलित ब्यूरो सदस्य का. धीरेन्द्र झा, जसम राज्य सचिव सुधीर सुमन, राज्य उपाध्यक्ष सुरेंद्र प्रसाद सुमन, राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य संतोष सहर और राज्य सहसचिव संतोष झा उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए। संयोग है कि 17 मई को प्रो. सुरेन्द्र प्रसाद का 83वां जन्मदिवस था। 17 मई 1934 को वैशाली जिले के नारायणपुर डेढ़पुरा गांव में उनका जन्म हुआ था।
मिथिलांचल इलाके में एक जनपक्षीय साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी के रूप में प्रो. सुरेंद्र प्रसाद ने अविस्मरणीय भूमिका निभाई। वे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे। समस्तीपुर में जन संस्कृति मंच की स्थापना में उनकी अहम भूमिका थी। वे जन संस्कृति मंच, समस्तीपुर के संस्थापक अध्यक्ष थे। कविता और आलोचना की उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। 1961 में प्रकाशित लघु प्रबंध काव्य ‘तिमिरांचल’ उनकी पहली पुस्तक थी। उसके बाद 1981 में जनवादी गीत संग्रह ‘एक और लहर हाथ की’, 1985 में आलोचना पुस्तक ‘हिंदी की प्रगतिवादी कविता’ और 1991 में कविता संग्रह ‘जनमते पंख : गूंजती किरणें’ का प्रकाशन हुआ। 2002 में कविता संग्रह ‘हवा को इसका दुख है’ छपा। आलोचनात्मक लेखों की पुस्तक ‘सहित्य संदर्भ: दिशा और दृष्टि’ और प्रबंध काव्य ‘परित्यक्ता’ का प्रकाशन इसके बाद हुआ। ‘परित्यक्ता’ में एक स्वतंत्रचेत्ता नारी के रूप में सीता की छवि गढ़ी गई है, जो सामंती पितृसत्तात्मक ढांचों को तोड़ती है। उनकी यह कृति मिथकों की आड़ में की जा रही पुनरूत्थानवादी राजनीति और गैरलोकतांत्रिक सामाजिक धारणाओं का जबर्दस्त प्रतिवाद करती है। प्रो. सुरेंद्र प्रसाद साहित्यिक पत्रिका ‘समकालीन चुनौती’ के संस्थापक संपादक थे। हिंदी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने कुछ कहानियां भी लिखीं। ‘समय की धार पर’ नामक एक कहानी संग्रह का संपादन भी उन्होंने किया। ‘कामरेड की बेटी’ उनकी एक चर्चित कहानी है। उनका निधन न केवल जन संस्कृति मंच, बल्कि बिहार के पूरे प्रगतिशील-जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन के लिए अपूरणीय क्षति है।
प्रो. सुरेन्द्र प्रसाद संस्कृतिकर्म और राजनीतिकर्म को एक दूसरे का पूरक मानते थे।
वे बुद्धिजीवियों की जनपक्षधरता के प्रबल हिमायती थे। जनांदोलनों के दौरान वे कुछ दिनों तक जेल में भी रहे। 2004 में 1857 के शहीदों के लिए स्मारक बनाने के सवाल पर फैजाबाद में आयोजित एक कन्वेंशन में जाते वक्त मायावती सरकार की पुलिस ने प्रो. सुरेंद्र प्रसाद और उनकी पत्नी को भी गिरफ्तार कर लिया था। उस कन्वेंशन में शामिल होने जा रहे तमाम साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों के साथ वे भी कई दिनों तक जेल में रहे थे। प्रो. सुरेंद्र प्रसाद से प्रभावित होकर कई पीढ़ियां प्रगतिशील-जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन में शामिल हुईं।
प्रो. सुरेंद्र प्रसाद का छात्र जीवन में ही वामपंथी आंदोलन से जुड़ाव हो गया था। समस्तीपुर में जनवादी लेखक संघ की स्थापना में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। लगभग दो दशक तक सीपीआई-एम में रहने के बाद सन् 2000 में वे भाकपा-माले में शामिल हुए थे। भाकपा-माले के उम्मीदवार के बतौर उन्होंने लोकसभा चुनाव भी लड़ा। वे भाकपा-माले के केंद्रीय कंट्रोल कमीशन के सदस्य भी बनाए गए।